धर्मकेंद्रित जीवन रचना (भाग २)

पुनरुत्थान पीठ कर्णावती द्वारा लातूर, महाराष्ट्र में ८ से १० जून २०२४ की कालावधि में दो दिवसीय विद्वत गोष्ठी तथा एक दिवसीय विद्वत सभा का आयोजन किया गया है । इस विद्वत गोष्ठी तथा विद्वत सभा में हिन्दू जनजागृति समिति को सहभागी होने का अवसर दिया गया । ‘धर्मकेंद्रित जीवन’ के विषय में विचारमंथन करते समय धर्मकेंद्रित तथा अर्थकेंद्रित जीवन में क्या भेद है ?, उसका तुलनात्मक अध्ययन करेंगे । (भाग २)

टिप्पणी : समय एवं नियोजन के अभाववश यह महत्वपूर्ण विषय  प्रस्तुत नहीं कर पाए इस कारण जालस्थल पर अपलोड कर रहे हैं ।

(इस लेख का पहला भाग पढने के लिए :   https://sanatanprabhat.org/hindi/100005.html)

८. जीवन, जीवन-प्रवाह क्या है यह समझ लेना आवश्यक

धर्म केंद्रित जीवन को समझने हेतु पहले जीवन में हमने धर्म की व्याप्ति को समझने का प्रयास किया । अभी हम जीवन क्या है, जीवन-प्रवाह क्या है यह समझेंगे ।

अ. जीव से जीवन आरंभ होना : जीव की उत्पत्ति से जीवन का आरंभ होता है । जीवन का आरंभ है, तो जीवन का अंत भी है । जहां से हमारी जीवन यात्रा आरंभ हुई है, अंततः वहीं जाकर जीवन-प्रवाह का विराम संभव होता है ।

आ. जीवन ८४ लक्ष योनि का फेरा : ८४ लक्ष योनि से विविध देह धारण करते-करते मनुष्यदेह प्राप्त करना तथा इस जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होना । यदि मनुष्य जन्म में यह संभव नहीं हुआ अथवा कर्म की गति के अनुसार विविध योिनयों की यात्रा आरंभ होकर अंततः पुनः मनुष्यदेह प्राप्त कर इस चक्र से मुक्ति का अवसर प्राप्त होता है । यह जीवन है, नहीं यह जीवन-प्रवाह है, यह समझ लेना धर्मकेंद्रित जीवन जीने की नींव है, यह समझना आवश्यक है ।

इ. भोग योनि तथा उद्धार योनि : मनुष्यदेह छोडकर अन्य योनि की देह प्राप्त होना, यह केवल भोग योनि अर्थात विविध कर्माें का लेखा-जोखा पूर्ण करने हेतु होता है ।केवल मनुष्य योनि अर्थात मनुष्यदेह प्राप्त होने पर पुरुषार्थ करके, धर्मपालन करके, कर्मफल का हिसाब चुकाकर (प्रारब्ध भोगकर समाप्त करना तथा संचित साधना द्वारा नष्ट करना) इस जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर जहां से आए वहां पहुचकर हमारे जीवन-प्रवाह की इतिश्री होती है । यह साध्य करने हेतु धर्मकेंद्रित जीवन जीना अत्यंत आवश्यक हो जाता है ।

सद्गुरु डॉ. चारुदत्त पिंगळेजी

ई. जीवन का लक्ष्य – किसी व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य निर्धारित करता है कि – आध्यात्मिक स्तर पर मनुष्य की उन्नति होगी, उत्कर्ष होगा अथवा अधोगति होगी । जीवन का लक्ष्य जीव से शिव अर्थात आत्मस्थिति, ब्रह्मस्थिति प्राप्त करना है । जीव अवस्था है मनुष्य का सामान्य जीवन, जीवात्मा अवस्था है मनुष्य का उच्च स्तर का जीवन, शिवात्मा अवस्था है मनुष्य का उच्चतर जीवन तथा शिव अवस्था मनुष्य के सर्वाेच्च अवस्था को ध्वनित करता है ।

