पुनरुत्थान पीठ कर्णावती द्वारा लातूर, महाराष्ट्र में ८ से १० जून २०२४ की कालावधि में दो दिवसीय विद्वत गोष्ठी तथा एक दिवसीय विद्वत सभा का आयोजन किया गया है । इस विद्वत गोष्ठी तथा विद्वत सभा में हिन्दू जनजागृति समिति को सहभागी होने का अवसर दिया गया । ‘धर्मकेंद्रित जीवन’ के विषय में विचारमंथन करते समय धर्मकेंद्रित तथा अर्थकेंद्रित जीवन में क्या भेद है ?, उसका तुलनात्मक अध्ययन करेंगे । (भाग १)
टिप्पणी : समय एवं नियोजन के अभाववश यह महत्वपूर्ण विषय प्रस्तुत नहीं कर पाए इस कारण जालस्थल पर अपलोड कर रहे हैं ।
१. मनुष्य जीवन का ध्येय
गुरुदेव डॉ. आठवलेजी ने समाज के सामने सरल भाषा में मनुष्य जन्म का ध्येय रखा है, वे दो स्तरों के हैं ।
अ. सैद्धांतिक अथवा दर्शनशास्त्रानुसार ध्येय
आ. प्रायोगिक ध्येय – जो दर्शनशास्त्रीय ध्येय की प्राप्ति करवाता है ।
जब तक मनुष्य को मनुष्य जीवन प्राप्ति का उद्देश्य अथवा ध्येय के प्रति जागृति नहीं होती, तब तक न तो वह धर्मकेंद्रित जीवन जीता है, न ही वह धर्मपालन तथा धर्मरक्षण का माध्यम बन सकता है । ऐसे हिन्दुओं को उनके हिन्दू होने का अभिमान तो होता है; परंतु समय-समय पर धर्महानि तथा धर्मविरोध हो रहा है, यह उनके ध्यान में नहीं आता ।
२. सैद्धांतिक अथवा दर्शनशास्त्रानुसार ध्येय
पहले सैद्धांतिक अथवा दर्शनशास्त्रानुसार ध्येय को मोक्षप्राप्ति, भग्वद्प्राप्ति, ईश्वरप्राप्ति, आनंदप्राप्ति, ब्रह्मप्राप्ति, आत्मस्वरूप का ज्ञान होना, अंतिम सत्य की प्राप्ति, निर्वाण, आत्मानुभूति आदि अनेक नामों से संबोधित किया जाता है ।
अ. यह संबोधन सगुण अथवा निर्गुण उपासना पर आधारित होता है तथा साधना मार्गानुसार विविध संबोधन किए जाते हैं ।
आ. संबोधन विविध होने पर भी, अनेक होते हुए भी सभी मार्गाें की अनुभूति एक ही होती है तथा प्राप्त अवस्था भी एक ही होती है ।
इ. दर्शनशास्त्र के अनुसार जो मोक्षप्राप्ति का ध्येय है उसके संदर्भ में सैद्धांतिक ज्ञान कितना भी अधिक हो, ध्येयप्राप्ति हेतु वह केवल बीजरूप में कार्य करता है । वह मनुष्य जीवन के ध्येय प्राप्ति हेतु केवल दो प्रतिशत महत्त्वपूर्ण है, परंतु वृक्ष के लिए बीज जीतना महत्त्वपूर्ण होता, यह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है ।
ई. ग्रंथों का वाचन मनुष्य को ईश्वरप्राप्ति, ब्रह्मस्वरूप की प्रािप्त आदि ध्येयप्राप्ति हेतु बुद्धि का निश्चय होने के लिए होता है । एक बार ध्येय निश्चित होने पर अधिक वाचन किए बिना श्री गुरु के मार्गदर्शनानुसार प्रत्यक्ष साधना करना आवश्यक होता है । अन्यथा अधिक वाचन, अधिक शब्द ज्ञान, ये ही महाजाल बनकर साधक को संभ्रमित करते हैं ।
अधिक सैद्धांतिक ज्ञान ही ध्येयप्राप्ति में बाधा बन जाता है । अधिक शब्दज्ञान न तो श्री गुरु पर श्रद्धा निर्माण होने देता है, न किसी एक साधनामार्ग पर टिकने देता है ।
३. साधना
ध्येयप्राप्ति हेतु प्रायोगिक मार्गदर्शन : मनुष्य जीवनप्राप्ति के ध्येय को साध्य करने हेतु विविध साधनामार्ग एवं विविध उपासना बताई गई है । श्री गुरु की छत्रछाया में करनेयोग्य ये सभी प्रायोगिक प्रयास मनुष्य जन्म की ध्येयपूर्ति के साधन होते हैं । ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग, योगमार्ग, ऐसे विविध साधनामार्ग विविध संप्रदायों की विविध संस्थाओं के माध्यम से प्रचलित हैं ।
सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी ने ‘गुरुकृपायोग’ नामक ग्रंथ में वर्तमान काल में अल्पतम समय में मनुष्य को जीवन की ध्येयप्राप्ति का मार्ग उपलब्ध कराया है । इस मार्ग का अध्ययन करें ।
अ. जीवन में उद्देश्यप्राप्ति हेतु साधना के प्रयास युगानुरूप होने चाहिए । कलियुग में नामसाधना ही प्रधान बताई गई है । शीघ्रातिशीघ्र ध्येयप्राप्ति हेतु नामसाधना के द्वारा प्रयास करना अर्थात एक प्रकार से युगानुकूल प्रयास करना है । अन्य साधनामार्ग भी ध्येय की प्राप्ति अवश्य कराते हैं; परंतु युगानुकूल साधना के प्रयास न होने के कारण ध्येयप्राप्ति हेतु अधिक समय लग सकता है ।
आ. साधना धर्मतत्त्व के अनुकूल हो । साधना धर्म को अस्वीकार करनेवाली, धर्मसिद्धांत से संघर्ष करनेवाली न हो । साधनामार्ग मूल धर्म से अलग होकर नया धर्म निर्माण अर्थात माया निर्माण करनेवाली न हो । सभी साधनामार्ग सनातन हिन्दू धर्म परंपरा की विविध शाखाएं हैं तथा सभी का अंतिम ध्येय धर्मरक्षा तथा धर्माचरण के द्वारा धर्मप्राप्ति करना ही होना चाहिए ।
इ. साधना अनेकता से एकता में लानेवाली हो । सभी साधनामार्ग, सभी देवता तथा सभी संप्रदायों में एकता एवं अद्वैतता की अनुभूति देनेवाली हो । सभी साधनामार्ग बाह्यतः अलग लगते हों परंतु एक ही साध्य को प्राप्त कराते हैं, यह बतानेवाला हो । विविध साधनामार्ग तथा विविध गुरुपरंपरा आपस में स्पर्धा, तुलना तथा ईर्ष्या करनेवाले न हों तथा उनके अनुयायी साधक तथा भक्त आदि में भेद निर्माण करनेवाला न हो ।
ई. विविध साधनामार्ग के अष्टांग अथवा विविध अंगों द्वारा साधक का चित्त शुद्ध हो, अहंकार नष्ट हो, साधक दैवी गुणों को आत्मसात करे तथा त्रिगुण रहित होकर मनुष्य जन्म का ध्येय प्राप्त हो, इस प्रकार के प्रायोगिक प्रयास बतानेवाला हो, जो मनुष्य जन्म के ध्येय की प्राप्ति हेतु सभी के लिए आवश्यक है ।
४. धर्मकेंद्रित जीवन के संदर्भ में चिंतन करते समय तथा समस्याओं पर समाधानों का विचार करते समय क्या सावधानी रखें
संत ज्ञानेश्वरजी ने भगवान से प्रार्थना की कि ‘जो जे वांच्छिल तो ते लाहो’, अर्थात ‘व्यक्ति जो चाहता है, वह उसे प्राप्त हो’ । कोई धन, ऐश्वर्य, कामनापूर्ति, प्रसिद्धि पहचान, मान-सम्मान, ज्ञान तथा ब्रह्मस्थिति अथवा भग्वद्प्राप्ति आदि कुछ भी मांग सकता है । हम भी भारतीय समाज तथा सनातन हिन्दू धर्मीय अनुयायी धर्मकेंद्रित जीवन जीने के लिए आवश्यक कृपा तथा मागदर्शन मांगते हैं । धर्मकेंद्रित जीवन के संदर्भ में विविध स्तर के चिंतन का परिणाम समझ लेते हैं ।
अ. धर्मकेंद्रित जीवन हेतु मानसिक तथा भावना के स्तर पर अनुसंधान : यदि कोई मानसिक तथा भावना के स्तर पर अनुसंधान कर धर्मकेंद्रित जीवन हेतु चिंतन-मनन करेगा, तो उसे उस स्तर के समाधान प्राप्त होंगे । ये समाधान समाज की मानसिक तथा भावनात्मक जिज्ञासा का क्षमन तो करेंगे ही; अपितु ईशप्राप्ति तथा मनुष्य जन्म की ध्येयप्राप्ति के लिए वे केवल तात्कालिक उपयोगी सिद्ध होंगे । इस कारण हम सभी को केवल मानसिक तथा भावनात्मक स्तर पर ही चिंतन न करके आध्यात्मिक स्तर पर भी चिंतन कर समाधान ढूंढना होगा ।
