पोप एवं ईसाई कहते हैं, ‘इस विश्व में यीशू का राज्य आना चाहिए । विश्व पर बाईबल की अर्थात ही ईसाईयों की सत्ता स्थापित होनी होगी ।’ १६ वीं शताब्दी से लेकर विश्व में, साथ ही भारत में आरंभ हुआ ईसाई मिशनरियों का धर्मांतरण अभियान तथा उन्हें राजाश्रय देकर दो तिहाई विश्व को गुलामी की खाई में ढकेलनेवाला यूरोपियन देशों का साम्राज्यवादी इतिहास इसका साक्षी है ।
आज भी एक ओर संपूर्ण विश्व को ईसाई बनाने का बडा अभियान चल रहा है, तो दूसरी ओर ‘गजवा-ए-हिन्द’, खुरासान, दारुल-ए-इस्लाम आदि विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत विश्व को इस्लाममय बनाने हेतु जिहादी मानसिकतावाले अरब देश पैसों के बल पर प्रयासरत हैं । उसके साथ ही आतंकियों की भूमि बने पाकिस्तानसहित अल् कायदा, इसिस आदि आतंकी संगठन अपनी आतंकी गतिविधियों के माध्यम से संपूर्ण विश्व में गैरमुसलमान जनता के मन में भयोत्पादन कर रहे हैं ।
इसी तर्ज पर भारत के उनके कुछ अनुयायी ‘भारत में शरिया लागू करें अथवा शरियत बैंकिंग सेवा आरंभ करें, यह मांग करते हुए लव जिहाद एवं लैंड जिहाद के द्वारा कार्यरत हैं’, ऐसा दिखाई देता है । ृइसमें आश्चर्य की बात यह कि जो लोग इस्लाम को जिहाद अथवा आतंकी गतिविधियों से जोडने के लिए तैयार नहीं हैं, वे तटस्थ मुसलमान इसके विरोध में एक शब्द भी नहीं बोलते, यह दुर्भाग्यपूर्ण है; परंतु ‘अपराध का मूकदर्शक अंततः अपराधी ही प्रमाणित होता है’, यही न्यायतंत्र बताता है ।
इस वैश्विक परिस्थिति में वर्तमान समय में हिन्दू विचारक एवं अध्येता ‘स्वबोध’ एवं ‘शत्रुबोध’ इन संज्ञाओं के प्रचलनों के द्वारा हिन्दू समाज में जनजागृति का अभियान चला रहे हैं; परंतु इन संज्ञाओं की तथा इस अभियानों की गहराई बढानी चाहिए । स्वबोध, मित्रबोध, शत्रुबोध एवं उभयबोध इन संज्ञाओं के साथ विकृत स्वबोध एवं विकृत शत्रुबोध इन संज्ञाओं का भी अर्थसहित प्रयोग किया जाना चाहिए, यह इस लेख का प्रयोजन है ।
२४ सितंबर को प्रकाशित लेख में ‘स्वबोध (स्वयं का शाश्वतरूप से परिचय करा लेना) व्यष्टिस्वबोध (व्यक्तिगत स्तर के धर्म को जान लेना), समष्टि स्वबोध (स्वधर्म जान लेकर धर्मरक्षा एवं राष्ट्ररक्षा के कार्य में योगदान देना), विकृत (धर्मप्रतिकूल) स्वबोध तथा हिन्दुओं के लिए धर्मशिक्षा की आवश्यकता’, इस विषय में पढा । आज हम इस लेख की अंतिम कडी दे रहे हैं ।
३. हिन्दू राष्ट्र में उचित स्वधर्मबोध होनेवाली योजनाएं बनानी पडना
हिन्दुओं को विकृत स्वबोध से उचित स्वबोध की ओर ले आना ही धर्मरक्षा, धर्मप्रसार एवं राष्ट्ररक्षा करना है ! जो उचित स्वबोध की ओर नहीं मुडते, उनकी अज्ञानवश धर्म एवं धर्म आणि राष्ट्र विरोधी कार्य में फंसते जाने की संभावना होती है, इसे ध्यान में लेना होगा । इसकी परिसीमा अर्थात यही आगे जाकर राष्ट्र एवं धर्म के शत्रु सिद्ध हो सकते हैं । ‘ऐसे लोगों के लिए सरकारी, धार्मिक, देवालय एवं पारिवारिक स्तरों की कल्याणकारी योजनाएं अर्थात ही हिन्दू राष्ट्र में उचित स्वधर्मबोध होनेवाली योजनाएं बनानी पडनेवाली हैं’, इसे ध्यान में लेना होगा ।
४. व्यक्तिगत स्वार्थ अथवा इच्छापूर्ति का लक्ष्य रखे बिना केवल राष्ट्र एवं धर्म के हित के लिए कार्यरत व्यक्ति अर्थात स्वबोध के साथ मित्रबोध होना !