शिव अवस्था जीवन नहीं, स्वरूपस्थिति अथवा स्वरूपानुभूति है । इस अवस्था में मनुष्य आनंदस्वरूप की शाश्वत स्वरूप अवस्था को प्राप्त हो जाता है । जो मनुष्य जीव स्वरूप होकर सामान्य मनुष्य धर्म का पालन नहीं करता, वह अधर्मी पशुवत मनुष्य, आगे राक्षसी वृत्ति में परावर्तित होता है । अंततः वह असुर स्वरूप को प्राप्त होता है, यह मनुष्य की अधोगति की परिसीमा है, यह ध्यान में लेना होगा ।

उ. जीवन-प्रवाह तथा जीवन-मुक्ति : धर्म-अशिक्षित व्यक्ति की इस मनुष्यदेह में वर्तमान जीवन के क्षणों की स्मृति होती है तथा वह इस जन्मयात्रा को जीवन समझता है । सनातन परंपरा ने इस मनुष्य जीवन के साथ पूर्व अनेक जन्म तथा मृत्युपश्चात का जीवन तथा पुनर्जन्म, जो भविष्य की जीवन यात्रा है, इन सभी सूत्रों का गहन विचार किया है । मनुष्यदेह में रहते हुए जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होने के उपाय बताए हैं ।

सरल कर्म की भाषा में देखें, तो जीवन-प्रवाह में संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म पूर्व अनेक जन्मों की कडी को जोडते हैं । साधना द्वारा चित्तशुद्धि कर मनुष्य इसी जन्म में आत्मभाव आत्मस्वरूप से जोडने का मार्ग भी बताते हैं । यह कर नहीं पाए तो बचे कर्म, प्रारब्ध, संचित भविष्य के जन्म के तथा किस योनि में जन्म लेना है, उसका निमित्त बनते हैं ।

ऊ. मनुष्य देह में जीव की यात्रा

१. प्रथम स्वस्वरूप की अनुभूति में स्थित होकर अंततः सर्वस्वरूप की अनुभूति रूपी विराट में स्थित होना ।

२. आंतरिक साधना यात्रा के साथ से अंतर्बाह्य साधना यात्रा पूर्णत्व को प्राप्त करती है ।

३. पिंड ब्रह्मांड की सूक्ष्मतम इकाई है तथा ब्रह्मांड पिंड का अत्यंत अनंत व्यापक स्वरूप है । पिंड-ब्रह्मांड एकरूपता जीवन यात्रा का अंतिम पडाव होता है ।

विनोबा भावेजी की कहानी – पहले स्वयं का उद्धार, तत्पश्चात समष्टि का उद्धार : एक उत्तम परिवार का युवक, दोपहर की धूप में बाहर जाता है । उसके पांव जलते हैं । एक गली में रास्ते में फैलाए गए चमडे से गुजरने पर उसके पांव नहीं जलते । घर आकर वह पिता को गांव के सभी रास्तों पर चमडा फैलाने के लिए बताता है । पिता उसकी अनसुनी कर उसे चप्पल की एक जोडी थमाकर कहते हैं, ‘पहले अपने पैरों को जलने से बचाओ, तो भविष्य में तुम सभी को बचा पाओगे ।’ अर्थात चमडा फैलाने की अपेक्षा सभी को चप्पल पहनने का परामर्श दो, यह सिखाते हैं । यह संकेत करता है कि पहले स्वयं का उद्धार करें, तो उसके उपरांत हम सभी को उद्धार का रास्ता बता सकेंगे ।

ए. जीवन व्यष्टि तथा समष्टि स्तर का होता है

१. व्यष्टि जीवन – एक तो स्वार्थी जीवन अथवा निःस्वार्थी जीवन; एक तो स्वावलंबी जीवन अथवा परावलंबी जीवन ।

यदि हम स्वार्थी हैं, तो परिवार, समाज, राष्ट्र तथा धर्म, सभी को हमसे हानि ही पहुंचेगी । यह व्यष्टि अधर्मी सिद्ध होने के कारण वह दंड का पात्र होता है । यदि निःस्वार्थी हो, तो हम सभी के लिए सहयोगी सिद्ध होंगे ।

यदि हम स्वावलंबी हैैं तो अन्यों की सहायता कर सकते हैं; परंतु हम परावलंबी हैं, तो हमारे सगे-संबंधी परिवार, मित्र आदि सभी कालांतर में हमसे परेशान होते हैं अथवा दुःखी होते हैं । स्वावलंबी व्यक्ति साधक हो तो धर्मपरायण होने की संभावना होती है; परंतु साधना न करनेवाला परावलंबी व्यक्ति के अधर्मी होने की ही संभावना रहती है ।