उदा. हिन्दू परिवार धर्मशिक्षित नहीं हैं अपितु वे धर्मरक्षा हेतु आंदोलन तथा प्रभात फेरी आदि में आकर धर्मरक्षा हेतु नारे लगा सकते हैं; परंतु त्योहारों का आयोजन हो, मंदिर में दर्शन हो अथवा हिन्दू धर्म का आचरण कर धर्मरक्षा करना । इस संदर्भ में अज्ञानवश उनके हाथों धर्म हानि तथा धर्म विरोध होता है, जिससे वे अपने जीवन के उद्देश्यों को साध्य नहीं कर पाएंगे । इसलिए सभी परिवारों को धर्मशिक्षित कर साधना आरंभ करने हेतु प्रोत्साहित किया जाए, तो हम यह समस्या टाल सकते हैं ।
आ. बौद्धिक अनुसंधान के माध्यम से धर्मकेंद्रित जीवन के उपायों के शोध : समाज में अनेक धर्मनिष्ठ तथा शिक्षित बुद्धिजीवी इतिहास तथा विविध भौगोलिक क्षेत्रों में होनेवाली समकालीन तथा विश्लेषणात्मक दृष्टि से वर्तमान घटनाओं से प्राप्त ज्ञान का आधार लेकर समस्याओं का अध्ययन तथा उपायों का चिंतन करते हैं । यह बहुत आवश्यक तथा उपयोगी है; परंतु इसकी मर्यादाएं भी हैं ।
कालानुरूप इतिहास की समस्याओं के लिए वर्तमान कालानुरूप समाधानों की आवश्यकता होती है । चिंतन तथा समाधान ढूंढने में केवल बौद्धिक पक्ष हो तथा आत्मज्ञानात्मक पक्ष यदि न हो, तो बुद्धि द्वंद्वात्मक हो जाती है । जब तक बुद्धि शुद्ध न हो जाए, विवेक बुद्धि जागृत न हो अर्थात आत्मानुभूति युक्त बुद्धि न हो, तब तक मन तथा समाज सदैव द्वंद्व में ही रहेगा ।
उदा. कर्ण वध के समय अर्जुन बौद्धिक द्वंद्व में थे, तो द्रोणाचार्य के वध के समय धर्मराज युद्धिष्ठिर द्वंद्व में थे । आत्मबुद्धि स्थित भगवान श्रीकृष्ण ही उनका मार्गदर्शन कर पाए कि उस क्षण उस स्थिति में धर्म क्या है तथा उनका कर्तव्य क्या है । अर्थात बौद्धिक अनुसंधान के साथ आत्मिक अनुसंधान भी आवश्यक है ।
इस कारण हम सभी को आत्मज्ञानी महापुरुषों की छत्रछाया में रहना होगा, जो समष्टि कार्य के साथ धर्माधारित राष्ट्र निर्माण के कार्य में लगे हों । धर्मकेंद्रित जीवन पद्धति को समाज में लागू करने हेतु समय-समय पर उनका मार्गदर्शन लेना आवश्यक है ।
इ. आत्मिक अनुसंधान के माध्यम से धर्मकेंद्रित जीवन हेतु मार्गदर्शन लेना – साधना के कारण आंतरिक प्रेरणा से आया ईश्वर अथवा धर्म का ज्ञान कालानुरूप समाज का मार्गदर्शन करता है । इस हेतु हम सभी को श्री गुरु की छत्रछाया में व्यक्तिगत साधना करते हुए निरंतर रहना आवश्यक है, तथा समय-समय पर मार्गदर्शन करनेवाले महानुभावों के चिंतन से दिशा लेनी चाहिए । उदा. स्वामी विवेकानंदजी, योगी अरविंदजी, डॉ. हेडगेवारजी, आचार्य शर्मा जी इत्यादि ।
५. जागृत हिन्दू अथवा जागृत भारतीय किसे कहें ? :
धर्मकेंद्रित जीवन का विचार करना हो, तो धर्म के प्रति जागृत हिन्दू कौन है, हमें इसका शोध करना होगा ।
अ. क्या जो भौतिक नींद से जगा हुआ है वह जागृत हिन्दू है ? : हम देखते हैं, सभी कहते हैं हिन्दू सोया हुआ है । हिन्दुओं को जगाना पडेगा । कोई सोया हुआ तो दिख नहीं रहा है । प्रत्यक्ष में सहस्रों की संख्या में हिन्दू जनसभा में बैठे हैं, शेष अपनी जीविका (नौकरी), व्यावसाय के स्थानों पर कार्यरत हैं; घर में बैठे हैं अथवा काम कर रहे हैं ? तो क्या ये जगे हुए हिन्दू जागृत हिन्दू नहीं हैं ? तो जागृत हिन्दू किसे कहें ?