किसी व्यक्ति के उचित स्वबोध के कारण उसका जीवन धर्मसम्मत तथा आचरणशील होता है । ऐसे व्यक्तियों के प्रयासों के कारण उनके स्वभावदोष एवं अहंकार अल्प होते रहते हैं । उनके चित्त में ज्ञानयुक्त धर्मपालन तथा समष्टि की धर्मरक्षा का भान नित्य जागृत रहता है । ऐसे व्यक्तियों में धर्मसंयुक्त विचारशील एवं आचारशील व्यक्तियों, परिवार एवं समाज के प्रति मित्रबोध उत्पन्न होता है । यह मित्रबोध राष्ट्र एवं धर्मरक्षा का कार्य समर्थरूप से करने में सक्षम होता है । स्वबोध एवं साधना के स्तर के अनुसार मित्रबोध होता है । ऐसे व्यक्तियों के पास राष्ट्र एवं धर्म को शत्रु माननेवाले अपनों को भी पहचानने की योग्यता होती है, जबकि उनमें राष्ट्र एवं धर्म के प्रति स्नेह माननेवाले अन्यों को पहचानने की भी क्षमता होती है । ऐसे जीव किसी भी व्यक्तिगत स्वार्थ अथवा इच्छापूर्ति का लक्ष्य रखे बिना केवल राष्ट्र एवं धर्म के हित के लिए कार्यरत होते हैं । ऐसे व्यक्ति राष्ट्र एवं धर्म के शत्रुओं के प्रति द्वेष, ईर्ष्या आदि कुछ भी मन में रखे बिना सतर्क होते हैं । आवश्यकता पडने पर वे राष्ट्र अथवा धर्म के शत्रुओं को दंडित करने हेतु व्यक्तिगत अथवा समष्टि स्तर पर प्रशासन तथा शासन का सहयोग करते हैं ।
महाभारत में दुर्योधन को बंदी बनाए जाने पर ‘हम ५ नहीं, अपितु १०५ हैं’, यह आहोत’, यह युधिष्ठिर का भाव ‘बंधुभाव’ के अंतर्गत आता है । छत्रपति शिवाजी महाराज ने १२ सालदारों को साथ लेकर शक्तिशाली संगठन तथा सेना खडी करना, इसी के अंतर्गत आता है । पेशवाओं का धर्मरक्षा हेतु बुंदेलखंड के राजा की सहायता के लिए दौडा चला जाना तथा मेवाड के सिंहासन के सामने नीचे बैठना, इसी के अंतर्गत आता है ।
५. स्वबोध के बिना मित्रबोध !