२. समष्टि-जीवन : व्यष्टि यदि स्वार्थी है तो उसके हाथों अन्यों को कष्ट देना नित्य निरंतर होता है । यह उत्तम समाज व्यवस्था रखने हेतु बाधा ही है । यह व्यक्ति दिखने में कितना भी धर्मपरायण अथवा धार्मिक लगे, वह अधर्मी होता है तथा दंड का पात्र होता है ।

निःस्वार्थी व्यष्टि अन्यों का विचार करता है, अन्यों की सहायता अथवा परोपकार करता है । जब ऐसा होता है, तब परस्परावलंबी रहने से समाज आनंदित रहता है । यह उत्तम समाजव्यवस्था का निर्माण करने में उपयोगी होता है । ऐसा व्यक्ति धर्मपरायण सिद्ध होता है ।

९. धर्मकेंद्रित जीवन अथवा अर्थकेंद्रित जीवन 

धर्मकेंद्रित जीवन में हमने व्यक्ति के जीवन में धर्म की व्याप्ति क्या है तथा जीवन-प्रवाह क्या है यह देखा । अभी हम धर्मकेंद्रित जीवन की तुलना में अर्थकेंद्रित जीवन कैसे दुःखदायी तथा अधोगतिगामी होता है, यह देखेंगे ।

अ. अर्थकेंद्रित जीवन जीनेवाले व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य : अर्थकेंद्रित जीवन पद्धति एक प्रकार से भारतीय दर्शन के अनुसार चार्वाक् दर्शन के लक्षणों से साधर्म्य रखता है । अर्थप्रधान जीवन जीनेवाला व्यक्ति मानता है कि यही एक जन्म उपलब्ध है, खूब कमाओ, खाओ पियो, मौज करो । न पाप का डर न पुण्य करने की इच्छा होती है । धन कमाना है तो धर्ममार्ग का पालन नहीं होता । अशुभ लक्ष्मी जीवन में अनारोग्य तथा कलह लाती है ।

आ. सुख (भौतिक सुख) : धर्मकेंद्रित तथा अर्थकेंद्रित, दोनों प्रकार के जीवन में सुख आते हैं ।

धर्मकेंद्रित जीवन में सुख भोग नहीं होता, इस कारण सुख उनके जीवनप्रवाह में उन्नति करने हेतु बाधा नहीं बनता । भोग बुद्धि के अभाव में कामना, वासना, इच्छा आदि दोषों पर नियंत्रण होने से चित्तशुद्धि के प्रयास संभव होते हैं ।

अर्थकेंद्रित जीवन में सुख का भोग होता है । भोग होने से सुख में आसक्ति बढती है । पुनः-पुनः भोग करने की इच्छा होती है । भोग हेतु धन कमाने की इच्छा रहती है । धन अनुचित मार्ग से कमाया जाता है, जिससे पाप भी होता है तथा भोग भी पूरा नहीं ले पाते ।

अंततः सुख ही उसके जीवन में दुःख तथा अनारोग्य लाने का माध्यम हो जाता है । भोग बुद्धि होने से कामना, वासना, आसक्ति, क्रोध आदि दोषों की प्रबलता बढती है, जो अधोगतिकारक होती है । चित्त शुद्ध होने से मनुष्य से अवनत होकर पशुत्व की ओर यात्रा होती है ।

इ. दुःख : चाहे धर्मकेंद्रित जीवन हो अथवा अर्थकेंद्रित, जीवन पूर्व कर्माें के हिसाब से तथा वर्तमान कर्माें के अनुपात में व्यक्ति के जीवन में दुःख आते हैं ।

धर्मकेंद्रित जीवन जीनेवाले व्यक्ति दुःख को अपने पापकर्म का फल मानकर धर्मपरायणता से साधना करके दुःख सहने की क्षमता मांगते हैं अथवा प्राप्त कर लेते हैं । दुःख को स्वीकार करने से दुःख का परिणाम अल्प हो जाता है । दुःख से दुःखी न होकर प्रारब्ध पर विजय पाने हेतु साधना बढाना कर्मशुद्धि बढाना, धर्मपरायणता बढाना, ऐसे प्रयास करते हैं ।

