सनातन के ४६ वें संत पू. भगवंत मेनरायजी की सेवा में रहते समय साधकों को सीखने मिले सूत्र एवं प्राप्त अनुभूतियां !

१. पू. मेनरायजी के निरपेक्ष प्रेम का अनुभव करना

१ अ. पू. मेनरायजी स्वयं बीमार होते हुए भी उनके द्वारा साधक को प्रतिदिन मिठाई देकर कृतज्ञता व्यक्त करना : ‘वर्ष २०१९ में पू. मेनरायजी जब रामनाथी आश्रम में थे, तब मुझे ‘उनके वस्त्र धोने और इस्तरी करने’ की सेवा मिली थी । तब पू. (श्रीमती) मेनरायजी एवं पू. मेनरायजी दोनों ही बीमार थे । उन्हें अधिकांश समय विश्राम ही करना पडता था । मैं प्रतिदिन जब उनके वस्त्र लेकर उनके कक्ष में जाता था, तब वे मुझे कुछ खाने के लिए देते थे । वे भले नामजप भी कर रहे हों; परंतु तब भी वे नामजप रोककर मुझे मिठाई देते और प्रतिदिन कृतज्ञता व्यक्त करते थे । उनके इस आचरण से मुझे उनमें विद्यमान प्रेमभाव सीखने को मिला ।

१ आ. पू. मेनरायजी द्वारा साधक को उपयोग के लिए उनका कुर्ता दिए जाने पर उनके प्रति बहुत कृतज्ञता प्रतीत होना : कुछ दिन उपरांत पू. काकाजी ने मुझे कक्ष में बुलाया और मुझे एक कुर्ता देकर बोले, ‘‘यह अच्छा सूती कुर्ता है । इसे मैं अभीतक उपयोग करता था । अब तुम इसका उपयोग करोगे न ?’’ उस समय आध्यात्मिक उपाय के कारण मुझे कुर्ता मिलने के कारण उनके प्रति बहुत कृतज्ञता प्रतीत हुई ।

     पू. मेनरायजी जब रामनाथी से देहली जा रहे थे, तब भी उन्होंने मुझे भेंटवस्तुएं दीं । वास्तव में मैं उनकी एक छोटी सी सेवा ही कर रहा था और उसमें भी मुझसे अनेक चूकें हो रही थीं; परंतु तब भी उनमें विद्यमान कृतज्ञभाव एवं प्रेमभाव प्रतीत हुआ ।

२. विनम्रता एवं अन्यों का विचार

     बीमार होने के कारण मूत्रविसर्जन हेतु जाने के लिए पू. मेनरायजी को सहायता की आवश्यकता है’, यह संदेश मिलने पर मैं तुरंत उनके कक्ष में जाता हूं । तब पू. मेनरायजी को यह बहुत बुरा लगता है कि ‘मुझे अपनी सेवा छोडकर तुरंत उनके पास आना पडता है ।’ वे मुझे कहने लगे, ‘‘यह बीमारी ही ऐसी है कि उसके लिए तुरंत सहायता लेनी पडती है ।’’

३. जिन बातों के लिए वे स्वयं कुछ नहीं कर सकते, उसके प्रति ‘उनके मन में खेद है’, ऐसा मुझे लगा ।

४. अनुभूति – पू. मेनरायजी में निहित भावतरंगों के कारण अपने-आप भावजागृति होना

     १४.५.२०२१ को मैं उनके कक्ष में गया था, तब से मेरी अखण्डित भावजागृति हो रही थी । उस समय मेरे मन में भावजागृति होने जैसा कोई विचार भी नहीं था । तब मुझे एक बार परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा बताई गई बात का स्मरण हुआ । उन्होंने कहा था कि ‘पू. मेनरायजी में इतना भाव है कि हमारे पास उनकी भांति भाववाले अन्य कोई भी संत नहीं हैं । अतः ‘पू. काकाजी में निहित भावतरंगों के कारण ही भावजागृति के प्रयास किए बिना भी मेरी भावजागृति हुई ।’, ऐसा मुझे लगा । इससे ‘संतों की छोटी सी सगुण सेवा का भी साधकों को कितना लाभ मिलता है’, यह मुझे सीखने को मिला ।’

– श्री. ओंकार कानडे, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१४.५.२०२१)