‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम १९९१’ एवं काशी-मथुरा मुक्ति आंदोलन !

१. हिन्दुओं की आवाज दबानेवाला ‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम १९९१’ !

सर्वप्रथम हम ‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम १९९१’ (प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991) कानून के पहलू तथा उसे लाने के कारण समझ लेने चाहिए । यह कानून असंवैधानिक है । यह कानून तत्कालीन प्रधानमंत्री तथा कांग्रेस नेता नरसिम्हा राव की सरकार द्वारा लाया गया था । इस कानून में समाहित भाग-४ इस कानून का सबसे बडा असंवैधानिक प्रावधान है, जो हिन्दुओं की आवाज दबानेवाला है । अनुच्छेद ४ उपअनुच्छेद (१) में ऐसा प्रावधान है कि १५ अगस्त १९४७ को धार्मिक स्थल का जो स्वरूप था, आगे वह वैसे ही रहेगा । उसे रूपांतरित करने अथवा उसे पुनः अपने नियंत्रण में लेने हेतु न्यायालय में अभियोग प्रविष्ट नहीं किया जा सकता, वामपंथियों, जिहादियों तथा धर्मनिरपेक्ष मानसिकता रखनेवालों को भी ऐसा ही लगता है । ये लोग यह भूल जाते हैं कि हम न्यायालय में अभियोग प्रविष्ट नहीं कर सकते तथा यदि कोई अभियोग पहले से ही लंबित हो; चाहे उसे चुनौती दी गई हो अथवा पुनरावृत्ति हो; वह इस कानून से तुरंत समाप्त हो जाएगा अथवा उसे निष्क्रिय कर दिया जाएगा ।

अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन

इससे केवल श्रीराम मंदिर का अभियोग हटाया गया है अर्थात राममंदिर अभियोग को इस अधिनियम से छूट दी गई । ‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम’ में न्यायालय जाने का अधिकार छीन लिया गया है । आप सभी ने विभिन्न समाचार वाहिनियों पर इस विषय में चर्चा सुनी होगी । बहुत बडे-बडे अधिवक्ताओं ने कहा कि इस अधिनियम को राम जन्मभूमि के निर्णय में स्वीकार किया गया है । इस देश की धर्मनिरपेक्षता को अभिन्न अंग माना गया है, साथ ही संविधान का मूलभूत आधार भी माना गया है । (Basic feature of basic structure of the constitution.)

२. हिन्दुओं को न्यायालय जाने से रोकनेवाली संवैधानिक वैधता को सर्वाेच्च न्यायालय में चुनौती

हमने जब इस विषय में अध्ययन किया, तब यह ध्यान में आया कि न्यायालय जाने का अधिकार संविधान में दिया गया मूलभूत आधार तथा नींव है । जो लोग मूलभूत आधार के सैद्धांतिक अंग पर तथा धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर विश्वास करते हैं, उन्हें सर्वाेच्च न्यायालय के इस निर्णय को ठीक से पढना आवश्यक है । ‘एल. चंद्र कुमार विरुद्ध भारत सरकार १९९७’ के अभियोग के ७० वें अभिलेख के ७८ परिच्छेदों में स्पष्ट लिखा गया है, ‘न्यायालय जाने का अधिकार तथा किसी भी बात को न्यायालय की ओर से सुनिश्चित करने का (‘युडीसियर रिव्यू’ का) अधिकार मूलभूत आधार का भी मूल मौलिक आधार है ।’ ‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम’ के कारण इस देश के हिन्दुओं का न्यायालय जाने का अधिकार छीन लिया गया है । उसके कारण उक्त अभियोग के संदर्भाें को ध्यान में लेकर हमने उसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती दी है । यह प्रकरण माननीय सर्वाेच्च न्यायालय के सामने विचाराधीन है । इस विषय में अन्य अनेक याचिकाएं भी सर्वाेच्च न्यायालय के सामने आई हैं । यह एक काला कानून है तथा केंद्र सरकार उसे तुरंत रद्द करे, इसके लिए प्रयास चल रहे हैं ।

३. ‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम १९९१’ के कारण काशी एवं मथुरा के अभियोग प्रलंबित

‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम १९९१’ के कानून के कारण न्यायालय में अभियोग लंबित रखने के संदर्भ में दो पहलू हैं; जो इस देश की धर्मनिरपेक्षता पर विश्वास करते हैं, उन्होंने कभी ‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम १९९१ की उपधारा ३’ का पालन करने हेतु अनुकरण करने का प्रयास ही नहीं किया । इस कानून की उपधारा ३ के अनुसार यह कानून बनाए जाने के उपरांत १५ अगस्त १९४७ से किसी भी धार्मिक स्थल का दूसरे धार्मिक स्थल में रूपांतरण नहीं कर सकेगा । इस पर मेरा सामान्य प्रश्न यह है कि कश्मीर में सहस्रों मंदिर गिराए गए, क्या उसमें इस कानून की उपधारा ३ का पालन कर उन मंदिरों की पुनर्स्थापना की जाएगी ?’ धर्मनिरपेक्षता का ढिंढोरा पीटनेवाले इस विषय में मुंंह से एक शब्द भी नहीं निकालते ।

४. ‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम १९९१’ की समस्या का समाधान कैसे निकाला जाएगा ?

‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम १९९१’ के कानून के अनुसार क्या इससे श्रीराम मंदिर को हटा दिया गया है ? अथवा क्या इस कानून से श्रीराम मंदिर को छूट दी गई है ? क्योंकि उस समय श्रीराम मंदिर का आंदोलन एक चरम सीमा पर पहुंच गया था । उस समय हिन्दू श्रीराम मंदिर के अधिकार के लिए जागृत हुए थे, इसे ध्यान में लेकर तत्कालीन सरकार ने श्रीराम मंदिर को छूट दी । यदि श्रीराम मंदिर को छूट दी गई, उस प्रकार ४० सहस्र मंदिरों को छूट क्यों नहीं दी जा सकती ? इसके लिए हिन्दुओं को संगठित होकर इस काले कानून को रद्द करने के लिए केंद्र सरकार से मांग करनी पडेगी ।

जब तक ‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) १९९१ अधिनियम’ को न्यायालय अथवा सरकार असंवैधानिक घोषित नहीं करतीं, तब तक हमारे सामने समस्या है । हमने इस समस्या का समाधान ढूंढने के विषय में बहुत अध्ययन किया । हमारे जांच-समूह के पू. (अधिवक्ता) हरि शंकरजी जैनजी तथा हमने मिलकर एक न्यायिक व्याख्या निकाली । हमने इसी दृष्टिकोण से काशी एवं मथुरा के अभियोग भी न्यायालय में प्रविष्ट किए हैं । इन दोनों अभियोगों में जो आगे आनेवाले हैं अथवा जो हो चुके हैं; उन सभी अभियोगों में समाहित विवादित स्थल का धार्मिक स्वरूप सुनिश्चित होना अत्यंत आवश्यक है । जब यह धार्मिक स्वरूप निश्चित होगा, तभी जाकर वहां कौनसा मंदिर था अथवा कौनसी मस्जिद थी, यह स्पष्ट हो जाएगा । उदा. यदि मैंने किसी मंदिर में जाकर वहां मूर्ति रखी, तो क्या उस मस्जिद का धार्मिक स्वरूप बदल जाएगा ? मेरे विचार में ऐसा करने से उस मस्जिद का धार्मिक स्वरूप बदल नहीं सकता ! इसके विपरीत यदि किसी ने किसी मंदिर में जाकर नमाज पढी अथवा क्रॉस का चिह्न लगाया, तो क्या उस मंदिर का धार्मिक स्वरूप बदल जाएगा ? तो उसका भी उत्तर ‘नहीं’ ही है । उसके कारण ‘हिन्दू कानून’ अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, जिसे सर्वाेच्च न्यायालय ने श्रीराम मंदिर के अभियोग में अत्यंत व्यापक रूप में संभाला है ।

