परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा किया गया हिन्दुत्वनिष्ठों का मार्गदर्शन

‘सनातन संस्था के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने वर्ष १९९० से अध्यात्मप्रसार का कार्य आरंभ किया । उस उद्देश्य से उन्होंने आनंदप्राप्ति हेतु साधना के संबंध में अभ्यासवर्ग लेना, विभिन्न ग्रंथों का संकलन करना, अनेक छोटे-बडे प्रवचन लेना आदि विभिन्न मार्ग अपनाए । वर्तमान समय में सर्वत्र के साधक उनके मार्गदर्शन के अनुसार साधना कर रहे हैं । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की प्रेरणा से ही वर्ष २००२ में ‘हिन्दू जनजागृति समिति’ की स्थापना हुई । यहां हम उनके द्वारा हिन्दुत्वनिष्ठों का किया गया मार्गदर्शन दे रहे हैं ।

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी

त्याग का महत्त्व !

हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हेतु अपना कौशल तथा सब कुछ पूर्णरूपेण अर्पित कर श्रद्धापूर्वक कार्य करें तथा ईश्वर के आंतरिक सान्निध्य की अनुभूति करें !

पू. (अधिवक्ता) हरि शंकर जैनजी

पू. (अधिवक्ता) हरि शंकर जैनजी, सर्वाेच्च न्यायालय : ‘परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी, पुनः आपका सत्संग प्राप्त हुआ । यहां से जाने के उपरांत प्रतिदिन मुझे ऐसा लगता है कि मैं आपके पास ही बैठकर बोल रहा हूं ।’

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : मुझे भी लगता है कि सदा मिलते रहते हैं !

पू. (अधिवक्ता) हरि शंकर जैनजी : एक भेंट से अगली भेंट होने तक पूरे वर्ष ऐसा ही लगता है कि ‘जून का माह शीघ्र आए (प्रतिवर्ष जून के माह में आयोजित अखिल भारतीय हिन्दू अधिवेशन में भाग लेने हेतु पू. हरि शंकर जैनजी आते हैं ।) तथा मैं यहां आपके पास चला आऊं’ उच्च न्यायालय एवं सर्वाेच्च न्यायालय, इन दोनों स्थानों पर आपके कृपाशीर्वाद से सेवा चल रही है । मेरी ओर से जो कुछ भी करना संभव है, वह सब मैं कर रहा हूं ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : आप हैं; इसलिए अन्यों को न्यायालयीन प्रक्रिया का तनाव नहीं आता । न्यायालयीन प्रक्रिया के विषय में उन्हें कोई मार्गदर्शन चाहिए होता है, वह आप करते हैं ।

पू. (अधिवक्ता) हरि शंकर जैनजी : यह आपका ही आशीर्वाद है ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : यही तो साधना है । जो हमें आता है, उसका उपयोग कर साधक एवं ईश्वरप्राप्ति करनेवालों की सहायता करना ही साधना की दृष्टि से त्याग है । यह समय एवं धन का त्याग है । आपने अन्य कोई याचिका ली होती, तो उसमें आपने बहुत पैसे अर्जित किए होते; परंतु आपने ऐसा न कर समाज एवं हिन्दुओं के हित के लिए समय दिया तथा आज भी दे रहे हैं ।

पू. (अधिवक्ता) हरि शंकर जैनजी : धर्मकार्य करने से एक प्रकार की संतुष्टि मिलती है । पहले मुझे ऐसा लगता था कि धर्मकार्य में मेरे साथ कोई नहीं है तथा वह कार्य मैं कर रहा हूं’; परंतु अब आपसे मिलने के उपरांत मुझे लगता है, ‘आप एवं (दैवी) शक्ति मेरे साथ हैं । ईश्वर मेरे साथ हैं ।’ आपके आशीर्वाद से मुझे बहुत लाभ मिला है ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : ‘ईश्वर मेरे साथ हैं’, यह अनुभूति कितनी अच्छी है न !

