१. देश पराधीन होने से लेकर अनुसूचित जातियों एवं पिछडों को आरक्षण
‘भारत जब पराधीन था, उस समय लगभग वर्ष १९३३ से अनुसूचित तथा पिछडी जातियों को, जबकि वर्ष १९५० के उपरांत विमुक्त जातियों तथा घूमंतू जनजातियों जैसे प्रवर्गाें को आरक्षण का लाभ मिल रहा है । वर्ष १९५० के उपरांत अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण को ‘संवैधानिक आरक्षण’ कहा जाता है । इसे सुनिश्चित करने का अधिकार संसद का है तथा उसे घोषित करने का अधिकार राष्ट्रपति का है । यह अधिकार उन्हें अनुच्छेद ३४१ एवं ३४२ के द्वारा प्राप्त है । अनुसूचित जाति को १५ प्रतिशत आरक्षण है । अनुसूचित जाति में कुल ५९ घटक वर्ग अथवा जातियां हैं तथा अनुसूचित जनजातियों में ४७ जनजातियां हैं ।
२. अनुसूचित जाति-जनजातियों के कुछ वर्ग अभी भी आरक्षण से वंचित हैं
विगत ८० से ९० वर्षाें से अनुसूचित जाति-जनजातियों में से केवल २-४ वर्ग ही इस आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं, ऐसा आरोप लगाया जाता है । यही स्थिति विमुक्त जातियों, घूमंतू जनजातियों तथा अन्य पिछडी जातियों की भी है । केवल १ प्रतिशतवाले वर्ग को १३ प्रतिशत आरक्षण मिलता है, उनकी ओर से ऐसा तर्क किया जाता है । यह स्थिति विभिन्न राज्यों में है । उसके कारण आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, तेलंगाना, कर्नाटक एवं पंजाब, इन राज्यों की सरकारों ने संवैधानिक आरक्षण के विषय में कुछ कानून बनाए । अर्थात उन कानूनों को चुनौती दी गई । राज्यों अथवा उच्च न्यायालयों के अनुसार न्यायालय के निर्णय भिन्न-भिन्न आए । कुछ न्यायालयों ने ‘राजू रामचंद्र आयोग’ अथवा ‘न्यायाधीश गोरला रोहिणी आयोग’ का गठन कर यह देखने का प्रयास किया कि वास्तव में आरक्षण का लाभ कौन उठाता है ।
कुछ राज्यों में अनुसूचित जाति में ही झगडे हैं, उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में जाटव एवं वाल्मीकि समुदाय में, जबकि तेलंगाना में माला एवं मडिगा के मध्य विवाद है । मडिगा समुदाय कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना तथा तमिलनाडु में अल्प स्तर पर फैला हुआ है । उसी को ‘चर्मकार समाज’ भी कहा जाता है । मडिगा समाज में कुछ उपजातियां भी हैं । उनका आरोप है कि उन्हें आरक्षण नहीं मिलने दिया जाता । इसके संदर्भ में उन्होंने अनेक बार उच्च न्यायालय के द्वार खटखटाए हैं । उसके लिए उनके नेता मंदकृष्ण माडिगा पिछले कुछ दशकों से संघर्ष कर रहे हैं । उनके अनुसार अनुसूचित जातियों-जनजातियों में जातिनिहाय उपवर्गीकरण किया जाए, जिससे आरक्षण की नीति को अधिक तर्कसंगत बनाया जा सके । उसके कारण संविधान निर्माताओं को अपेक्षित सामाजिक न्याय केवल अनुसूचित जातियों-जनजातियों में से किसी एक घटक को न मिलकर सभी घटकों को मिलेगा ।
संवैधानिक आरक्षण में वर्गीकरण करने से संबंधित न्यायालयों के कुछ निर्णयपत्रआंध्र प्रदेश राज्य ने वर्ष १९९९ में ‘आरक्षण का तर्कशुद्धीकरण’ (रैशनलाइजेशन ऑफ रिजर्वेशन) करने का अध्यादेश जारी किया था, जिसे आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय में असफल चुनौती दी गई । उसके उपरांत हरियाणा सरकार ने भी अनुसूचित जातियों में ‘अ’ एवं ‘ब’, इस प्रकार से वर्गीकरण किया था । वह प्रकरण भी न्यायालय पहुंचा । ‘जर्नल सिंह विरुद्ध लक्ष्मीनारायण गुप्ता’ अभियोग में ‘क्रीमिलेयर’ (उच्च आय समूह) की संकल्पना आई । अनेक उच्च न्यायालयों के निर्णयपत्र ‘राज्य सरकारों को संवैधानिक आरक्षण में वर्गीकरण करने का अधिकार नहीं है’, इस आधार पर आई; क्योंकि संविधान के अनुच्छेद ३४०, ३४१ तथा ३४२ को देखते हुए राज्य सरकारों को इसका अधिकार नहीं है, यह निश्चित है ! |
३. संवैधानिक आरक्षण के प्रति समाज के घटकों में जागृति लाना आवश्यक !