अर्थकेंद्रित जीवन जीनेवाले व्यक्ति दुःख को जीवन की पराजय मानकर सुखप्राप्ति की होड में दौडने का प्रयास करते हैं । अधिक धनार्जन तथा अधिक मान-सम्मान पाने से दुःख कम हो जाएगा, लोग वाह-वाह करेंगे, ऐसा सोचकर लोग अनुचित मार्ग से अधिकाधिक धन कमाने का प्रयास करते हैं, जो उनके जीवन में दुःख के साथ तनाव बढाता है ।

कर्म-अशुद्धि तथा पापकर्म बढते हैं, जो जीवन में दुःख ही बढा रहे हैं, वे यह समझ नहीं पाते । अशुभ लक्ष्मी द्वारा अनारोग्य लाने से व्यक्ति तथा परिवार में व्याधि तथा बीमारियां बढती हैं, जो दुःख को भी बढाती हैं तथा अनावश्यक धन का व्यय भी करती हैं । ऐसे में व्यक्ति अधिक दुःखी होता है, निराश होता है तथा अधर्म के मार्ग पर बढता है ।

ई. आनंद (आध्यात्मिक सुख) : धर्मकेंद्रित जीवन साधना तथा गुरु की कृपाछत्र में हो, तो जीवन में आनंदावस्था की प्राप्ति संभव होती है; परंतु अर्थकेंद्रित जीवन में साधना के लिए समय न होना, सकाम साधना ही करना तथा षड्रिपु तथा भोगबुद्धि में लिप्त होने से आनंदावस्था से दूर-दूर जाने की प्रक्रिया होती है ।

उ. अर्थाजन करने का उद्देश्य : धन की आवश्यकता तो सदा सर्वदा होती ही है; परंतु धनप्राप्ति का हेतु समझ लेंगे ।

उ १. धर्मकेंद्रित जीवन – जीवन का उद्देश्य – पुरुषार्थ प्राप्ति, आनंदप्राप्ति तथा मोक्षप्राप्ति हेतु अर्थार्जन ।

उ २. अर्थकेंद्रित जीवन – सुखी जीवन, कामनापूर्ति के लिए (भोगबुद्धि से) अर्थाजन ।

ऊ. पुरुषार्थ : पुरुषत्व की प्राप्ति के लिए किए गए प्रयासों को पुरुषार्थ कहते हैं । सरल भाषा में आनंदप्राप्ति, ब्रह्मप्राप्ति, मोक्षप्राप्ति आदि के लिए किए गए सकारात्मक प्रयासों को पुरुषार्थ कहते हैं । यह सब करने के लिए अतिरिक्त सकारात्मक ऊर्जा की आवश्यकता होती है ।

उदा. जैसे धरती को हम जोतेंगे नहीं, उसका ध्यान नहीं रखेंगे, तो घासफूस तथा कांटेवाले पौधे अपनेआप उग आते हैं । उसके लिए आपको प्रयास नहीं करना पडता; परंतु अनाज उगाना हो तो धरती को जोतने के साथ-साथ अच्छा बीज, बुवाई, रखवाली, पानी देना, कीडे-मकोडे अथवा अन्य प्राणियों से अनाज को बचाना, खाद डालना, कटाई इत्यादि अनेक क्रियाएं करनी पडती हैं । अनाज उगाने हेतु किए गए इन प्रयासों को पुरुषार्थ कह सकते हैं ।

दूसरा उदाहरण देखें तो जैसे सच बोलना है, झूठ न बोलें हम यह सिखाते हैं; परंतु बच्चे को न सिखाएं, तब भी सरलता से झूठ बोलना सीख जाता है । वैसे सत्य बोलने के लिए तथा उसके परिणाम सहन करने हेतु ऊर्जा लगती है, यह जानकर सत्य बोलना, सत्य का आग्रह करना, यह पुरुषार्थ है ।

ऊ १. धर्म पुरुषार्थ : मुख्य प्रश्न तो यह है कि चारों पुरुषार्थ में धर्मशास्त्रों में धर्म पुरुषार्थ पहले क्यों बताया जाता है ? मोक्ष पुरुषार्थ चारों में अंतिम क्यों है ? यह चिंतन का विषय है । ईश्वर ने धर्मशास्त्र हमें दिया, हर तरह से यही हमारी प्रधानता है ।

धर्मशास्त्र पहले चरण में ‘धर्म’ पुरुषार्थ प्राप्ति के लिए प्रयास करने की दिशा प्रदान करता है ।