‘हिन्दू कानून’ में समाहित परिच्छेद ११६ एवं ११७ में सर्वाेच्च न्यायालय ने एक बात बताई कि किसी स्थान पर मंदिर बनाने का संकल्प लिया गया हो, (जो यजमान उसे मंदिर बनाने का संकल्प लेते हैं) वहां ऐसा हो सकता है कि भूकंप, बाढ अथवा किसी आक्रमण के कारण वह मंदिर नष्ट हुआ, तब भी उस मंदिर को बनाने का संकल्प अमर एवं अक्षय होता है अर्थात वह उसकी वैधानिक बद्धता सिद्ध होती है । ‘हिन्दू कानून’ में यह बहुत स्पष्ट है । विधि विशेषज्ञ बी.के. मुखर्जी के अनुसार यदि देवता की कोई संपत्ति निश्चित की जाती है, तो अंत तक वह उस देवता की ही रहती है । मुस्लिम कानून भी यही कहता है कि कोई संपत्ति वक्फ की होती है, तो वह शाश्वत रूप से वक्फ की ही रहेगी अर्थात वह सदैव वक्फ की ही रहेगी । तो ऐसी स्थिति में इस संपूर्ण विवाद का समाधान कैसे निकालना है ? इस संपूर्ण विवाद पर निर्णय करने का एक ही उपाय है । हमें यह सुनिश्चित करना पडेगा कि समय से पहले कौन था ? प्रथम वह संपत्ति किसकी थी ? उस संपत्ति का मूल स्वामी कौन था ? तथा उसके उपरांत उसपर किसने नियंत्रण स्थापित किया ? इसी पृष्ठभूमि पर तथा इसी विचार से इन सभी अभियोगों में सर्वेक्षण की मांग की जाती है ।

५. ‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) १९९१ अधिनियम’ के कारण काशी विश्वनाथ अभियोग ३१ वर्षाें से लंबित

‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) १९९१ अधिनियम’ के कारण हिन्दू समाज को भीषण कष्ट सहन करना पडा है । ‘काशी विश्वनाथ मंदिर का अभियोग’ उसका एक जीवंत उदाहरण है । सर्वप्रथम वर्ष १९९१ में काशी विश्वनाथ के विषय में दिवानी अभियोग प्रविष्ट किया गया था । उस समय उसपर मुस्लिम समुदाय ने यह आपत्ति दर्शाई थी कि यह अभियोग ‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) १९९१ अधिनियम’ ने निषिद्ध प्रमाणित किया है । उसके उपरांत दिवानी न्यायाधीश ने निर्णय दिया, ‘यह अभियोग अस्वीकार किया जाता है ।’ उसके विरुद्ध हिन्दू समाज के लोग वाराणसी जिला न्यायालय तथा उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय गए । जिला न्यायाधीश ने बताया, ‘प्रमाण के रूप में धार्मिक स्वरूप निश्चित करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । धार्मिक स्वरूप जब निश्चित होगा, उस समय वहां हिन्दू मंदिर था या मस्जिद थी ?, यह समझ में आएगा । वर्ष १९९७ में उसके विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय में पुनरावृत्ति का अभियोग प्रविष्ट किया गया । तब से लेकर आज तक उस पुनरावृत्ति का अभियोग इलाहाबाद उच्च न्यायालय में लंबित था ।

६. ‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) १९९१ अधिनियम’ को ‘वक्फ कानून’ की सहायता !

