भारत की स्वतंत्रता के पूर्व से संयुक्त बंगाल प्रांत ने सामाजिक सुधार, शिक्षा, धार्मिक, सांस्कृतिक गौरव तथा देशभक्ति के केंद्र के रूप में कार्य किया है । इस प्रदेश का नाम प्रदेश के नागरिकों पर आधारित है, जो बांग्ला भाषा बोलते हैं । यह प्रांत विविधता से समृद्ध, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण है । इसके परिणामस्वरूप मुगलों से लेकर ब्रिटिशों ने तथा विभिन्न राजकर्ताओं ने इस प्रदेश पर राज करने हेतु जिन नीतियों तथा भिन्न-भिन्न राजकर्ताओं ने जो नीतियां अपनाईं तथा हिंसा की, इस प्रदेश ने उसका सामना किया है ।
१. बंगाल का स्वर्णिम काल
इतिहास के अनुसार प्राचीन काल में बंगाल में पुंद्र, सुह्म, वंग, समता एवं हरिकेला, इन राज्यों का समावेश था । इन राज्यों के लोग प्रमुखता से हिन्दू एवं बौद्ध धर्म का पालन करते थे । चौथी शताब्दी में शशांक के कार्यकाल में पहली बार ही बंगाल एकत्र हुआ तथा इस प्रदेश में पहला स्वतंत्र राज्य ‘गौड साम्राज्य’ के रूप में जाना जाने लगा । शशांक ने हिन्दू धर्म का प्रसार किया तथा उसे बांग्ला दिनदर्शिका तैयार करने का श्रेय दिया गया । सोने-चांदी की मुद्राएं, ब्राह्मणों को अनुदान के रूप में भूमि प्रदान करना इत्यादि कार्य करनेवाला शशांक हर्षवर्धन तथा कामरूप के (असम का राज्य) भास्करवर्मन का समकालीन था तथा उसकी राजधानी ‘कर्णसुवर्ण’ में थी अर्थात वर्तमान बंगाल के मुर्शिदाबाद में ! बौद्ध महायान ग्रंथ ‘मंजुश्री-मुलकल्प’ में भी गौड राज्य का उल्लेख मिलता है । ८ वीं शताब्दी में बंगाल शैव एवं बौद्ध पाल साम्राज्य के अंतर्गत एक सशक्त राज्य के रूप में उदित हुआ । पाल कालखंड बंगाल में स्थिरता तथा समृद्धि ले आया, इस अवधि में आद्य बांग्ला भाषा का विकास हुआ, कला एवं वास्तु की उत्कृष्ट कलाकृति तैयार की गई, सोमपुरा महाविहार एवं ओदंतपुरी जैसे भव्य बौद्ध मंदिर तथा मठ (विहार) निर्माण किए गए; साथ ही नालंदा एवं विक्रमशिला जैसे महान विश्वविद्यालयों को संरक्षण दिया गया । पाल साम्राज्य सुविकसित प्रशासनिक, सामाजिक संरचना से सुशोभित तथा तिब्बत साम्राज्य एवं अरब अब्बासिद खलीफा के साथ जुडा था । इसके कारण पाल काल बंगाल के स्वर्णिम कालों में से एक माना जाता है । उसके उपरांत पाल साम्राज्य के उत्तराधिकारी बौद्ध एवं हिन्दू चंद्रवंश, सेना राजवंश तथा देव वंश ने बंगाल पर राज्य कर वहां शांति तथा समृद्धि स्थापित की ।
२. बख्तियार खिलजी के आक्रमणों के कारण बंगाल की शांति संकट में
हिन्दू एवं बौद्ध राज्यों के आधिपत्य में बंगाल ने शांति, समृद्धि तथा विशेषरूप से कृषि, व्यापार, वाणिज्य, साथ ही उच्च शिक्षा के क्षेत्र में विकास किया । सोमापुरा, ओदंतपुरी, विक्रमशिला, बिक्रमपुर विहार, जगद्दल तथा नालंदा जैसे उस काल की शिक्षा संस्थानों के अस्तित्व से उस युग में हुआ विकास ध्यान में आ सकता है । इन शिक्षा संस्थानों में चिकित्साशास्त्र, गणित, खगोलशास्त्र, राजनीति, तर्कशास्त्र, कानून एवं युद्धकला जैसे विषय सिखाए जाते थे । इसके अतिरिक्त बंगाल की गंगा