नागरिकों की मृत्यु हुए बिना सक्रिय न होनेवाली व्यवस्था !

‘नरबलि’ शब्द को केवल अंधविश्वास के साथ जोडा जाता है तथा ‘अंधविश्वास’ केवल और केवल हिन्दू धर्म में ही होते हैं’, इसी सिद्धांत पर समस्त आधुनिकतावादी, नास्तिक, बुद्धिजीवी तथा विज्ञाननिष्ठों की दुकानें चलती हैं । इसलिए व्यवस्था के द्वारा ली गई नरबलि उन्हें कभी दिखाई नहीं देती, अपितु उन्हें इन नरबलियों को देखना ही नहीं होता; क्योंकि उन्हें इसी व्यवस्था का भाग बनकर रहना होता है । सरकारी समितियों पर नियुक्त होना होता है, मानदेय लेना होता है तथा भत्ते खाने होते हैं ।

दूसरा पक्ष यह कि सर्वसामान्य लोगों की कल्पना में भी ‘व्यवस्था नरबलि लेती है’, यह बात नहीं होती; क्योंकि अंधविश्वास निर्मूलकों के अतिरंजित प्रचार के कारण ‘नरबलि का अर्थ अघोरी प्रथाएं तथा अघोरी प्रथाएं ही धर्म है’, यह उनका मानना होता है । उसके कारण उसके मन में यह प्रश्न उठता है कि व्यवस्था कैसे नरबलि लेती है ?

‘व्यवस्था नरबलि लेती है’, यह सत्य ही है । इस लेख में हम इसी की चर्चा करेंगे । उसका आरंभ वर्ष १९४७-४८ में हुआ । किसी देश का स्वतंत्र होना, वास्तव में कितनी आनंद की बात होती है; परंतु हमारे देश को स्वतंत्रता मिलने के समय ही धर्म के आधार पर उसके २ टुकडे किए गए । उस समय भडके दंगों में लाखों हिन्दुओं को अपने प्राण गंवाने पडे थे । प्रधानमंत्री के नाम पर देश का मालिक बनने की इच्छा रखनेवाला बदमाश विमान से घूमकर हिन्दुओं का नरसंहार देख रहा था । इस प्रकार लाखों हिन्दुओं की मृत्यु होने के उपरांत ही हमें स्वतंत्रता मिली । उसके पश्चात से अब तक के काल में ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं, जिनमें व्यवस्था को उससे पूर्व ही कुछ करना अपेक्षित तथा आवश्यक था; परंतु व्यवस्था ने वह नहीं किया तथा उसके उपरांत कुछ लोगों की मृत्यु होने पर ही अर्थात कुछ नरबलि लेने के उपरांत ही व्यवस्था ने वह काम किया ।

१. मृत्यु हुए बिना व्यवस्था कार्य नहीं करती !

आप सभी के पढने में अथवा सुनने में कभी न कभी यह आया होगा कि किसी स्थान पर कोई मोड अथवा चौक होता है तथा वहां कुछ दुर्घटनाएं होकर लोग मारे जाते हैं । तब स्थानीय लोगों को आंदोलन करना पडता है । उसके उपरांत ही वहां गतिरोधक, जेब्रा क्रॉसिंग, सिग्नल, यह सब उनमें से कुछ किया जाता है तथा उसके पश्चात दुर्घटनाएं रुक जाती हैं । तो व्यवस्था यह सभी उपाय करे, इसलिए जो लोग मारे गए, क्या उन्होंने बलिदान दिया था? नहीं !; क्योंकि वह व्यवस्था के कारण हुई मृत्यु होती है । व्यवस्था मृत्यु हुए बिना कार्य कैसे नहीं करती, इसके हम कुछ प्रातिनिधिक उदाहरण देखेंगे ।

२. २६ नवंबर २००८ के आतंकी आक्रमण में हुईं ३०० से अधिक लोगों की हत्या

मुंबई में ताज होटल पर आतंकवादी हमला: ३०० लोग मारे गए (वर्ष २००८)