तत्कालीन कांग्रेस की सरकार वर्ष १९९१ में ‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) १९९१ अधिनियम’ लेकर आई तथा वर्ष १९९५ में ‘वक्फ कानून’ लेकर आई । ‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) १९९१ अधिनियम’ में हिन्दुओं को न्यायालय जाने का अधिकार छीन लिया गया है तथा क्या यह अभियोग चलाया जा सकता है या नहीं ?, इसी बात पर विवाद चल रहा है । दूसरी ओर ‘वक्फ कानून १९९५’ लाया गया । यह मुगल काल का कानून है । मान लीजिए कि वक्फ बोर्ड ने मेरी संपत्ति को ‘वक्फ संपत्ति’ घोषित किया तथा मेरा एक न्यास अथवा किसी विशेष उद्देश्य से स्थापित की गई संस्था है, तो वक्फ बोर्ड मुझे भी ‘नोटिस’ दे सकता है कि ‘आपकी संपत्ति को वक्फ संपत्ति घोषित की गई है ।’ वक्फ बोर्ड यह ‘नोटिस’ निबंधक (रजिस्ट्रार) या ‘रजिस्ट्रार ऑफ ट्रस्ट’ को देगा, जहां मेरी संस्था अथवा न्यास (ट्रस्ट) पंजीकृत है । वहां प्रतिदिन सहस्रों आवेदन आते हैं, जो कूडेदान में फेंक दिए जाते हैं । उसके कारण इस नोटिस की जानकारी मुझ तक पहुंचेगी या नहीं ?, इस पर संदेह है । उसके परिणामस्वरूप आपकी संपत्ति ‘वक्फ संपत्ति’ के रूप में घोषित होगी तथा आपको उसकी जानकारी भी नहीं होगी । यदि आपको जानकारी मिल भी गई, तब भी हमें उसे ‘वक्फ प्राधिकरण’ में चुनौती देनी पडेगी । वहां दिवानी न्यायालय का अधिकारी नहीं होता, अपितु एक इस्लामिक कानून का जानकार होगा । इसमें दिवानी न्यायालय हस्तक्षेप नहीं कर सकता । हमें यदि ‘वक्फ प्राधिकरण’ का आदेश मान्य नहीं होगा, तो हम उच्च न्यायालय या सर्वाेच्च न्यायालय जा सकते हैं । ‘वक्फ कानून’ बनाने के कारण आज उन्होंने यदि किसी मंदिर की संपत्ति हाथ में ली, तो हमें उसे वापस लेने के लिए दिवानी अभियोग प्रविष्ट करना पडेगा । उसके लिए दिवानी न्यायालय में लंबी लडाई लडनी पडेगी; परंतु किसी ने वक्फ की संपत्ति पर अतिक्रमण किया, तो वक्फ बोर्ड को दिवानी अभियोग प्रविष्ट नहीं करना पडेगा । उन्हें जिला प्रशासन को इसका ध्यान दिलाना पडेगा कि वे उनकी संपत्ति पर किए गए इस अतिक्रमण को हटा दें । उसके उपरांत प्रशासन उस अतिक्रमण को हटाए जाने की जानकारी वक्फ बोर्ड को देगा । वक्फ बोर्ड के सदस्य एवं व्यवस्थापक, इन सभी को सरकारी अधिकारी की श्रेणी में लाया गया है ।

क्या किसी भी महान पुरोहित, पुजारी, शंकराचार्य एवं मठाधीश को इस प्रकार से सरकारी अधिकारी की श्रेणी में लाया गया है ? क्या हिन्दुस्थान में किसी भी कानून में किसी को ऐसी श्रेणी में लाया गया है ? उसके साथ ही उन्हें सभी मर्यादाओं से मुक्त रखा गया है कि वे जब चाहें, तब न्यायालय में अपना पक्ष रख सकते हैं । ‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) १९९१ अधिनियम’ को सदैव वक्फ कानून के साथ तुलना कर देखा जाना चाहिए, तब इस देश की घृणास्पद धर्मनिरपेक्षता हमारे सामने उजागर होगी ।

७. जैन पिता-पुत्र को काशी विश्वनाथ अभियोग से हटाने का षड्यंत्र

कुछ दिन पूर्व एक समाचार आया था कि मुझे व मेरे पिता को इस अभियोग से हटा दिया गया है । यह एक बडे षड्यंत्र का भाग था । जब मैं व मेरे पिता न्यायालय में कोई अभियोग प्रविष्ट करते हैं,  तब हमारी एक शर्त होती है कि, ‘हमने अभियोग प्रविष्ट किया, तो हम उसे वापस नहीं लेंगे तथा कोई समझौता भी नहीं करेंगे ।’ ५ याचिकाकर्ताओं में से एक याचिकाकर्ता ने इस अभियोग को वापस लेने की इच्छा व्यक्त की थी तथा अन्य याचिकाकर्ताओं पर भी इसके लिए दबाव डाला गया था । वे अधिकार-पत्र (पॉवर ऑफ एटर्नी) देकर अभियोग वापस लें, ऐसा कहा गया था । उस समय मैंने व मेरे पिता ने कहा, ‘‘हमें चाहे अपने प्राण भी त्यागने पडें; परंतु हम यह अभियोग वापस नहीं लेने देंगे ।’’ शेष जो ४ महिला याचिकाकर्त्रियां थीं, उन्होंने भी स्पष्टता से यह कहा, ‘भैया, इसमें हम सभी आपके साथ हैं । हमें विष भी खाना पडे, तब भी हम यह अभियोग कभी वापस नहीं लेंगे ।’ उसके उपरांत यह षड्यंत्र विफल हुआ । ज्ञानवापी का अभियोग केवल इन ५ महिला याचिकाकर्त्रियों का अभियोग नहीं है, अपितु वह लोगों की श्रद्धा एवं भावनाओं से जुडा हुआ है । इस पर प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है तथा उसे जानने का पूरा अधिकार है । मैं आशा करता हूं कि आनेवाले समय में आपको काशी के अभियोग में महत्त्वपूर्ण प्रगति देखने को मिलेगी ।

