वैश्‍विक हिन्दू राष्‍ट्र अधिवेशन का पांचवां दिन (२८ जून) : उद़्‍बोधन सत्र – मदिंरों का सुव्‍यवस्‍थापन

मंदिर आधारित अर्थव्‍यवस्‍था नष्‍ट होने से भारत में साम्‍यवाद और पूंजीवाद का प्रवेश ! – अंकित शहा, गुजरात

श्री. अंकित शहा

विद्याधिराज सभागृह – अर्थशास्‍त्रज्ञ एडम स्मित के अर्थकारण पूंजीवाद पर आधारित है । इसलिए जगत की ९० प्रतिशत संपत्ति ५ प्रतिशत लोगों के पास जमा हो गई । विश्‍व के १०० धनाढ्य लोगों की सूची तैयार की जाती है । इसप्रकार व्यक्तिगतरूप से संपत्ति का संचय होना विश्व के लिए उचित नहीं । हम इतने धन का संचय न करें जिससे कि अन्य निर्धन हो जाएं और उन्हें निशुल्क देने का समय आ जाए । किसी को निशुल्क देना अथवा बिनामूल्य देने की पद्धति कार्ल मार्क्‍स ने प्रचलित की । मतों की राजनीति से निशुल्क सुविधा अथवा वस्तु देने की पद्धति बढ गई है । केवल भारतीय अर्थशास्‍त्र आत्‍मनिर्भर बनाता है । सनातन धर्म के अर्थशास्‍त्र में मंदिरों का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है । सनातन धर्म में मंदिरों के अर्थकारण से शिक्षाप्रणाली चलाई जा रही है । मंदिरों की अर्थव्यवस्था पर गांवों की निर्मिति हो रही है । अंग्रेज भारत में आने पर उन्होंने ‘शिक्षा विभाग’ पद्धति आरंभ की । भारत में राजा कभी भी शिक्षा का संचलन नहीं करता था । भारत की शिक्षापद्धति मंदिर के अर्थकारण पर चल रही थी । ऋषि-मुनि अभ्‍यासक्रम निश्चित करते थे । राजा भ्रष्ट होने पर आर्य चाणक्य द्वारा समाज को संगठित कर, राजा धनानंद को सत्ताच्युत किए जाने का उदाहरण अपने इतिहास में है । ब्रिटिशों ने शिक्षाप्रणाली सरकार के नियंत्रण में दी । ब्रिटिशों ने ‘नौकरी के लिए शिक्षा’ पद्धति प्रचलित की । यह गत ४०० वर्षों में हुआ है । गुरुकुल मंदिर के परिसर में ही होना चाहिए ।

मंदिरों की अर्थव्‍यवस्‍था नष्ट हो जाने के कारण ही भारत में साम्यवाद और पूंजीवाद आया । इसे बढावा देने के स्थान पर मंदिरों पर आधारित अर्थव्‍यवस्था का ज्ञान हमें पाश्‍चात्यों को देना चाहिए, ऐसा वक्‍तव्‍य गुजरात के हिन्दुत्वनिष्ठ श्री. अंकित शहा ने किए । वे ‘मंदिर अर्थशास्‍त्र’ पर बोल रहे थे ।

भारतीय संस्‍कृति में सर्व प्राणिमात्र के हित का विचार !

उन्होंने आगे कहा, ‘भारत में प्राणि और मानव के लिए भिन्न अधिकार नहीं थे । भारतीय संस्कृति में सर्व प्राणिमात्रों के हित का विचार किया गया है; जबकि पश्चिमी लोग प्राणियों को खाकर प्राणिरक्षा की बातें करते हैं । भारतीय संस्कृति में वन, प्राणि, नदी का विचार करने के पश्चात अपने रहने का स्थान निश्चित किया जाता है । आजकल पहले मकान बनाए जाते हैं, फिर पानी की व्यवस्था की जाती है । हमारे यहां देवी-देवताओं को विविध फल-फूल अर्पण करने की प्रथा है । देवी-देवताओं के वाहन के रूप में विविध पशु-पक्षियों को दिखाया जाता है । पशु, पक्षी और पर्यावरण का विचार सनातन धर्म में पहले से ही किया जा रहा है । मंदिर के परिसर में गुरुकुल में पढे विद्यार्थी कभी भी पर्यावरण प्रदूषित नहीं करेंगे ।’


मंदिर में प्राण होने से उनका निर्माण वास्तुरचनानुसार होना चाहिए ! – अभिजीत साधले, दक्षिण गोवा

श्री. अभिजीत साधले

विद्याधिराज सभागार – मंदिर उपासना के और सामाजिक उत्सवों के केंद्र हैं । साथ ही वे आध्‍यात्मिक और आत्मोन्नति के भी केंद्र हैं । मंदिर की वास्तुरचना मानव जीवन का एक अभिन्न अंग है । प्रत्येक मंदिर में भगवान का वास होता है । इसलिए उनमें प्राण होते हैं । मंदिर की वास्तुरचना केवल रचना नहीं, अपितु मानवी जीवन समान मंदिर का जीवन है, यह ध्यान में रख मंदिरों का निर्माण वास्तुरचनानुसार होना चाहिए, ऐसा प्रतिपादन दक्षिण गोवा के अभिजीत साधले ने ‘वैश्‍विक हिन्दू राष्‍ट्र महोत्‍सव’के पांचवें दिन किया । वे ‘धर्मशास्त्र की दृष्टि से मंदिर के सुव्‍यवस्‍थापन’ इस विषय पर बोल रहे थे ।

उन्होंने आगे कहा, ‘‘आजकल अनेक मंदिर बनाते समय केवल सौंदर्य का विचार किया जाता है । इसलिए उनका निर्माण वास्तुशास्त्र के अनुसार नहीं होता । हिन्दू मंदिर लोकपरंपरा और वास्तुपरंपरा के समुच्‍चय से बने हैं । मंदिर के गर्भगृह, सभामंडप और शिखर के पीछे सखोल शास्‍त्र है । आजकल मंदिरों में भारी मात्रा में प्रकाश योजना की जाती है । बाह्य प्रकाश से भगवान के दर्शन नहीं होते । इसलिए प्राचीन मंदिर में जाते समय प्रकाश अल्‍प होता जाता है और गर्भगृह में पूर्ण अंधेरा होता है । अत: मंदिर में जाने की पद्धति का पालन करना चाहिए । हमारी मंदिर संस्‍कृति सहस्रों वर्षों की परंपरा से हम तक पहुंची है । इसलिए उसका जतन कर आगामी पीढियों को उसे उत्तम पद्धति से सौंपना हमारा कर्तव्‍य है ।