विगत लगभग ७०-८० वर्षोें में उत्पन्न स्थिति देखी जाए, तो अनुसूचित जातियों-जनजातियों में स्थित विशिष्ट जाति अथवा जनजाति नौकरी, शिक्षा तथा राजनीति में बडे स्तर पर आरक्षण का लाभ उठाती हुई दिखाई देती है । इस विषय में उनके समुदाय में बडे स्तर पर जागृति की गई, साथ ही शिक्षा, नौकरी तथा राजनीति में स्थित आरक्षण का अधिक स्तर पर लाभ मिलने हेतु उन्होंने परिश्रम भी उठाए हैं ।
४. राज्य सरकार को जातियों तथा जनजातियोंनिहाय उपवर्गीकरण का अधिकार
भारत को स्वतंत्रता मिले ७६ वर्ष हो गए, तब भी अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछडी अथवा घूमंतू जनजातियों तथा विमुक्त जनजातियों के कुछ वर्ग आज भी शिक्षा, नौकरी तथा राजनीति में आरक्षण का लाभ नहीं उठा पाए हैं । आरक्षण का लाभ दिलाने हेतु सरकारी स्तर पर विशेष नीति अपनाई जाती है । उसमें परिवर्तन हो, विभिन्न वर्गाें की यह इच्छा थी । इस संदर्भ में पहले ३ न्यायाधीश, ५ न्यायाधीश तथा अब ७ न्यायाधीशों के खंडपीठों के निर्णय आए । उसमें इन अनुसूचित जातियों को मिलनेवाला आरक्षण उनकी सभी जातियों तक पहुंचे; इसके लिए न्यायालय ने राज्य सरकार को जातिनिहाय वर्गीकरण करने का अधिकार प्रदान किया ।
५. न्यायालय के निर्णय पर मिलीजुली प्रतिक्रियाएं
कुछ वर्गाें ने इस निर्णय का विरोध किया । बिहार के ‘लोकजनशक्ति दल’ के सांसद चिराग पासवान ने अप्रसन्नता व्यक्त की तथा इस विषय में शीघ्र ही ‘पुनर्विचार’ आवेदन प्रविष्ट करने को कहा । उनकी भांति बहुजन समाज दल की मायावती तथा कांग्रेस के अध्यक्ष खरगे ने इस विषय में ‘संसद का विशेष अधिवेशन बुलाकर संविधान में संशोधन करने की’ मांग की । इस निर्णय पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हुए ‘दलित इंडियन चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री’ के मिलिंद कांबळे ने कहा, ‘आरक्षण का लाभ मिलने हेतु सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को समझना आवश्यक था । अब अनुसूचित जाति में वर्गीकरण करने का अधिकार सरकार को दिया गया । उसके कारण अनुसूचित जाति के उपेक्षित वर्गाें को इसका लाभ मिलेगा । अनुसूचित जाति के विशिष्ट वर्गाें में जो खाई (दरार) है, उसकी भरपाई होगी ।’
६. संवैधानिक आरक्षण में वर्गीकरण करने के संदर्भ में संविधान पीठ के ७ में से ६ न्यायाधीशों का समर्थन
७ न्यायाधीशों के इस संविधान पीठ में केवल न्यायाधीश बेला त्रिवेदी ने ही भिन्न मत रखा । उनके अनुसार अनुसूचित जाति एकभुक्त समाज है; इसलिए उसमें वर्गीकरण नहीं किया जा सकेगा । (‘शेड्यूल कास्ट’ अर्थात अनुसूचित जाति एक स्वतंत्र समुदाय है ।) तब अन्य ६ न्यायाधीशों ने सर्वसम्मति से घोषित किया कि राज्य सरकारें अनुसूचित जातियों में स्थित जातिनिहाय उपवर्गीकरण कर सकती हैं । इस बार न्यायाधीश भूषण गवई ने ‘अनुसूचित जाति में आरक्षण देते समय ‘क्रीमिलेयर’ सिद्धांत का समावेश करने’ का मत व्यक्त किया । इसका अर्थ यह कि ‘जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी है, वे भले ही अनुसूचित जाति के सदस्य हों, तब भी वे आरक्षण न लें’, माननीय न्यायाधीश भूषण गवई ने ऐसा प्रतिपादित किया । इस निर्णय में न्यायाधीश पंकज मित्तल उससे भी एक कदम आगे जाकर कहते हैं, ‘एक पीढी को यदि आरक्षण मिला हो तथा उस पीढी का पर्याप्त विकास हुआ हो, तो उनकी अगली पीढी को आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए । उनकी अगली पीढी सक्षम हो, तो उन्हें सर्वसामान्य लोगों जैसा माना जाए ।
७. सर्वाेच्च न्यायालय के निर्णय का उचित क्रियान्वयन करना आवश्यक !
वर्तमान समय में अनुसूचित जाति अथवा अन्य पिछडी जातियों के कुछ विशिष्ट वर्गाें को ही आरक्षण का लाभ मिल रहा है । उसके कारण आरक्षण देने का उद्देश्य सफल नहीं होता । अन्य पिछडे वर्गाें के लिए सर्वोच्च न्यायालय का इंद्र सहानी निर्णयपत्र वर्गीकरण की अनुमति देता है; परंतु अब वह मापदंड संवैधानिक आरक्षण में भी पहुंच गया है, ऐसा कहना पडेगा । शासनकर्ताओं सहित प्रशासन के अधिकारियों द्वारा इस निर्णय को उचित पद्धति से क्रियान्वित करना आवश्यक है ।’ (५.८.२०२४)
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ।
– (पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णी, मुंबई उच्च न्यायालय