यह एक छद्म व्यक्तित्त्व का मित्रबोध है । जिस व्यक्ति को स्वबोध नहीं हुआ हो, उसका चित्त स्वभावदोषों एवं अहंकार से युक्त होता है । उचित साधना का अभाव उसके आध्यात्मिक जीवन की बाधा सिद्ध होने से वह ईश्वर की सहायता ग्रहण नहीं कर सकता । ऐसे व्यक्तियों को स्वेच्छानुकूल (व्यक्ति की इच्छा के अनुसार आचरण करनेवाले) व्यक्तियों के प्रति मित्रबोध, जबकि स्वेच्छाप्रतिकूल (व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध आचरण करनेवाले) व्यक्तियों के प्रति शत्रुबोध होता है । इनमें ‘मेरा ही सही तथा जो मेरे साथ खडे हैं, वे ही मेरे हैं’, इस प्रकार का एकतरफा अहंकार होता है । ऐस व्यक्ति के राष्ट्र एवं धर्म के प्रति के निर्णय कभी-कभी कडवे लगनेवाले होते हैं । उनमें विरोधी विचारधारावाले प्रतीत होनेवाले व्यक्तियों से मेल रखने का सामर्थ्य नहीं होता अर्थात वे सच्चे मित्रों को पहचान नहीं सकते तथा वे उनकी मित्रता से वंचित रह जाते हैं । ऐसे व्यक्तियों के जीवन में जो मित्र आते हैं, वे भी स्वार्थी तथा स्वेच्छापूर्ति करनेवाले होते हैं तथा झूठी प्रशंसा तथा वाहवाई कर अपना स्वार्थ साधनेवाले होते हैं । आवश्यकता पडने पर ऐसे मित्र राष्ट्र एवं धर्म की कार्य को हानि पहुंचाते हैं तथा वे राष्ट्र एवं धर्मविरोधी सिद्ध होते हैं । ऐसे मित्र ‘गरजी यार किसके, दम लगाए खिसके’, इस वचन की भांति किसी की आवश्यकता समाप्त होने पर उनकी मित्रता भी समाप्त हो जाती है ।
जिन भारतीय राजाओं ने स्वयं की सत्ता बनाए रखने हेतु झूठी मित्रता कर अंग्रेजों अथवा इस्लामी साम्राज्यों के साथ हाथ मिलाया तथा उसके उपरांत अंग्रेज अथवा इस्लामी सत्ताओं ने हिन्दू धर्मष्ठि राजाओं को ही सत्ताभ्रष्ट कर दिया, उस समय वे आंखें मूंदकर चुप बैठे हुए थे । ऐसे सभी राजा इसके अंतर्गत आते हैं ।
६. स्वबोध के साथ शत्रुबोध !
यह उचित शत्रुबोध है । स्वबोधी व्यक्ति का जीवन धर्मसम्मत तथा आचरणशील होता है । उचित साधना करते समय किए गए प्रयासों के कारण उसके स्वभावदोष एवं अहंकार न्यून हुए होते हैं । व्यक्तिगत तथा समष्टि जीवन में राष्ट्र एवं धर्म की रक्षा का उनका भान नित्य जागृत होता है । ऐसे व्यक्तियों को अपना हो अथवा बाहरी, प्रत्यक्षरूप से राष्ट्र एवं धर्म के विरोधी कार्य करनेवालों के प्रति शत्रुबोध होता है, साथ ही उन्हें बाह्यरूप से राष्ट्र एवं धर्म के प्रति प्रेम दर्शानेवालों; परंतु राष्ट्र एवं धर्म के प्रति आंतरिक गतिविधियां चलानेवालों के प्रति सहजता से शत्रुबोध होता है । वे ऐसे व्यक्तियों से सतर्क होते हैं । वे उन्हें व्यष्टि अथवा समष्टि स्तर पर ऐसे लोगों को उजागर कर उनकी गतिविधियां तोड डालने हेतु शासन-प्रशासन को बाध्य करने का प्रयास करते रहते हैं । उचित शत्रुबोध होने हेतु जैसे निष्काम धर्म एवं राष्ट्रप्रेम आवश्यक होता है, वैसे ही शत्रु को दंड मिलने हेतु ईश्वरनिष्ठा के साथ क्रियाशील रहना भी आवश्यक होता है ।
भावनाशीलता न होने से ‘यह मेरा (अपना) है; इसलिए मैं इसे शत्रु नहीं मानूंगा’, इस प्रकार की उछली राष्ट्र एवं धर्मविरोधी भूमिका ये लोग नहीं ले सकते । उसके साथ यदि शत्रु शक्तिशाली हो, तो थोडा शांत रहकर शत्रु को उचित समय पर कैसे उचित दंड दिया जा सकेगा, इस अवसर की वे प्रतीक्षा करते रहते हैं ।
छत्रपति शिवाजी महाराज के द्वारा अंग्रेजों को समय रहते ही पहचाना जाना, बलात्कारी रांझा के पाटिल को दंडित करना, विजयपुर के दरबार में जाते समय गोहत्या करनेवाले कसाई का हाथ काटना अथवा समय-समय पर अपनों का, संबंधियों का, साथ ही ५ बादशाहियों का उचित प्रबंध करना उचित शत्रुबोध के उदाहरण हैं ।
७. स्वबोध के बिना शत्रुबोध !
