सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी द्वारा वर्ष २००२ से अध्यात्मप्रसार करने की अपेक्षा हिन्दू राष्ट्र के लिए कार्य करने के लिए प्रधानता देने का कारण !

साधकों को व्यष्टि साधना करते समय ‘मेरी आध्यात्मिक उन्नति हो रही है या नहीं ?’, इस विचार में संलिप्त होने की अपेक्षा यह विचार करना चाहिए कि ‘क्या मैं समष्टि साधना के लिए अधिकाधिक प्रयास कर रहा हूं न ?’

साधको, साधना के आनंद की तुलना किसी भी बाह्य सुख से नहीं हो सकती, इसलिए साधना के प्रयत्न लगन से करें एवं खरा आनंद अनुभव करें !

साधकों के मन में माया के विचारों की तीव्रता एवं बारंबारता अधिक हो, तो वे इसके लिए स्वसूचना लें । अनिष्ट शक्तियों के कष्ट के कारण ऐसे विचार बढने पर नामजपादि आध्यात्मिक उपचार बढाएं ।

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के ओजस्वी विचार

हिन्दू युवतियों को प्रेमजाल में फंसाकर उनसे विवाह करनेवाले धर्मांधों को पाप लगता है । वह उन्हें भोगना ही पडता है ।

‘साधना में टिके रहना’ ही साधना की परीक्षा है !

‘साधना में टिके रहना ही साधका की परीक्षा है’, इसे गंभीरतापूर्वक समझकर साधकों को ऐसे विचारों पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है । इस संदर्भ में निम्नांकित कुछ दृष्टिकोण उपयोगाी सिद्ध होंगे ।