‘मनुष्य के अतिरिक्त कोई भी प्राणी अथवा वनस्पति अवकाश (छुट्टी) नहीं लेता । केवल मनुष्य ही शनिवार एवं रविवार को छुट्टी लेता है । इतना ही नहीं, अपितु वर्ष में भी कुछ दिन अधिकार (हक) से छुट्टी लेता है । ऐसे में ‘इस संदर्भ में मनुष्य श्रेष्ठ है अथवा प्राणी एवं वनस्पति ?’ – सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवले |
‘सेवा करते समय अकस्मात कुछ साधकों के मन में ‘अब कुछ दिन सेवा से अवकाश (ब्रेक) लेंगे, कहीं बाहर घूमने जाएंगे’, ऐसे माया के विचार आते हैं । ये विचार उनकी प्रकृति अनुसार आते हैं अथवा साधना की अडचनें न सुलझा पाना, तनाव आना, कोई बात मन के अनुसार न होने पर उसे स्वीकार न पाना इत्यादि कारणों से भी आते हैं । स्वभावदोष एवं अहं के इन पहलुओं के कारण साधक साधना के प्रयत्नों का आनंद नहीं ले पाते । कभी-कभी अनिष्ट शक्तियों के कष्टों के कारण भी साधकों के मन के विचारों की तीव्रता बढती है ।
ऐसे प्रसंग में सेवा से छुट्टी लेकर तत्कालीन सुखप्राप्ति का विचार करने के स्थान पर साधकों को व्यष्टि एवं समष्टि स्तर की अडचनें दूर करने के प्रयत्न करने चाहिए । साधना की अडचनें सुलझ जाने पर, साधकों के प्रयत्न नियमित होने लगते हैं एवं उनकी सात्त्विकता बढने लगती है । इससे रज-तम अल्प होने से उनके मन में बाह्य आकर्षण के विचार भी दूर होने लगते हैं । इस प्रकार साधक साधना का आनंद अनुभव करने लगते हैं । किसी भी बाह्य सुख से इस आनंद की तुलना नहीं हो सकती । इसलिए साधना के प्रयत्न नियमित होने के लिए साधकों को लगन से प्रयत्न करने चाहिए । इसके लिए उन्हें उत्तरदायी साधकों की सहायता भी लेनी चाहिए ।
साधकों के मन में माया के विचारों की तीव्रता एवं बारंबारता अधिक हो, तो वे इसके लिए स्वसूचना लें । अनिष्ट शक्तियों के कष्ट के कारण ऐसे विचार बढने पर नामजपादि आध्यात्मिक उपचार बढाएं । साधको, माया की बातों से मिलनेवाले क्षणिक सुख की अपेक्षा सेवा का आनंद अनंत गुना श्रेष्ठ होने से स्वयं को गुरुसेवा में समर्पित करें !
– श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा नीलेश सिंगबाळजी, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२८.२.२०२३)
साधको, मन में आनेवाले अहंयुक्त विचारों के कारण साधना की हो रही हानि को देखते हुए उसे दूर करने के लिए अंतर्मुखता से कठोर प्रयास करें !
‘कुछ साधकों को लगता है, ‘उत्तरदायी साधक, अच्छी साधना करनेवाले, तथा दायित्व लेकर सेवा करनेवाले साधकों से ही प्रेम से एवं सहजता से बात करते हैं । वे मुझसे बात नहीं करते ।’ यदि ‘उत्तरदायी साधकों को प्रेम से एवं सहजता से बोलना चाहिए’, इस अपेक्षा की पूर्ति न हुई, तो साधकों पर ‘मन नकारात्मक बनना, पूर्वाग्रह का निर्माण होकर मन का संघर्ष होना, बहिर्मुखता बढना’ इत्यादि परिणाम ध्यान में आए हैं ।
साधना में आनेवाली अडचनें दूर करने के लिए अंतर्मुख होकर उत्तरदायी साधकों की सहायता लेने से आध्यात्मिक प्रगति द्रुत गति से होती है । ‘उत्तरदायी साधकों के माध्यम से गुरुतत्त्व ही अपनी साधना के लिए आवश्यक दिशा प्रदान करता है’, इसकी प्रतीति होनेके लिए स्वयं उत्तरदायी साधकों से मन खोलकर बात करना, तथा स्वभावदोष एवं अहं-निर्मूलन के लिए स्वयं की चूकें बताकर उस विषय में उनका मार्गदर्शन लेना आवश्यक है । अध्यात्म में व्यक्ति का महत्त्व नहीं होता, अपितु उस माध्यम से कार्य करनेवाले ईश्वर की अनुभूति लेने का महत्त्व है ।
साधकों के मन में उपरोक्त प्रकार के अपेक्षा के विचार यदि बारंबार आते हों, तो उन्हें उस विषय में स्वसूचना देकर कृत्य एवं भाव के स्तर पर प्रयास करने चाहिए ।’
– श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा नीलेश सिंगबाळजी, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१.३.२०२३)