यह स्वतंत्र भारत पर किया गया सबसे बडा आतंकी आक्रमण था । उसी समय हमारे पास पाकिस्तान पर सैनिकी आक्रमण कर उसे अच्छा पाठ पढाने का अवसर था; परंतु हमारे तत्कालीन दुर्बल प्रधानमंत्री ने (कांग्रेस के डॉ. मनमोहन सिंह ने’) इस आक्रमण की कडे शब्दों में निंदा करने से अधिक कुछ नहीं किया । देश की स्वतंत्रता के ६० वर्ष उपरांत भी हमारी समुद्री सीमाएं खुली हैं, यह दृश्य विश्व ने देखा । १० आतंकी नावों में बैठकर पाकिस्तान से आए तथा उन्होंने मुंबई को घेर लिया । उन्होंने ३०० से अधिक निर्दाेष नागरिकों को मार डाला, तब भी राज्य के तत्कालीन गृहमंत्री ने कहा, ‘मुंबई जैसे बडे शहर में ऐसी छोटी-मोटी घटनाएं होंगी ही !’ इससे अधिक जनता का और कौनसा उपहास हो सकता है । अंततः माध्यमों से प्रचंड दबाव आने के कारण बाध्य होकर तत्कालीन मुख्यमंत्री तथा गृहमंत्री ने त्यागपत्र दिया; परंतु उसके कुछ ही महिने उपरांत हुए चुनाव के पश्चात यही मुख्यमंत्री तथा गृहमंत्री जनता की छाती पर पुनः बैठ गए ।

इस आक्रमण के कारण व्यवस्था जाग गई, ऐसा नहीं कहा जा सकता; परंतु उससे व्यवस्था की नींद टूट गई, ऐसा कहा जा सकता है । उसके उपरांत मुंबई, कोच्चि, विशाखापट्टनम्, पोर्टब्लेयर, इन स्थानों पर ‘जॉईंट ऑपरेशन सेंटर’ (संयुक्त अभियान) चलाए गए । इसके लिए ‘समुद्र प्रहरी’ के नाम से नया दल गठित किया गया । उसमें १ सहस्र लोगों को भर्ती किया गया । गश्त के लिए उन्हें अतिशीघ्र गति से चलनेवाली नौकाएं दी गईं । समुद्र पर गश्त लगाने के लिए नौकाएं पर्याप्त नहीं हैं; इसलिए हेलिकॉप्टर लिए गए । इन सभी पर सैकडों करोड रुपए खर्च किए गए ।

इस व्यवस्था ने स्वतंत्रता के ६० वर्ष उपरांत ये उपाय किए; परंतु उसके लिए व्यवस्था ने ३०० से अधिक नागरिकों की हत्याएं तो की ही ! इसका अर्थ यह है कि व्यवस्था नागरिकों की हत्या अथवा मृत्यु हुए बिना काम नहीं करती ।

३. सावित्री नदी पर स्थित पुल दुर्घटना में ४० लोगों की मृत्यु 

सावित्री नदी पुल ढहने से ४० लोगों की मौत (वर्ष २०१६)

२ अगस्त २०१६ की देर रात महाड के सावित्री नदी पर स्थित पुल बह गया । उसमें एस.टी. की २ बसें तथा कुछ छोटे वाहन बह गए । इस दुर्घटना में ४० लोगों ने प्राण गंवाए । यह आंकडा सरकारी है ! हमारे यहां दुर्घटना में मृत्यु को प्राप्त लोगों का वास्तविक आंकडा शोध का विषय होता है ।

इस दुर्घटना के उपरांत इसकी जांच के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीश एस.के. शाह के नेतृत्व में एक सदस्यीय समिति का गठन किया गया   । उस समिति का कार्यकाल २ बार बढाया गया । उस समिति की सहायता के लिए सचिव, सहायक, वरिष्ठ विशेषज्ञ सलाहकार, कनिष्ठ विशेषज्ञ सलाहकार इत्यादि उपलब्ध करा दिए गए । वरिष्ठ विशेषज्ञ सलाहकारों को एक बार की उपस्थिति के लिए ८० सहस्र रुपए मानदेय दिया जाता था । इस समिति के कार्य के लिए कुल २४ लाख रुपए खर्च किए गए । अनेक महिनों तथा २४ लाख रुपए खर्च कर इस समिति ने जो ब्योरा दिया, उसमें महाड की इस दुर्घटना के लिए इस पृथ्वीतल के एक भी मनुष्य को उत्तरदायी नहीं ठहराया गया, ऐसा दिखाई देता है । इस समिति ने जिन उपायों की अनुशंसा की, वो उपाय महाड के ‘जिला परिषद’ के विद्यालय के छात्र भी कर सकते थे, ऐसे वो उपाय थे, उदा. पुल पर फलक लगाए जाएं, पुल के पत्थरों को रंग अथवा चूना लगाएं, पुल पर उगे पेडों की नियमित कटाई कीजिए इत्यादि ।

‘मूलतः वह पुल अंग्रेजकालीन था । उसे बंद कर नए पुल का निर्माण होना चाहिए’ यह मांग अनेक वर्षाें से की जा रही थी; परंतु ४० लोगों की मृत्यु होने के उपरांत ही व्यवस्था ने नए पुल का निर्माण किया ।