एवं जलंगी नदियों के संगम पर स्थित नदिया नाम से जाना जानेवाला ‘नवद्वीप’ हिन्दू धर्म की शिक्षा एवं सांस्कृतिक अध्ययन का प्रसिद्ध केंद्र था; परंतु १२ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तथा १३ वीं शताब्दी के आरंभ में तुर्क-अफगान इस्लामी आक्रांताओं के आक्रमणों के कारण हिन्दू तथा बौद्ध राजाओं द्वारा स्थापित बंगाल की शांति एवं समृद्धि संकट में पड गई । वर्ष १२०३-१२०४ में बख्तियार खिलजी ने सेन वंश के लोक खान सेन पर आक्रमण कर बंगाल का अधिकतम प्रदेश जीत लिया । इस आक्रमण के उपरांत बंगाल में पहला इस्लामी साम्राज्य स्थापित हुआ । तथा बख्तियार खिलजी ने हसमुद्दीन इवाज को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया ।
३. इस्लामी आक्रांताओं ने हिन्दुओं का धर्मांतरण तथा उनकी हत्याएं करने के साथ हिन्दू विश्वविद्यालय नष्ट कर दिए
तुर्की-अफगान मुसलमान आक्रमण का प्रथम उद्देश्य था संपत्ति लूटना; परंतु बंगाल का सुविकसित, आर्थिक दृष्टि से समृद्ध तथा संपन्न समाज देखकर वे अचंभित रह गए तथा बहुत शीघ्र ही यह बात उनके ध्यान में आई कि इस समाज की मूलभूत रचना में परिवर्तन लाए बिना वे इस प्रदेश पर राज नहीं कर पाएंगे । उसके अंतर्गत उन्होंने बंगाल की मूलभूत रचना नष्ट की, साथ ही इस प्रदेश पर राज करने हेतु बौद्ध तथा हिन्दुओं का इस्लाम में धर्मांतरण करने के साथ ही बौद्ध भिक्षुओं, शिक्षकों तथा विद्वान लोगों की सामूहिक हत्याएं करना, साथ ही बौद्ध एवं हिन्दू प्रार्थनास्थल, ज्ञान के केंद्र तथा शिक्षा संस्थानों को नष्ट करना आरंभ कर दिया । यह एक ऐसा काल था जो हिन्दू एवं बौद्ध संस्कृति, अनुष्ठानों एवं मान्यताओं पर आधारित था । आक्रांता बख्तियार खिलजी तथा उसके उत्तराधिकारियों ने ओदंतपुरी, विक्रमशिला, बिक्रमपुर विहार, नवद्वीप, जगद्दल तथा नालंदा नष्ट कर लाखों हस्तलिखित, साथ ही ज्ञान के अनेक स्रोतों को अग्नि को सुपुर्द कर दिया । इतिहासकारों के अनुसार केवल नालंदा में ३ माह तक ९० लाख से अधिक पांडुलिपियां जला दी गईं । उस काल के विदेशी आक्रांता इस्लामी विचारधारावाले थे । इसके परिणामस्वरूप अरबी इस्लामी संस्कृति ने पारंपरिक हिन्दू एवं बौद्ध सांस्कृतिक विधियां तथा श्रद्धा नष्ट करने का प्रयास किया ।
४. बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी का पदार्पण, प्लासी की लडाई तथा वर्ष १८५७ का विद्रोह
उसके उपरांत वर्ष १६३३ में ईस्ट इंडिया कंपनी ने हरिहरपुर में पहला कारखाना बनाकर बंगाल में प्रवेश किया । सम्राट शाहजहां ने ‘फार्महैंड’ (अनुमति) पारित की, जिसके कारण उन्हें वार्षिक एक किश्त धनराशि के बदले में बिना किसी सीमा-शुल्क से व्यापार तथा वाणिज्यिक कार्य करने के लिए सक्षम बनाया । ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए यह एक ‘टर्निंग पॉईंट’ था, जिसके द्वारा कंपनी ने बंगाल में अपना वर्चस्व स्थापित करना आरंभ किया । उसके उपरांत उसी वर्ष हुगली में एक और कारखाना आरंभ किया गया तथा वर्ष १६५८ में कासिम बाजार तथा वर्ष १६६८ में ढाका में कुछ अन्य कारखाने आरंभ हुए ।