आ. यदि हिन्दू झूठा सर्वपंथ समभाववादी हो अथवा वामपंथी तथा औपनिवेशक मानसिकता के दास (गुलाम) हों, तो समय आने पर ये धर्म विरोधी तथा राष्ट्र विरोधी भूमिका भी अपना लेते हैं । यह जागृत हिन्दू का लक्षण नहीं; अपितु यह जागृत हिन्दू विरोधी के लक्षण हैं ।
इ. क्या सज्जनता की दृष्टि से जो जागृत हैं वे जागृत हिन्दू हैं ? : कुछ हिन्दू सज्जन हैं, अच्छा जीवन जी रहे हैं; परंतु धर्म की बात आई, तो हम धर्म नहीं मानते हम सर्वधर्म समभाव मानते हैं, ऐसा कहते हैं । भ्रष्टाचार अथवा अन्याय दिखने पर कहते हैं ‘मैं क्या करूं’?
सज्जन समाज की व्यक्तिगत भौतिक महत्त्वाकांक्षा, स्वेच्छा आदि जागृत रहने से राष्ट्र एवं धर्म रक्षा हेतु त्याग तथा संघर्ष करना उनके लिए संभव नहीं होता है । सरकार है, तंत्र है वह इन समस्याओं को देखेगी, ऐसी उनकी मानसिकता रहती है । वे अन्याय का विरोध नहीं करते, अपने साथ कुछ भेदभाव हुआ तो उसका प्रतिकार नहीं करते, अपने कैरियर तथा अपने परिवार का ही भला सोचते हैं । समाज, राष्ट्र अथवा धर्म से अपना कुछ संबंध नहीं मानते । क्या ये जागृत हिन्दू के लक्षण हैं अथवा निद्रित हिन्दू के ? यह तो स्वार्थी तथा धर्म की दृष्टि से निद्रित हिन्दू के ही लक्षण हैं ।
ई. साधना, जागृत कुंडलिनी : धर्मशिक्षित जीव जब श्री गुरु के मार्गदर्शन में साधना करता है, उसकी कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है । अर्थात जब उसके अंदर की दिव्य क्षमताएं जागृत होती हैं, तब वह जागृत हिन्दू कहा जाता है । जागृत हिन्दू को धर्म का ज्ञान होता है, धर्म-अधर्म का ज्ञान होता है । जागृत हिन्दू भ्रष्टाचार, राष्ट्रद्रोह तथा अधर्म आदि के विरुद्ध आंदोलन करने हेतु सहज सिद्ध रहते हैं ।
साधना के बल पर व्यक्तिगत भौतिक महत्त्वाकांक्षा का त्याग करने के कारण, धर्म एवं राष्ट्र रक्षा के कार्य में सहभागी होने में ऐसे जागृत जीव निर्भय होते हैं । इन्हें साधना की पूर्णता तक श्री गुरु के मार्गदर्शन में रहना आवश्यक होता है ।
उ. पूर्णतः जागृत हिन्दू : जाे साधना कर सर्वाेच्च स्थिति के निकट पहुंचे हों अथवा आत्मज्ञानी हों, ऐसे महात्माओं को पूर्णतया जागृत हिन्दू कह सकते हैं । स्वस्वरूप के प्रति जागृत, स्वधर्म के प्रति जागृत तथा समष्टि के स्वरूप तथा क्षमता के प्रति ये निरंतर जागृत रहते हैं । ये उन्नत महात्मा साधक, धर्मनिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ, सज्जन आदि को दिशा देकर समाज में धर्मकेंद्रित जीवन अर्थात एक प्रकार से धर्मसंस्थापना का कार्य अंशतः या पूर्णतः कर रहे होते हैं ।
हिन्दू जनजागरण का यह कार्य मानसिक, बौद्धिक तथा भौतिक स्तर पर हो रहा है; परंतु हमें हिन्दुओं को जागृत करने हेतु उन्हें साधना बताकर, समाज में साधना का प्रसार कर, श्री गुरु का माहात्म्य तथा गुरुपरंपरा पुन:स्थापित कर हिन्दू धर्मियों को जागृत करने का प्रयास करना होगा । धर्मजागृत हिन्दू, आंतरिक दिव्यता तथा दिव्य शक्तियों के प्रति जागृत हिन्दू तथा स्वधर्म, स्वस्वरूप, समाज के स्वरूप से जागृत है । हिन्दुओं की ऐसी पीढियां निर्माण करने तथा संख्या बढने से ही हम भारत को रामराज्य के रूप में स्थापित कर सकते हैं ।
६. धर्मकेंद्रित जीवन हेतु धर्म क्या है, धर्म के विविध अंग क्या हैं, धर्म, पंथ, संप्रदाय आदि सर्व विषय सर्वंकष जानना विद्वानों को आवश्यक है