४. मुंबई के कमला मिल कंपाउंड में लगी आग में १५ लोगों की मृत्यु

२८ दिसंबर २०१७ की रात मुंबई के कमला मिल कंपाउंड में स्थित पब/बार ‘वन अबाव’ में आग लगी । वह आग फैलकर पास के ‘लंदन टैक्सी’ तथा ‘मोजो’ पब तक पहुंची । उसमें १५ लोग झुलसकर मर गए । तब हमेशा की तरह बार के मालिक फरार हो गए । इन बार के प्रबंधकों को बंदी बनाया गया । हमारे यहां यह योजनाबद्ध होता है । ऐसी घटनाओं के उपरांत मालिक फरार होता है तथा जिन लोगों का इसमें कोई संबंध नहीं होता, उन्हें बंदी बनाया जाता है । संबंध ही न होने के कारण जिसे बंदी बनाया जाता है, उसे जमानत मिलती है तथा उसके उपरांत कभी मालिक पकडा जाता है । तथा उससे पूर्व ही पहले के आरोपियों को जमानत न मिलने के कारण उसकी जमानत के लिए ‘ग्राउंड’ (व्यवस्था) पहले से तैयार होता है ।

कमला मिल कंपाउंड में हुई आग की दुर्घटना के उपरांत तत्कालीन महानगरपालिका आयुक्त अजोय मेहता ने एक झटके में ५-६ अधिकारियों को निलंबित किया । कडी जांच की गई तथा जोरदार अभियान चलाए गए । इस प्रकरण में ज्युलियो रिबोरो नामक पूर्व पुलिस आयुक्त ने जनहित याचिका प्रविष्ट की । उस याचिका की सुनवाई के समय सरकारी पक्ष ने बताया कि हम बार एवं पब की सुरक्षा की दृष्टि से नियमावली बना रहे हैं । (इसका अर्थ स्वतंत्रता के ७० वर्ष उपरांत भी इस प्रकार की नियमावली नहीं थी !) उसके उपरांत महानगरपालिका तथा अग्निशमन दल द्वारा की गई पडताल में ८७ बार/पब बंद किए गए तथा सैकडों बार/पब को आर्थिक दंड सुनाया गया । महत्त्वपूर्ण बात यह कि यह सब करने से पहले व्यवस्था ने १५ लोगों की बलि ली ही न !

५. घाटकोपर की होर्डिंग दुर्घटना में १४ मृत

१३ मई २०२४ को मुंबई के घाटकोपर में विज्ञापन का एक होर्डिंग गिर गया । वह कुछ घरों पर गिरा तथा उसके नीचे कुचलकर १४ लोगों की जान गई । व्यवस्था ने तुरंत ही मृतकों के परिजनों तथा घायलों को कुछ लाख रुपए की सहायता देने की औपचारिकता निभाई । हमेशा की तरह उस होर्डिंग को लगाने की अनुमति देनेवाले अधिकारियों पर कार्यवाई की गई । फरार मालिक पकडा गया ।

व्यवस्था की नींद टूट गई तथा उसके उपरांत व्यवस्था ने विज्ञापनों के लिए कठोर नियमावली बनाने का काम हाथ में ले लिया । (इसका अर्थ स्वतंत्रता के ७६ वर्ष उपरांत भी विज्ञापनों के होर्डिंग्ज के लिए आदर्श नियमावली नहीं थी ?)

जो कुछ भी हुआ, तब भी मूल सूत्र क्या है ? तो यह सब करने से पहले १४ लोगों की मृत्यु तो हुईं ही न ? व्यवस्था ने कर्तव्य की भावना से यह नहीं किया । इसका अर्थ है यह व्यवस्था नागरिकों की मृत्यु हुए बिना काम ही नहीं करती ।

६. जनता अपने आस-पास ध्यान देकर, ऐसे प्रकरणों में व्यवस्था से स्पष्टीकरण मांगे !

ऐसी घटनाओं अथवा उदाहरणों की हमारे देश में भरमार है; परंतु इसके आगे सामान्य नागरिकों को अपने आसपास होनेवाली ऐसी घटनाओं पर ध्यान रखना चाहिए तथा उस विषय में व्यवस्था से स्पष्टीकरण मांगना चाहिए; क्योंकि व्यवस्था अपने दायित्व से दूर नहीं भाग सकती । इसके लिए व्यवस्था का उत्तरदायित्व सुनिश्चित होना ही चाहिए ।

– श्री. विक्रम विनय भावे, हिन्दू विधिज्ञ परिषद, मुंबई.