आरंभ में कंपनी ने व्यवसाय के लिए अनुमति दी; परंतु धीरे-धीरे उन्होंने बंगाल पर राजनीतिक तथा प्रशासनिक नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया । आरंभिक चरण में उनका कार्य कारखानों का निर्माण करना, भूमि से संबंधित अधिकारों तथा कृषि के विषय में था; परंतु कालांतर में उसका रूपांतरण बंगाल के प्रशासनिक नियमों में हो रहा था, जिसे बंगाल के नवाब ने थोपा था । अंततः वर्ष १७५७ में बंगाल के नवाब की अनुमति के बिना कंपनी ने कोलकाता पर किलाबंदी की, जिससे प्लासी का युद्ध आरंभ हुआ । इस युद्ध में, रॉबर्ट क्लाईव के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने सिराज-उद-दौला (बंगाल के नवाब की अपेक्षा) के विरुद्ध लडाई लडी एवं बांग्ला सेना के विश्वासघाती सेनापति मीर जाफर की सहायता से सिराज-उद-दौला को पराजित किया । बंगाल के नवाब की पराजय के उपरांत मीर जाफर सिराज उद-दौला के स्थान पर राजा के शाही पद पर आसीन हुआ तथा उसने ब्रिटिशों के लिए अनुकूल प्रशासनिक नीतियां अपनानी आरंभ कर दीं ।
वर्ष १७५७ में प्लासी के युद्ध में विजय प्राप्त करने से कंपनी का मनोबल बढा तथा उसने संपूर्ण बंगाल पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया । इसके परिणामस्वरूप बंगाल पर वर्चस्व स्थापित करने के तथा वहां की संपत्ति लूटने के उद्देश्य से उन्होंने करवसूली एवं राजस्व व्यवस्था; हिन्दू, बौद्ध एवं मुसलमानों के धार्मिक अनुष्ठान तथा आस्थाओं के लिए विभिन्न नियम बनाकर अन्य नियमों में अमानवीय सुधार थोपना आरंभ किया । उसके कारण इस प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में विरोध प्रदर्शन तथा आंदोलन आयोजित किए गए, जिनमें विभिन्न वर्गाें, धर्माें तथा विभिन्न क्षेत्र में कार्य करनेवाले लोग सम्मिलित हुए । इसी के परिणामस्वरूप वर्ष १८५७ में हिन्दू तथा मुस्लिम की धार्मिक आस्थाओं का अनादर करने के उद्देश्य से यह कंपनी गाय तथा वराह की चर्बी से बने कारतूस बाजार में ले आई, तब यह विद्रोह हुआ । इस विद्रोह को ‘भारत की स्वतंत्रता का पहला आंदोलन’ माना जाता है । इसके कारण ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साम्राज्य का अंत हुआ तथा बंगाल के प्रशासन पर ब्रिटेन की रानी का सीधा नियंत्रण स्थापित हुआ । वर्ष १८५७ के विद्रोह से सामान्य लोगों का मनोबल बढा, उसके उपरांत सामान्य लोगों से स्वतंत्रता आंदोलनों को और अधिक सार्वजनिक रूप से समर्थन प्राप्त हुआ तथा उसके उपरांत आंदोलन की यह आग देश के विभिन्न क्षेत्रों में फैलने लगी ।
५. ब्रिटिश साम्राज्य को टिकाए रखने हेतु अंग्रेजों द्वारा विभाजन का बीजारोपण करना
उस काल में बंगाल उन आंदोलनों के ‘तंत्रित केंद्र’ के रूप में काम करता था तथा बिपिन चंद्र पाल, बाघा जतिन, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, खुदीराम बोस तथा स्वामी विवेकानंद जैसे नेता उन आंदोलनों का नेतृत्व करने के लिए उभरकर आए । इस परिस्थिति में ब्रिटिश प्रशासन के ध्यान में आया कि बंगाल में जिस प्रकार से स्वतंत्रता आंदोलन विकसित हो रहे हैं, वो शीघ्र ही अनियंत्रित हो जाएंगे तथा उसके कारण उन्होंने (अंग्रेजों ने) यदि बंगाल पर नियंत्रण खो दिया, तो पूरे देश में स्वतंत्रता संग्राम को और बल मिलेगा, साथ ही ब्रिटिश कार्यकाल में भारतीय उपमहाद्वीप शीघ्र ही संकट में आ जाएगा । इस चिंता के चलते उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलनों को दुर्बल बनाने हेतु तथा अपने ब्रिटिश साम्राज्य को टिकाए रखने हेतु धर्म के आधार से बंगाल में ‘फूट डालो और राज करो’ (डिवाइड एंड रूल) की नीति अपनानी आरंभ कर दी ।
‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के अनुसार ब्रिटिशों ने इस क्षेत्र के मुसलमानों का तुष्टीकरण आरंभ कर उन्हें हिन्दुओं से अलग करने के लिए अतिरिक्त विशेषाधिकार प्रदान कर उनके प्रति सहानुभूति दिखाने का नाटक किया । इसमें भारत के तत्कालीन वॉयसराय लॉर्ड कर्जन ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा वर्ष १९०५ में धर्म के आधार पर बंगाल को दो भागों में बांट दिया । उस विभाजन के अनुसार प. बंगाल हिन्दुओं के लिए तथा पूर्व बंगाल मुसलमानों के लिए था । यह विभाजन भारत के अंतिम विभाजन का बीजारोपण करनेवाला था । हिन्दुओं ने भले ही इसका विरोध किया हो, तब भी मुसलमान इस विभाजन के पक्ष में थे; क्योंकि मुसलमानों को उनका अपना प्रांत मिला था । इसके कारण बंगाल में बडी मात्रा में हिंसा फैल गई ।
इस विभाजन के एक वर्ष उपरांत मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा करने हेतु (वर्तमान में बांग्लादेश की राजधानी में) वर्ष १९०६ में ‘मुस्लिम लीग’ की स्थापना हुई, जिसे ब्रिटिशों ने जानबूझकर प्रोत्साहन दिया । यह वह समय था जब पूर्व बंगाल में हिन्दुओं को अपनी मूल भूमि छोडकर भागने के लिए बाध्य होना पडा । उसके उपरांत वर्ष १९०९ में मोर्ले-मिंटो सुधार आरंभ किए गए, जिसमें स्वतंत्र रूप से मतदाताओं का प्रावधान किया गया, जिसके कारण हिन्दू तथा मुसलमान में पुनः दूरी बनकर सांप्रदायिक विसंगति को गति मिली । दूसरी ओर बंगाल के बहुसंख्यक हिन्दुओं द्वारा बंगाल के विभाजन का प्रस्ताव पारित किए जाने के उपरांत आरंभ हुए स्वदेशी आंदोलन को जनसमर्थन मिलने लगा । इस आंदोलन में ब्रिटिशों को तीव्र प्रतिकार का सामना करना पडा तथा जब यह आंदोलन शीर्ष तक पहुंचा, उस समय वर्ष १९११ में लॉर्ड हार्डिंग ने आधिकारिक रूप से बंगाल का विभाजन रद्द कर दिया । हिन्दू समाजसहित मुसलमान समुदाय का एक छोटा सा भाग विभाजन रद्द करने के समर्थन में खडा था तथा मुसलमानों की बडी जनसंख्या इसके विरुद्ध थी । इससे पूरे पूर्व बंगाल में पुनः सामूहिक हिंसा फैली तथा उससे हिन्दू अल्पसंख्यकों को उनकी मूल भूमि छोडने पर बाध्य किया गया ।
६. भारत की स्वतंत्रता, विभाजन, पूर्व और पश्चिम बंगाल के बीच हिंसा
लंबे संघर्ष और बलिदान के उपरांत वर्ष १९४७ में भारत को अंग्रेजों से आजादी मिली । उस समय जब पूरा देश स्वतंत्रता का जश्न मना रहा था, बंगाल की जनता बहुत संकट में थी; क्योंकि स्वतंत्रता के समय १९०५ के विभाजन की तरह बंगाल को फिर से धर्म के आधार पर दो भागों में बांट दिया गया और ‘रेडक्लिफ लाइन’ ने इस विभाजन को एक लौह मोड दे दिया ।
(सर सिरिल रैडक्लिफ द्वारा खींची गई भारत और पाकिस्तान के बीच की सीमा ‘रेडक्लिफ लाइन’ कहलाती है !) इसके साथ ही असम, सिलहट, हिन्दू बहुल चटगांव और त्रिपुरा की समतल भूमि के कुछ हिस्से पूर्वी पाकिस्तान को दे दिए गए । परिणामस्वरूप बडे पैमाने पर नरसंहार फिर से आरंभ हो गया और लोगों को अपनी जन्मभूमि छोडने के लिए विवश होना पडा । यह सबसे अंधकारमय काल था ।
जब बंगाल में बहुत से लोगों ने अपनी संपत्ति और जीवन खो दिया, तो उन्हें बहुत कम समय के भीतर अपने घर छोडने के लिए भी मजबूर होना पडा । एक अनुमान के अनुसार, १९४७ में विभाजन के समय, पश्चिम बंगाल की जनसंख्या २१.२ मिलियन थी, जिनमें से ५.३ मिलियन या लगभग २५ प्रतिशत मुस्लिम थे, और पूर्वी बंगाल की जनसंख्या ३९.१ मिलियन थी, जिसमें से १०.९४ मिलियन या लगभग २८ प्रतिशत हिंदू अल्पसंख्यक थे । इस विभाजन ने लगभग २.२ मिलियन बंगाली हिंदुओं को पाकिस्तान के पूर्वी बंगाल को छोडकर भारत आने के लिए मजबूर किया, और १.९ मिलियन बंगाली मुसलमानों ने भारत को पाकिस्तान के पूर्वी बंगाल के लिए छोड दिया। हालांकि, १९४७ में गए अधिकांश मुस्लिम १९५० में लियाकत-नेहरू समझौते पर हस्ताक्षर होने से पहले भारत लौट आए ।
१९४७ में बंगाल के विभाजन के बाद एक नए चरण की शुरुआत हुई, जिससे पूर्वी पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों का उत्पीडन और वहां के कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों के मार्गदर्शन में गैर-मुसलमानों का विनाश फिर से शुरू हो गया।
७. बांग्लादेश का निर्माण
वर्ष १९४७ के उपरांत पूर्वी पाकिस्तान के इतिहास का एक और सबसे विनाशकारी दौर शुरू हुआ । पश्चिमी पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तानी नेतृत्व को राजनीतिक अधिकार सौंपने से इनकार कर दिया और परिणामस्वरूप पूर्वी पाकिस्तान के आम लोगों पर एक भयानक हमला शुरू कर दिया । सबसे पहले गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर ध्यान केंद्रित किया । परिणामस्वरूप, पश्चिमी पाकिस्तान के इस क्रूर, अमानवीय कृत्य के विरोध में पूर्वी पाकिस्तान की आम जनता एकजुट हो गई और पूरे पूर्व में स्वतंत्रता आंदोलन उठ खडा हुआ । पूर्वी पाकिस्तान के गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों ने भी इस संघर्ष में भाग लिया और निःस्वार्थ बलिदान दिया । अंततः वर्ष १९७१ में भारत के बिना शर्त सैन्य और राजनीतिक समर्थन के साथ ‘बांग्लादेश’ नामक एक नए देश के निर्माण के साथ पूर्वी पाकिस्तान का स्वतंत्रता आंदोलन समाप्त हो गया । इस बदलाव ने बांग्लादेश के गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को शांति, एकता और सुरक्षा में रहने की आशा दी । प्रारंभिक चरण में शांति और सद्भाव कायम रहा; परंतु समय के साथ इसमें भी बदलाव आने लगा । अंततः यह स्पष्ट हो गया कि बांग्लादेश की गैर-मुस्लिम आबादी किसी भी आंतरिक राजनीतिक
और प्रशासनिक अस्थिरता के प्रति गंभीर रूप से असुरक्षित थी ।
८. बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर लगातार आक्रमण
विभाजन और पृथक्करण तथा एक नए राष्ट्र के निर्माण का विचार, जिसे पहले ‘पूर्वी पाकिस्तान’ के नाम से जाना जाता था और अब ‘बांग्लादेश’ के नाम से जाना जाता है, धर्म पर आधारित था । इस सन्दर्भ में इस्लामी विचारधारा ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और इसे एक ‘इस्लामी देश’ बना दिया । इसकी वजह से बांग्लादेश में गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों की जान-माल को सदैव बडा खतरा रहता है । इस संबंध में, राजनीतिक और प्रशासनिक संरचना समय-समय पर बदलती रही; परंतु गैर-मुसलमानों के उत्पीडन में कोई परिवर्तन नहीं आया । इसके विपरीत, जब कट्टरपंथी इस्लामी शक्तियों के समूहों ने प्रशासनिक शक्ति प्राप्त की, तो उन्होंने भूमि से गैर-मुस्लिम विचारधाराओं को मिटाने के लिए और अधिक प्रयास किए ।
बांग्लादेश के संविधान ने उन्हें अपने धर्म में रहने और उसका पालन करने का अधिकार दिया होगा; परंतु यह प्रत्यक्ष स्तर पर काम नहीं कर सका और गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के अधिकारों को बचाने में असमर्थ रहा । इसके कारण ऐसी हिंसा और उत्पीडन के विरुद्ध प्रतिरोध उत्पन्न करने के लिए कई विरोध प्रदर्शन हुए; परंतु इसे बल और बंदूक से दबा दिया गया । हाल ही में, बांग्लादेश में गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक जनसंख्या के विरुद्ध उत्पीडन और हिंसा की पुरानी घटना अगस्त २०२४ के बडे पैमाने पर विरोध प्रदर्शन और बलात् राज्य परिवर्तन (तख्तापलट) के उपरांत पुनः सामने आई । सरकारी नौकरियों में कोटा के विरुद्ध छात्रों द्वारा विरोध प्रदर्शन आरंभ किया गया, जो तेजी से बढा । यह बांग्लादेश के लिए एक बडा संकट बन गया और अंततः तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना को देश छोडने के लिए विवश होना पडा ।
बलात् राज्य परिवर्तन के तुरंत उपरांत पूरे देश में अल्पसंख्यकों पर कई आक्रमण हुए । अल्पसंख्यक और छात्रों के नेतृत्ववाले विरोध प्रदर्शनों ने एक असंबंधित परिदृश्य में गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के पूजास्थलों, घरों, संपत्ति और जीवन को नष्ट कर दिया । इन आक्रमणों ने बांग्लादेश में गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के विरुद्ध उत्पीडन और हिंसा की ऐतिहासिक विरासत का स्मरण कराया । इसलिए, इस अत्याचार और हिंसा को वैश्विक समुदाय के सामने उजागर करना और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों का समर्थन करना समय की मांग है ।
– श्री. प्रसेनजीत देबनाथ, शोध सहायक, रक्षा और सामरिक विज्ञान, उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जळगांव, महाराष्ट्र
(सौजन्य: दैनिक ‘जळगांव तरुण भारत’, दिवाली विशेषांक 2024)
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