अ. धर्म : जब हम धर्मकेंद्रित जीवन की बात करते हैं, तो क्या हम मुस्लिम, ईसाई आदि विविध पंथ आधारित जीवन रचना की बात करते हैं ? आज तक भारत की शिक्षा व्यवस्था वामपंथियों तथा आधुनिकतावादियों के हाथों में थी । साथ ही अंग्रेजी भाषा का समर्थन करनेवाले तथा भारतीय अंग्रेजों ने ‘धर्म’ शब्द से संबंधित भ्रांतियां फैलाई हैं । उन भ्रांतियों को अस्वीकार करते हुए भारतीय दर्शन के अनुसार ‘धर्म’ शब्द के विविध अर्थ बताकर हमें धर्मकेंद्रित जीवन की चर्चा करनी होगी ।
हमें धर्मकेंद्रित जीवन अर्थात सनातन हिन्दू वैदिक धर्म के परिपेक्ष्य में धर्माधारित जीवन व्यवस्था अपेक्षित है । जबकि ईसाईयों का रिलिजन अथवा इस्लाम के मजहब आधारित जीवन के विषय में धर्मकेंद्रित जीवन की चर्चा क्यों नहीं हो सकती, समाज को यह भी बताना होगा । इस कारण हमें प्रथम धर्म, रिलिजन अथवा मजहब शब्द के अर्थ, व्याख्या आदि द्वारा समाज को शिक्षित करना आवश्यक है ।
आ. धर्म एवं विविध पंथ का तुलनात्मक अध्ययन कैसे करें : सनातन हिन्दू धर्म की एक व्याख्या है – ‘धृ धारयति इति धर्मः’ । इसका सरल अर्थ है, जो सभी को धारण करता है, जो सभी को मान्यता देता है, स्वयं में समा लेता है वह है धर्म ।
आ १. क्या ईसाई रिलिजन (पंथ), सभी समाज को धारण करता है ? क्या वह अन्य पंथ, धर्म अथवा ईश्वरप्राप्ति के मार्ग को मान्यता देता है ? – उत्तर है नहीं । वह अन्य किसी को भी मान्यता नहीं देता, अपितु उसे धर्म नहीं कहा जा सकता । ऐसा ही इस्लाम मजहब (पंथ) में भी दिखाई देता है । तो उसे भी धर्म नहीं कह सकते, उसे केवल मजहब कह सकते हैं ।
आ २. परंतु सनातन वैदिक हिन्दू परंपरा धर्म है । क्योंकि वह केवल मनुष्य ही नहीं, अपितु प्राणी, वनस्पति तथा पंचभौतिक सृष्टि को भी अपने में समा लेता है । वह अन्य सभी उपासना-पद्धतियों को तथा ईश्वरप्राप्ति के मार्ग को मानता है । इस कारण वह सभी को धारण करने की क्षमता रखता है । इस कारण केवल सनातन वैदिक हिन्दू परंपरा को ही धर्म कहा जा सकता है ।
यह जानने के उपरांत सभी के ध्यान में आएगा कि जब हम धर्मकेंद्रित जीवन की चर्चा करते हैं, तब सनातन हिन्दू धर्माधारित जीवन व्यवस्था की ही बात करते हैं, अन्य पंथ, मजहब तथा रिलिजन आधारित जीवन व्यवस्था की नहीं ।
इ. आद्य शंकराचार्यजी द्वारा की गई धर्म की व्याख्या – जिससे प्राणियों का भौतिक तथा पारलौकिक उत्कर्ष होता है, साथ ही समाजव्यवस्था उत्तम रहती है, उसे धर्म कहा गया है ।
इ १. क्या ईसाई रिलिजन सभी मनुष्य के भौतिक उत्कर्ष की बात करता है ? नहीं, वह केवल ईसाईयों के उत्कर्ष की बात करता है ।
क्या ईसाई सभी के पारलौकिक उत्कर्ष की बात करता है ?, नहीं, केवल ईसाई रिलिजन के लोगों की आध्यात्मिक उन्नति की बात करता है ।
क्या ईसाई रिलिजन उत्तम समाज व्यवस्था निर्माण करने हेतु कटिबद्ध है ? नहीं, अन्य पंथियों को येन-केन प्रकारेण धर्मांतरित कर असंतोष निर्माण करता है ।
जब धर्म के तीनों अंगों के संदर्भ में ईसाईयत विपरीत दृष्टिकोण रखता है, तो इसे रिलिजन कह सकते हैं; पर उसे धर्म नहीं कह सकते । यही वस्तुस्थिति हमें इस्लाम मजहब के संदर्भ में दिखाई देती है ।
इससे स्पष्ट होता है कि वह मजहब हो सकता है; परंतु धर्म नहीं हो सकता ।
