‘डॉक्टर मेरे पास ‘शेल्फ’ पर (सामान रखने की तख्ती पर) पेट साफ करनेवाली विभिन्न औषधियों की डिब्बियां हैं; परंतु उनमें से किसी औषधि से पेट साफ होकर मुझे हल्का नहीं लगता !’ कुछ मात्रा में यह वाक्य सभी पर लागू होता होगा, यह इतना सामान्य बन गया है । वर्षाें से हल्कापन प्रतीत न होने से सवेरे आलस, नींद, पेट में भारीपन, काम एवं व्यायाम का उत्साह न होना तथा उससे उत्पन्न होनेवाली विभिन्न बीमारियां, (जो एक-दूसरे से संबंधित हैं, यह हमें ज्ञात नहीं होता ।) यह बहुत सामान्य हो चुका है । चिकित्सकीय व्यवसाय करते समय ध्यान में आए कुछ सूत्र यहां दे रही हूं ।
१. पेट साफ न होने में खडिया होना, चिकनापन होना, प्रतिदिन मल का आवेग न आना; वेग आया, तब भी पेट पूर्णतया साफ न होने से शौच के लिए २-३ बार जाना, जैसे विभिन्न प्रकरण देखने को मिलते हैं । इन सब पर केवल एक ही तथा रात में पेट साफ होने की औषधियां लेने पर भी उनका पूर्ण परिणाम दिखाई नहीं देता ।
२. चिकना असंतोषजनक शौच तथा भारीपन हो, तब खाने में पथ्य का पालन तथा व्यायाम आवश्यक है ! आयुर्वेद में ‘पाचन’ नामक संकल्पना का उपयोग कर पाचक औषधियों के उपयोग की भी आवश्यकता है ।
३. गाडी से लंबी यात्रा अथवा निरंतर बैठकर काम करते समय मल का खडिया तथा पित्त होते हुए भी बवासीर/फिशर होने की संभावना होती है । ऐसे लोग जब केवल त्रिफला/सोनामुखी जैसे पेट साफ होने की औषधियां निरंतर लेते हैं, तब अंतडियों का ‘टोन’ (लचीलापन) बिगडता है तथा उससे सूखापन बढकर ‘फिशर’ होने की संभावना अधिक होती है । ऐसे समय में चिकित्सकीय सुझाव से २-३ प्रकार की औषधियां तथा घी को एकत्रित लेने की आवश्यकता होती है । इसीलिए ऐसे समय में ‘ओवर द काउंटर’ (वैद्यों के सुझाव के बिना अथवा उनकी अनुशंसा के बिना औषधियों की दुकान से ली जानेवाली) औषधियां काम नहीं करती ।
४. अतिरिक्त सलाद तथा सूखे पदार्थ खाना टालें, साथ ही सभी स्थितियों में योगासन एवं व्यायाम अति आवश्यक हैं ! वह जितना हमारी क्षमता के अनुरूप होगा तथा जितना सहन होगा, उस प्रकार से उसे बढाते रहें ।
५. कमोड का उपयोग टालना तथा भारतीय पद्धति के शौचालय (स्क्वेटिंग स्टूल) का उपयोग करना, जिसके कारण अंतडियों का गुदा की सीधी रेखा में आकर मल अच्छे ढंग से बाहर निकलने में सहायता मिलती है ।
६. गाडी से लंबी यात्रा करनी हो, तो आहार में घी का उचित उपयोग करें । यदि शौच में खडिया होता हो, तो अपने डॉक्टर से स्नेहपान/बस्ती के विषय में बात करें ।
जठराग्नि सुचारू रूप से बने रहने की आवश्यकता !
आयुर्वेद में बताया गया है कि पेट ठीक हो, तो जठराग्नि सुचारू रहने की संभावना अनेक गुना बढ जाती है । अग्नि के बिगडने के अनेक कारण हैं । ‘अग्नि ठीक होने पर स्वस्थ जीवन मिलता है तथा वह ठीक न हो, तो सभी बीमारियों की संभावना होती है ।’
‘गट माइक्रोबायोम’ अथवा ‘अंतडियों में स्थित सूक्ष्म जीवाणुओं’ के मध्य संतुलन की ओर अब अनेक शोधकर्ताओं का ध्यान आकर्षित हुआ है । ‘प्रत्येक बडे अंग का स्वास्थ्य पेट के स्वास्थ्य पर निर्भर होता है’, शोध से यह बात जैसे-जैसे सामने आने लगी, वैसे-वैसे आयुर्वेद में तो किसी भी बीमारी पर केवल पेट पर काम करनेवाली औषधियां दी जाती हैं (जिसमें संपूर्ण तथ्य नहीं है); साथ ही वात, पित्त एवं कफ को छोडकर अन्य क्या है ?’ जैसी बातें अब बहुत अल्प होने लगी हैं; क्योंकि जिन्होंने आयुर्वेद का अध्ययन नहीं किया है, वैसे अनेक लोगों के सामने उसकी प्रासंगिकता भिन्न पद्धति से सामने आने लगी है ।
वर्तमान समय में शरीर में, विशेषकर शहर में दाह बढकर आनेवाले परिवर्तन, जिनमें विभिन्न प्रकार के कैंसर, ‘इरिटेबल बॉवेल सिंड्रोम’ जैसे (आई.बी.एस. – पेट की एक बीमारी), बार-बार आनेवाला बुखार, आमवात, ‘ऑटो इम्यून’ (स्वयं की ही रोगप्रतिरोधक शक्ति के द्वारा शरीर पर आक्रमण होने से उत्पन्न बीमारी) का बढ रहा लक्षण निश्चित रूप से चिंता का विषय है । इसपर रोग के अनुसार तुरंत काम करनेवाली औषधियां कौन सी, कितनी, कब तथा कितने समय तक देनी हैं ?, इन सभी में भी अग्नि का विचार होता ही है । पेट का संतुलन बिगड जाने पर आगे के सभी चयापचय पर उसका परिणाम होता है । सुनने में यह सब बहुत ‘क्लिष्ट’ (जटिल) लगे, तब भी यह वही बात है, जिस पर न्यूनतम शहरों में रहनेवाले सभी लोगों को निश्चित ही ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है !
– वैद्या (श्रीमती) स्वराली शेंड्ये, यशप्रभा आयुर्वेद, पुणे
(वैद्या (श्रीमती) स्वराली शेंड्ये के फेसबुक खाते से साभार)