द्वितीय चरण में धर्म पुरुषार्थ हेतु प्रयासरत रहते हुए आप धर्माधारित अर्थ पुरुषार्थ की प्राप्ति करें । अन्यथा अर्जित किया हुआ धन जीवन तथा समाज में अनर्थ कराएगा ।

तृतीय चरण में धर्म पुरुषार्थ प्राप्ति के प्रयासों के साथ जब हम धर्माधािरत अर्थ पुरुषार्थ की प्राप्ति करते हैं, तो धर्माधारित काम पुरुषार्थ प्राप्ति करना चाहिए, धर्मशास्त्र हमें ऐसा संकेत देते हैं । धर्माधारित अर्थ के दायरे में जब धर्माधारित कामनापूर्ति के प्रयास होते हैं, तो काम तथा कामना नियंत्रित रहती है । अन्यथा धर्मविहीन काम, कामना अनियंत्रित होने से धर्म तथा अर्थ पुरुषार्थ प्राप्ति असंभव हो जाती है ।

तो हमें यह समझ लेना अत्यंत आवश्यक है कि प्रथम चरण में धर्म पुरुषार्थ की नींव डालकर ईश्वर ने हमें अन्य दो पुरुषार्थ – अर्थ तथा काम पुरुषार्थ द्वितीय तथा तृतीय चरण में साध्य करने हेतु गुह्य संकेत दिया है । ये तीन पुरुषार्थ यदि प्राप्त कर सके, तो चौथा पुरुषार्थ जो मोक्ष बताया गया है, वह इन तीनों पुरुषार्थाें के फलस्वरूप प्राप्त होता है ।

ए. अर्थकेंद्रित जीवन की अन्य विशेषताएं

१. अर्थ की प्रधानता होने से धर्म की प्रधानता नहीं होती । ऐसे में धर्मपालन तथा धर्माचरण संभव नहीं होते । धन संपत्ति अर्जन, संग्रह तथा भोगप्रधान जीवन होता है । धन कमाना धर्ममार्ग से नहीं, वाममार्ग तथा अधर्ममार्ग से होता है । ऐसा धन मनुष्य की दैवी संपदा का लय करता है तथा आसुरी संपदा को बढाता है (दैवी संपदा – दिव्यगुण तथा आसुरी संपदा – षड्रिपु, दोष तथा अहंकार) ।

२. धर्म की प्रधानता के अभाव में धर्मसम्मत विधि-निषेध का पालन नहीं होता, तो अधर्म स्वीकार होता है । अशुद्ध तथा पाप कर्म होते हैं । काम, कामना, वासना नियंत्रित नहीं, अनियंत्रित कामना, आसक्ति तथा स्वेच्छाप्रधान जीवन होता है ।

३. जीवन में अर्थप्रधानता के कारण धर्मप्रधानता न रहने से आहार-विहार सात्त्विक अर्थात धर्मपूरक नहीं होता ।

४. धर्मप्रधानता के अभाव में जीवन में कर्म करते समय पाप-पुण्य का विचार न करना तथा धर्म विरोधी स्वच्छंद स्वेच्छा प्रधान कर्म / आचरण करने से पाप के भागी बनना ।

५. धर्माचरण न करने के कारण धर्मद्रोह तो होते ही रहता है, जो जीवन में केवल दुःख बढानेवाला ही नहीं, अपितु वह मानवता से पशुता की ओर लेकर जानेवाला अधोगतिकारक होता है ।

६. धर्मप्रधानता न होनेवाले स्वार्थी व्यक्ति केवल समाज अथवा राष्ट्र ही नहीं, अपितु पारिवार द्रोह भी करते हैं ।

७. मोक्षप्राप्ति : जिसके जीवन में न धर्म, न धर्मसम्मत अर्थ, न धर्मसम्मत काम; अपितु अर्थकेंद्रित जीवन जीनेवाले व्यक्ति को मोक्ष कभी संभव नहीं होता । इस कारण धर्मकेंद्रित जीवन पद्धति ही भारतीय परंपरा तथा सनातन धर्मपरंपरा को जीवित रखकर मनुष्य को अपने मनुष्य जीवन के ध्येय को प्राप्त कराती है ।

(समाप्त)

संकलनकर्ता : (सद्गुरु) डॉ. चारुदत्त पिंगळे, राष्ट्रीय मार्गदर्शक, हिन्दू जनजागृति समिति