८. श्रीकृष्ण जन्मभूमि प्रकरण का निर्णय हिन्दुओं के पक्ष में

मथुरा श्रीकृष्ण जन्मभूमि का भ्रष्टाचार हमने उजागर किया । उसका संदर्भ लेकर हमने अभियोग प्रविष्ट किया था । माननीय दिवानी न्यायाधीश ने यह देखा कि यह अभियोग आगे नहीं बढ सकता; क्योंकि किसी हिन्दू देवता पर अभियोग प्रविष्ट करने का अधिकार नहीं है । इसके विरुद्ध हम जिला न्यायालय चले गए । वहां हमने सर्वाेच्च न्यायालय का निर्णय दिखाया । श्रीराम मंदिर अभियोग में हिन्दू देवता को न्यायिक अस्तित्व माना गया है । वहां अभियोग प्रविष्ट करने का उनका अधिकार स्वीकार किया गया है । उसकी सुनवाई हेतु हम ३५ बार न्यायालय गए थे । आज उसकी सफलता यह है कि श्रीकृष्ण जन्मभूमि प्रकरण में जिला न्यायाधीश ने हमारे पक्ष में निर्णय दिया है । इस सूत्र के आधार पर हमने बताया, ‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) १९९१ अधिनियम’ यहां लागू नहीं किया जा सकता । काशी एवं मथुरा, ये दोनों अभियोग न्यायालय के पटल पर हैं तथा वहां वे आगे चलाए जा रहे हैं । हम ये सभी अभियोग जीतनेवाले हैं । इन सभी अभियोगों में आध्यात्मिक सफलता मिले तथा संपूर्ण हिन्दू समाज को उसका लाभ मिले, संतों एवं ईश्वर के चरणों में मेरी यही प्रार्थना है ।’

– अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन, सर्वाेच्च न्यायालय, देहली.


काशी एवं मथुरा, इन अभियोगों की सफलता के पीछे सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी एवं ईश्वर के कृपाशीर्वाद !

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी

काशी विश्वनाथ एवं मथुरा के अभियोगों में ‘पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) १९९१ अधिनियम’ का सूत्र है । धार्मिक चरित्र (Religious character) हम सुनिश्चित करेंगे तथा इसी पृष्ठभूमि पर हमने वहां की स्थानीय पडताल की थी । इसके संदर्भ में एक अनुभूति है । येन-केन प्रकारेण यह अधिवक्ता आयोग (कमिशन) करने देने के लिए एक बहुत बडा षड्यंत्र रचा गया था; परंतु परात्पर गुरुदेवजी की कृपा से ही हम इस आयोग में सफल हो सके । माता शृंगार गौरी ने ही यह निश्चय किया था तथा उसके लिए ईश्वर का आशीर्वाद था, उसके कारण यह आयोग हो सका । हम जब मस्जिद परिसर में गए, उस समय उस परिसर में सभी स्थानों पर देवी-देवता रखने हेतु देवासन (छोटे मंदिर) बनाए गए थे, जिन्हें छेनी तथा हथौडे से तोडा गया था । उस स्थान को बडे स्तर पर चित्रित (रंगा गया) किया गया है, जिससे हिन्दू (श्रद्धालु) मंदिर के लाल रंग के पत्थर न देख सकें । मस्जिद के नीचे तहखाना मिला । उस तहखाने में हिन्दू मंदिरों के खंभे हैं । यहां घंटियां बांधी गई हैं तथा देवी-देवताओं के चिह्नों का अस्तित्व है । मूर्ति देखकर उसे जान-बूझकर तोडा गया है, यह बहुत स्पष्टता से समझ में आता है ।