यह एक छद्म व्यक्तित्त्व का शत्रुबोध है । जिस व्यक्ति को स्वबोध न हुआ हो, उसका चित्त अशुद्ध होता है । ऐसे व्यक्ति के सामने उचित विश्लेषण अथवा समीक्षा करना संभव नहीं होता । उसका मुख्य कारण यह है कि उसमें स्थित स्वभावदोष एवं अहंकार ! साधना का अभाव ऐसे व्यक्तियों के आध्यात्मिक जीवन में बडी बाधा सिद्ध होता है । ऐसे व्यक्तियों को स्वेच्छानुकूल व्यक्तियों के विषय में मित्रबोध, जबकि स्वेच्छाप्रतिकूल व्यक्तियों के प्रति शत्रुबोध होता है । संक्षेप में कहा जाए, तो इन व्यक्तियों के मन के विरुद्ध अथवा मत के विरुद्ध के सभी लोग इन्हें शत्रु लगते हैं, साथ ही राष्ट्र एवं धर्म का कार्य करनेवालों को भी ये शत्रु मान सकते हैं । यह अनुचित है । साथ ही जो धर्म को नहीं मानते, अपितु जो धर्म का विरोध करते हैं अथवा जो इस मिट्टी से तथा राष्ट्र के साथ निष्ठा रखने के लिए तैयार नहीं होते, वे इन्हें शत्रु लगेंगे ही; ऐसा नहीं है । स्वबोधहीन अधिकतर लोग राष्ट्र एवं धर्मपरायण अपनों को शत्रु मानते हैं, ऐसा भी दिखाई दे सकता है । भारत में हिन्दू धर्म की आलोचना करने पर राजनीतिक भविष्य बनाना सरल बन जाता है । समाजमाध्यम ऐसे लोगों को सिर पर उठा लेते हैं । उन्हें प्रसिद्धि मिलती है । ऐसे लोगों को विदेशी मिशनरियों, इस्लामी अथवा वामपंथी शक्तियों का समर्थन मिलता है । इसे देककर अनेक लोग जानबूझकर भारतीय परंपराओं, सनातन धर्मियों तथा हिन्दू संस्कृति को अपना शत्रु घोषित करते हैं । यह जानबूझकर अनुचित शत्रुबोध का उत्तम उदाहरण सिद्ध होता है । जिन्हें ऐसा शत्रुबोध होता है, उनका संगठन तुरंत बन जाता है तथा वह लंबे समय तक टिका रहता है; परंतु सत्ता अथवा उसके लाभ का अनुभव करते समय उनमें आवेशयुद्ध झगडा होता है ।
मिर्जा राजे जयसिंह का छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रति स्थित ‘शत्रुबोध’ इसके अंतर्गत आता है । छत्रपति संभाजी महाराज के प्रति का उनकी सौतेली मां सोयराबाई का ‘शत्रुबोध’ इसके अंतर्गत आता है ।
कुल मिलाकर साधना करना, चित्तशुद्धि करना, धर्मशिक्षा के साथ धर्मशास्त्र जान लेना, कारणमीमांसा जान लेता, साथ ही धर्माचरण करते हुए जब हिन्दू व्यक्ति स्वबोध कर लेगा, उस समय रामराज्य (हिन्दू राष्ट्र) तथा हिन्दवी स्वराज स्थापन करना सहजता से संभव होगा ’
संकलनकर्ता : (सद्गुरु) डॉ. चारुदत्त पिंगळेजी, राष्ट्रीय मार्गदर्शक, हिन्दू जनजागृति समिति (२०.५.२०२३)
संपादकीय भूमिकाधर्मशिक्षा लेनेवाला तथा धर्माचरण करनेवाला हिन्दू व्यक्ति जब स्वबोध कर लेगा, उस समय रामराज्य की (हिन्दू राष्ट्र की) स्थापना करना सहजता से होगा संभव ! |