इ २. धर्म की अन्य व्याख्याओं के संदर्भ में भी यही दिखता है, जैसे ‘अहिंसा परमो धर्मः’ अथवा धर्म के दस लक्षण इत्यादि । इन व्याख्याओं के साथ ईसाई रिलिजन अथवा इस्लामी मजहब आदि के विचारों से तुलना करने पर ध्यान में आ सकता है कि इसे धर्म नहीं कह सकते ।
इस प्रकार धर्म, मजहब, रिलिजन आदि शब्द तथा उनके तत्त्वज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन हमें पाठ्यक्रम में, व्याख्यानों तथा प्रवचनों के द्वारा समाज के सामने रखना होगा । इससे हिन्दू व्यक्ति ही नहीं, अपितु हिन्दू समाज का धर्म, पंथ, रिलिजन, मजहब आदि शब्दों के संदर्भ में भ्रम दूर होगा तथा इससे वे सक्रिय रूप से धर्मपालन, आचरण, साधना आदि कर धर्म तथा राष्ट्र रक्षा हेतु तत्पर हो सकते हैैं ।
ई. धर्म की अन्य विशेषताएं : धर्म एक प्रकार से वैश्विक नियम है
१. धर्म, जात-पात, भाषा, प्रांत, वंश, वर्ण, देश आदि से निरपेक्ष होता है ।
२. सभी मानवों के लिए तथा प्राणी, वनस्पति तथा पंचमहाभूतात्मक सृष्टि पर समान लागू होता है ।
३. यह अनादि होता है तथा इसकी उत्पत्ति परमात्मा से हुई है ।
४. धर्म अर्थात किसी वस्तु से अलग न होनेवाला गुणधर्म, उदा. जैसे शक्कर का धर्म मिठास है, जो शक्कर से कभी अलग नहीं किया जा सकता, वैसे मनुष्य का धर्म भी मनुष्य से कभी अलग नहीं किया जा सकता । अर्थात मनुष्य का कभी धर्मांतरण नहीं हो सकता ।
५. मनुष्य के उसके परिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय तथा धर्मपरंपरा अनुसार विहित कर्तव्य को भी धर्म कहते हैं, जैसे पुत्र का अपनी मां के साथ कैसा व्यवहार हो, बहन तथा पत्नी से कैसा व्यवहार हो, वह विहित कर्तव्य है । इसमें परिवर्तन नहीं हो सकता । परिवार में मनुष्य का क्या कर्तव्य है, समाज में क्या है, राष्ट्र के प्रति क्या है, धर्म के प्रति क्या है, यह विहित कर्तव्य ही उसका धर्म होता है ।
६. दस धर्मलक्षण : सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, क्षमा (क्रोध पर नियंत्रण), दया, आर्जव, धृति (धैर्य), दम (इंद्रिय निग्रह), अस्तेय (अन्यों की संपत्ति को न चुराना), शौच (मन, वाचा कर्म से शुचिता होना) इत्यादि लक्षण जिस व्यक्ति, समाज अथवा दर्शन में हों, उसे धार्मिक कहते हैं ।
उ. धर्मपालन का फल
उ १. धर्मपालन करने से मनुष्य के मन, बुद्धि तथा कर्म शुद्ध हो जाते हैं तथा उसका परमात्माप्राप्ति का मार्ग सहज सरल हो जाता है ।
उ २. धर्मपालन करने से मिले सुख को सहज स्वीकारना तथा दुःख सहन करने हेतु शक्ति मिलने से व्यक्ति सुख-दुःख से ऊपर उठ जाता है तथा आनंदस्वरूप की प्राप्ति कर लेता है । जिसे ब्रह्मस्वरूप अथवा आत्मस्वरूप की प्राप्ति तथा मोक्ष आदि कहा जाता है ।
७. व्यक्ति के जीवन में धर्म की व्याप्ति समझ लेना आवश्यक
धर्मकेंद्रित जीवन जीने के लिए व्यक्ति को उसके जीवन में धर्म की व्याप्ति क्या है, यह समझ लेना अत्यंत आवश्यक होता है । व्यक्ति तथा परिवार यदि अपना धर्म समझ लेते हैं, तो समष्टि धर्मपरायण होने से रामराज्य का साकार होना सहज संभव हो जाएगा ।
अ. पांच प्रमुख क्षेत्र की धर्म की व्याप्ति जानना
अ १. व्यक्ति का व्यक्तिगत धर्म क्या है ?
अ २. व्यक्ति का उसके परिवार से संबंधित धर्म क्या है ?
अ ३. व्यक्ति का समाज से संबंधित धर्म क्या है ?
अ ४. व्यक्ति का राष्ट्र से संबंधित धर्म क्या है ? तथा
अ ५. व्यक्ति का उसके स्वधर्म के प्रति क्या धर्म होता है ?
मुख्य रूप से ये पांच सूत्र समझ लेना आवश्यक है
आ. व्यक्ति का व्यक्तिगत धर्म
१. मनुष्य को अपने मनुष्य जन्म का उद्देश्य ज्ञात होना अपेक्षित है । मनुष्य जन्म का उद्देश्य पूर्ण करना ही मनुष्य के जीवन का सर्वाेच्च धर्म होता है ।
१ अ. जीवन में आनंदप्राप्ति करना मनुष्य का प्रथम कर्तव्यधर्म है ।
१ आ. प्रारब्ध भोगकर समाप्त करना : साधना के प्रयासों के साथ पूर्वजन्म के कर्मफल जो प्रारब्ध रूप में आए हैं, उन्हें भोगकर समाप्त करना भी मनुष्य जन्म का एक मुख्य उद्देश्य होता है । प्रारब्ध भोगकर समाप्त करने से साधना का फल पूर्णतः ईश्वरप्राप्ति हेतु उपयोग में लिया जाता है । अन्यथा प्रारब्ध को नष्ट करने में अधिक साधना व्यय (खर्च) होती है तथा साधना व्यय होने के कारण बार-बार साधना पहले से आरंभ होती है ।
२. व्यक्ति चार ऋण लेकर जन्म लेता है : देव, ऋषि, पितर, समाज । चारों ऋणों से मुक्ति हेतु व्यष्टि तथा समष्टि साधना आवश्यक होती है । चारों ऋणों से मुक्त होना मनुष्य का धर्म है ।
२ अ. देव ऋण : साधना करने से तथा देवताओं के लिए कर्मकांडीय, उपासनाकांडीय तथा ज्ञानकांडीय यज्ञ करने से देवताओं के ऋण से मुक्ति संभव होती है ।
२ आ. ऋषिऋण : साधना, धर्मशिक्षा लेने से, धर्मशास्त्र का अध्ययन करने से, ईश्वरप्राप्ति तथा ब्रह्मप्राप्ति के लिए प्रयास करने से ऋषि ऋण से मुक्ति मिलना संभव होता है ।
२ इ. पितृऋण : श्राद्ध-तर्पण, त्रिपिंडी श्राद्ध, नागबलि-नारायणबलि, तथा भगवान दत्तात्रेय की उपासना, नामजप आदि से पितृऋण से मुक्ति संभव होती है ।
२ ई. समाज ऋण : समष्टि साधना करने से, समष्टि को साधना बताकर, समष्टि के लिए धर्मशिक्षा उपलब्ध कराकर तथा समाज में भगवान को देखकर (जनता में जनार्दन, नारायण को जानकर) समाज सहायता करने से समाज ऋण से मुक्ति मिलती है ।
३. प्रत्येक हिन्दू को व्यक्ति के संदर्भ में, समष्टि के संदर्भ में स्वधर्म, परधर्म, आपद्धर्म आदि का अध्ययन होना आवश्यक है ।
४. हिन्दू धर्मियों को जन्मतः जो चार पुरुषार्थ करने हेतु धर्मआज्ञा मिली है, वह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष से संबंधित पुरुषार्थ करना भी व्यक्ति का धर्म ही होता है । ऐसे प्रत्येक हिन्दू व्यक्ति को अपना व्यक्तिगत धर्म, कर्तव्य ज्ञात रहे, उसका धर्माचरण हो, धर्मपालन हो, तो समाज जागृत रहता है तथा रामराज्य का निर्माण होना संभव है ।
इ. व्यक्ति का परिवार से संबंधित धर्म : परिवार में नातों का (कर्तव्यधर्म का) वहन करना; परिवार के गोत्र, कुल परंपरा, रूढि परंपरा आदि का वहन करना; धर्मसंस्कार करना, जैसे १६ संस्कार तथा व्यक्तिगत, पारिवारिक तथा समाजिक स्तर पर त्योहार, व्रत आदि का वहन करना; चार ऋण, चार आश्रम, चार पुरुषार्थ, वर्णाश्रम आदि धर्मपरंपराओं का सम्यक आचरण तथा रक्षा करना; मृत्यु पश्चात जीवन, पुनर्जन्म, कर्मफल सिद्धांत आदि समझकर संबंधित सभी आचारधर्म का पालन करना इत्यादि परिवार के स्तर पर व्यक्ति का धर्मपालन अपेक्षित है ।
ई. समाज से संबंधित व्यक्ति का धर्म क्या है ? : हमने पहले देखा कि मनुष्य समाजऋण लेकर ही जन्म लेता है । समाजऋण से मुक्त होने हेतु हमें क्या-क्या करना है, संक्षेप में हमने वह भी देखा है ।
ई १. सनातन हिन्दू धर्मपरंपरा व्यक्ति का अलग अस्तित्व नहीं देखता है । वह एक विराट समष्टि के एक छोटे से व्यष्टि अंग होने की बात करता है । वैसे ही परिवार भी विराट समष्टि का एक छोटा सा समष्टि अंग है, यह समझ लेना आवश्यक है ।