पू. (अधिवक्ता) हरि शंकर जैनजी : मैंने पिछले २ वर्षाें से आपके बताए अनुसार साधना करना आरंभ किया । तब से लेकर धर्मकार्य करते हुए ऐसा लगता है, ‘आपका आशीर्वाद निरंतर हमारे साथ है ।’ शेष सब कुछ ईश्वर के हाथों में है ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : राष्ट्र-धर्म के विषय में कोई कार्य हो, तो समाज के अन्य लोग क्या कहेंगे, ‘अरे, वह मंत्री मेरा परिचित है । क्या मैं उसे बताऊं ?’ उसपर कोई कहेगा, ‘आप उस मंत्री से मेरा भी परिचय कराएं । उनके कार्यालय में हमारा काम है ।’ साधना एवं अध्यात्म का आचरण करनेवाला इस प्रकार किसी से नहीं पूछता । ‘अरे, ईश्वर हैं न ! अन्य किसी से क्या पूछना ?’, ऐसी  आपकी अनुभूति है ।


स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन का महत्त्व !

हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का कार्य करते समय स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन कर भगवान से एकरूप होना चाहिए !

हिन्दुत्वनिष्ठ : जब मेरा आध्यात्मिक स्तर घोषित हुआ, उस समय ‘मैंने ६३ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त किया है’, ऐसा मुझे नहीं लगता था; परंतु मेरा मन आनंदित हुआ ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : आनंदित होना महत्त्वपूर्ण है । साधना करते गए, तो आनंद का स्तर बढता है तथा १०० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर पर सत्-चित्-आनंद अर्थात ‘सच्चिदानंद’ है बस ! उस अवस्था में आनंद के साथ ज्ञान भी होता है ।

अब आप साधना में पीछे मुडकर नहीं देखेंगे अर्थात आपकी साधना खंडित नहीं होगी । अब आपके मनोलय का आरंभ हुआ है ।

हिन्दुत्वनिष्ठ : जो मेरा आध्यात्मिक स्तर बता रहे हैं, उन्हें कदाचित मेरे स्वभावदोषों के विषय में ज्ञात नहीं होगा । उसके कारण मैं स्वयं को अपराधी समझता हूं ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : स्वयं के स्वभावदोष ज्ञात होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण चरण है; क्योंकि अधिकतर लोगों को स्वयं के स्वभावदोष ही ज्ञात नहीं होते । स्वयं के स्वभावदोष ज्ञात हैं; परंतु उन्हें कैसे दूर करना चाहिए ? तथा उसके लिए स्वसूचनाएं इत्यादि कैसे देनी हैं ?, यह अन्य साधकों से पूछें । उसके उपरांत एक-एक कर सभी स्वभावदोष दूर होंगे तथा अहं भी नहीं रहेगा । ईश्वर में एक भी स्वभावदोष एवं अहंभाव नहीं है । यदि हमें ईश्वर से एकरूप होना है, तो हमें अपने स्वभावदोष एवं अहं दूर करने ही हैं न !

अपने बल पर प्रयास न कर आप अन्यों से सहायता लें । हिन्दू जनजागृति समिति का कार्य अध्यात्म की पाठशाला ही है । शिष्य के स्तर तक पहुंचने तक एक-दूसरे की सहायता करनी है । अध्यात्म में शिष्य होना अर्थात आगे जाकर संत बनना !

हिन्दुत्वनिष्ठ : आपके मार्गदर्शन के कारण मुझे मेरी शंकाओं का समाधान हुआ । अब मैं स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन हेतु प्रयास करूंगा । मुझे संतुष्टि मिली ।

  • सदैव सीखने की स्थिति में रहना चाहिए, इससे हमें अन्यों के दृष्टिकोण भी समझ में आते हैं ।
  • ‘बुद्धि के परे ईश्वर के विश्व का व्यापार चलाने के नियम, अर्थात माया समझने का प्रयास करने की अपेक्षा साधना कर ईश्वर से एकरूप होना अधिक सरल है !’ – सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवले