कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को ‘नरक चतुर्दशी’ कहते हैं । नरकासुर नामक अधम तथा क्रूर राक्षस के अंतःपुर में १६ सहस्र स्त्रियां बंदीवास में थीं । पृथ्वीलोक के सभी राजा उसके अत्याचार से त्रस्त थे । तब श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध करने का निश्चय किया । उसके शिरच्छेद का दायित्व सत्यभामा ने लिया । घनघोर युद्ध में सत्यभामा ने नरकासुर का वध कर दिया । बंदीवास की १६ सहस्र स्त्रियां मुक्त हो गईं । उस दिन घर-घर में दीपोत्सव एवं रंगोलियां बनाकर, आनंदोत्सव मनाया गया । उस दिन से लेकर नरक चतुर्दशी तक दीपोत्सव की प्रथा आरंभ हो गई ।
भगवान श्रीकृष्ण तथा सत्यभामा ने नरकासुर का संहार किया । नरकासुर ने मृत्यु के समय श्रीकृष्ण से वर मांगा, ‘आज की तिथि पर सूर्याेदय से पूर्व जो मंगलस्नान करेगा, उसे नरक की पीडा न हो । मेरा यह मृत्युदिवस सर्वत्र दीप जलाकर मनाया जाए ।’ कृष्ण ने ‘तथास्तु’ कहा । इसलिए कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को ‘नरक चतुर्दशी’ के नाम से भी जाना जाता है ।
इस दिन लोग सवेरे उठते हैं । दीप जलाते हैं । तेल, उबटन लगाकर स्नान करते हैं । कोकण में स्नान के पश्चात तुलसी के सामने किरीट (एक प्रकार का कडवा फल) पैरों से कुचलते हैं । यह कडवा किरीट नरकासुर का प्रतीक होता है । पैरों से किरीट कुचलते समय ‘गोविंदा, गोविंदा’, इस प्रकार नामघोष करते हैं । किरीट के रस का मस्तक पर तिलक लगाते हैं । इस दिन विविध प्रकार के पोहे बनते हैं - जैसे नमकीन, मीठे, तले हुए, दडपे (पोहे का एक प्रकार जिसे दडपे पोहे कहते हैं ।), दही पोहे इत्यादि । एक-दूसरे को आग्रहपूर्वक घर बुलाकर पोहे और दिवाली में बनाईं मिठाईंयां इत्यादि खिलाते हैं । घर-घर मिठाईयां बांटी जाती हैं ।
– प्रा. रवींद्र धामापूरकर, मालवण, जिला सिंधुदुर्ग. (साभार : ‘आदिमाता’, दीपावली विशेषांक २०११)