ई २. समष्टि का एक छोटा घटक : व्यक्ति अकेला कभी जीवन नहीं जी सकता । उसका समाज के अन्य मनुष्य, प्राणी, वनस्पति से लेकर नदी, पहाड, वायु, सूरज, भूमाता आदि पंचमहाभूतात्मक सृष्टि से परावलंबन होता है । प्रत्यक्ष में मनुष्य का जीवन समष्टि के साथ परस्परावलंबी होता है ।
अन्न, वायु, जल, फल, फूल, भोजन, घर, वाहन, यंत्र, औषधि, अन्य उत्पादन आदि सभी के माध्यम से वह अन्य व्यक्ति तथा प्रकृति पर निर्भर होता है । इस कारण मनुष्य जीवन परस्परावलंबी सहजीवन होता है ।
ई ३. समाज-व्यवस्था : समाज-व्यवस्था को उत्तम रखना है, तो व्यक्ति तथा परिवार को समाजऋण को समझकर समाज के प्रति अपने दायित्व का वहन करना आवश्यक है । दायित्व वहन करते समय समाज सुव्यवस्थित रहे, आनंदित रहे, समाज में शांति रहे, सहजीवन रहे, सभी की उत्कर्षात्मक स्थिति रहे, इनकी आपूर्ति के लिए प्रयास करना आवश्यक है ।
साथ ही असामाजिक कार्य करनेवाले, अपराध करनेवाले, समाज की शांति भंग करनेवाले, आततायी तथा समाजद्रोही लोगों के प्रति असहिष्णु होकर उन्हें राज्यव्यवस्था द्वारा दंडित करने हेतु निरंतर प्रयासरत रहना आवश्यक है । समाज को भंग कर जो तथाकथित दर्शन, विचार, पंथ की सीख (विभाजित कर) अशांति तथा अव्यवस्था निर्माण होता है, उनपर उचित कार्यवाही हेतु निरंतर व्यक्ति तथा परिवार के प्रयत्नशील रहने से समाजव्यवस्था उत्तम रहती है । पाठ्यक्रमों द्वारा, साहित्य द्वारा तथा सरकारी नियमों द्वारा ऐसी शिक्षा स्थापित करना आवश्यक है । मंदिर व्यवस्था, गुरुकुल, कुल-पुरोहित व्यवस्था, इन सभी धर्मतत्त्वों की शिक्षा देने हेतु सक्षम करना अपेक्षित है ।
उ. व्यक्ति का राष्ट्र से संबंधित धर्म
उ १. ‘राजधर्म’ धर्म का सबसे बडा तथा सबसे सबल अंग है । राजधर्म से आश्रित राज्य राष्ट्र तथा धर्म की रक्षा करे, अर्थात धर्म, परंपरा, संस्कृति, इतिहास की रक्षा के साथ न्यायव्यवस्था, प्रशासन, पुलिस तथा सैन्य शक्ति के माध्यम से अंतर्गत तथा बाह्य शत्रु से नागरिक तथा राष्ट्र राष्ट्रीय संपत्ति की रक्षा करे । ऐसा करनेवाले राजा-प्रजा धर्मपालन करनेवाले होते हैं ।
उ २. प्रशासन, पुलिस, न्यायव्यवस्था धर्मानुकूल हो तथा नागरिक धर्मपरायण, कर्तव्यदक्ष हो, ऐसी व्यवस्था निर्माण करनेवाला राजधर्म-पालक राजा चुनें तथा ऐसा न करनेवाले राजा को सत्ता से हटाएं, यह व्यक्ति तथा परिवार का कर्तव्य अर्थात धर्म होता है ।
उ ३. धर्मबल से अंकित होता है तथा बलसंपन्न व्यक्ति, परिवार, समाज अथवा राष्ट्र ही अपने धर्म की रक्षा करने में सक्षम होते हैं । राष्ट्र आध्यात्मिक बल के साथ सामरिक तथा सैन्य शक्ति से संपन्न हो, इसलिए राज्यकर्ता, प्रशासनकर्ता तथा सर्वसामान्य नागरिकों का प्रयास करना आवश्यक है ।
उ ४. बलहीन व्यक्ति अथवा परिवार, न अपनी रक्षा कर सकता है न अपने परिवार की; न अपने धर्म का पालन कर सकता है, न अपने धर्म की रक्षा कर सकता है । इस कारण व्यक्ति, परिवार आदि को निरंतर धर्मरक्षा हेतु मित्रसंग्रह, जनसंग्रह तथा संगठनात्मक शक्ति के माध्यम से कार्यरत रहना आवश्यक है । इसी के साथ अपना राज्य धर्म, सैन्य, न्याय, प्रशासनिक, शैक्षिक, खेलकूद आदि सभी उपक्षेत्रों में शक्तिशाली बनना भी आवश्यक है ।
ऊ. स्वधर्म के प्रति व्यक्ति का क्या कर्तव्य होता है ? : ऊपर बताए तथा बताना संभव न हुए, धर्म के ऐसे सभी अंगों का ज्ञान होना ही व्यक्ति का धर्म के प्रति अपना धर्म अर्थात कर्तव्य क्या होता है, वह स्पष्ट होता है ।
(क्रमशः)
संकलनकर्ता : (सद्गुरु) डॉ. चारुदत्त पिंगळे, राष्ट्रीय मार्गदर्शक, हिन्दू जनजागृति समिति
(इस लेख का दुसरा भाग पढने के लिए : https://sanatanprabhat.org/hindi/100006.html )