मस्जिद परिसर में अंदर एक बडी रोचक घटना हुई है । वहां एक दिनदर्शिका लगाई गई है तथा उस पर ‘ज्ञानवापी मस्जिद’ लिखा गया है । ‘ज्ञानवापी’ कोई ‘उर्दू’ शब्द नहीं है । इस दिनदर्शिका को उठाकर देखने पर ‘स्वस्तिक’ का चिह्न दिखाई दिया । इससे यह स्पष्ट होता है कि उस स्थान की सभी विशेषताएं (चिह्न) एक हिन्दू मंदिर की हैं ।

जब आयोग ने कार्यवाही की तथा दूसरे दिन जब आयोग की कार्यवाही चल रही थी, यह उस समय का अनुभव है । सामने स्थित ३ फुट गहरे ‘वजूखाने’ में (नमाज से पूर्व हाथ, पैर एवं मुंह धोने का स्थान) बडी मात्रा में पानी भर दिया गया था । मैंने अधिवक्ता आयोग के आयुक्त से कहा, ‘इसमें से थोडा सा पानी निकालना चाहिए ।’ तब मुस्लिम समूह ने कहा, ‘उसमें मछलियां हैं तथा उसमें से पानी निकाला गया, तो उसमें स्थित मछलियां मर जाएंगी ।’ तब हमने कहा, ‘न्यूनतम १ फुट पानी बाहर निकालकर उसमें प्राणवायु मिलाई जाए, जिससे मछलियां जीवित रहेंगी । थोडा पानी निकालने पर दूसरे दिन हम सीढियों से मध्य भाग में गए । मैंने बहुत दूर से ही यह देखा था कि इस ‘वजूखाने’ के मध्य भाग में एक दीवार है । उससे मुझे यह संदेह हुआ कि यहां निश्चित ही कुछ तो है । पानी कम करने पर स्वच्छता कर्मियों ने कहा कि यहां फव्वारे नहीं हैं ।

मैंने अधिवक्ता आयोग के आयुक्त से अनुरोध किया, ‘हमारे पास एक दिन का समय शेष है; इसलिए हम पुनः एक बार अच्छे से वजूखाने का अवलोकन करेंगे ।’ उन्होंने मेरा अनुरोध स्वीकार कर लिया । उसके अनुसार आयोग ने वजूखाने का पानी तीसरे दिन और अल्प किया । उस समय मेरे शरीर पर रोंगटे खडे हो गए; वहां हमारे इष्टदेवता के भव्य विराट शिवलिंग के दर्शन हुए । वह नंदी से ८३ फुट की दूरी पर है । उसी समय मैं और मेरे पिता पू. (अधिवक्ता) हरि शंकर जैनजी ने निश्चय किया कि अब हम हमारे इष्टदेवता का अनादर नहीं होने देंगे । इसी श्रद्धा के बल पर निश्चिंत होकर हम न्यायालय पहुंचे । न्यायालय में हमने इस क्षेत्र को बंद (सील) करने का अनुरोध किया । माननीय न्यायालय ने हमारा आवेदन स्वीकार कर उस शिवलिंग का क्षेत्र बंद कर दिया । उसके विरुद्ध मुस्लिम पक्ष सर्वाेच्च न्यायालय गया तथा सर्वाेच्च न्यायालय ने भी उस क्षेत्र को बंद करने का आदेश अक्षुण्ण रखा ।

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी के आशीर्वाद, साथ ही अखिल भारतीय हिन्दू राष्ट्र अधिवेशन में सहभागी प्रत्येक हिन्दुत्वनिष्ठ की यह बहुत बडी सफलता है । ३७० वर्ष उपरांत धर्मांधों के द्वारा हमारे इष्टदेवता का अनादर होना बंद हुआ है तथा अब वह दिन भी बहुत दूर नहीं है, जब हम सभी मिलकर वहां पूजा करने जाएंगे । हिन्दू जनजागृति समिति एवं सनातन संस्था ने हमारे अंतःकरण में इतनी आध्यात्मिक शक्ति उत्पन्न की है, जिसके बल पर हम यह कार्य कर सके । इसके लिए हम तो केवल निमित्त हैं ।

– अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन