१. ब्रिटिशों के प्रभाव के कारण धर्म एवं संस्कारों से दूर जा चुका हिन्दू समाज !
हमारे देश को स्वतंत्रता तो मिली; परंतु उसका विभाजन भी हुआ । अंग्रेजों के प्रभाव से संचारित हमारे देश के सत्ताधारी लोगों ने देश में अंग्रेजों की शिक्षा पद्धति को वैसे ही आगे जारी रखा । हिन्दुओं के किसी भी शिक्षा संस्थान को उनके धर्म एवं संस्कृति के संस्कार देने की छूट नहीं दी गई । इसके परिणामस्वरूप हिन्दू समाज अपने ही धर्म एवं संस्कृति से दूर होता गया । उसे अपने ही धर्म एवं संस्कृति में समाहित सामान्य बातें भी ज्ञात नहीं थीं, ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई । हमारा समाज पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करते हुए जीवनयापन करता रहा । आज भी वह अल्पाधिक मात्रा में वैसे ही जी रहा है । कथाकार, कीर्तनकार, प्रवचनकार, व्याख्याताओं ने अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार हमारे धर्म एवं संस्कृति को लोगों तक पहुंचाने का काम किया; परंतु उनका यह कार्य व्यक्तिगत स्तर तक सीमित था ।
स्वतंत्रता मिलने के उपरांत देश को अनेक संकटों से गुजरना पडा । देश को स्वतंत्रता मिली, वह भी उसके विभाजन का उपहार मिलकर ! उसके उपरांत पाकिस्तान के साथ चार बार युद्ध हुए, जबकि एक बार चीन के साथ युद्ध हुआ । उसके उपरांत भी छोटी-बडी झडपें होती रही । पाकिस्तान ने छद्म युद्ध आरंभ किया । देश की राजनीतिक सत्ता निरंतर मुसलमानों के तुष्टीकरण की ओर झुकती रही । बहुसंख्यक हिन्दू समाज के साथ सौतेला व्यवहार होता रहा । इस अन्याय के विरुद्ध लडनेवाले राजनीतिक दलों के अतिरिक्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद इत्यादि संगठन सार्वजनिक रूप से हिन्दुओं का पक्ष लेकर काम कर रहे थे तथा आज भी कर रहे हैं ।
२. कठिन राजनीतिक एवं सामाजिक वातावरण में धार्मिक एवं आध्यात्मिक क्षितिज पर डॉ. जयंत आठवलेजी का उदय !
देश का राजनीतिक-सामाजिक वातावरण बदल रहा था । उस समय के हिन्दुत्वनिष्ठ संगठन अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार काम कर रहे थे; परंतु तब भी हमारे देश में देश की परिस्थिति को संवारने हेतु सुयोग्य सत्ताधीश नहीं मिल रहे थे । देश में आतंकवाद बढता गया । बमविस्फोट की शृंखलाएं होती गईं । ऐसी सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक पृष्ठभूमि पर डॉ. जयंत बाळाजी आठवले नाम के एक व्यक्ति ने इंग्लैंड जाकर ‘मानसशास्त्र’ विषय पर शोधकार्य किया । ‘सम्मोहनशास्त्र के विशेषज्ञ’ के रूप में जाने जानेवाले इस व्यक्तित्व का देश के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक क्षितिज पर उदय हुआ । शिक्षाव्यवस्था में स्थित प्रतिबंधों के कारण जो बातें नहीं की जा सकती, उन सभी को करने हेतु २३ मार्च १९९९ को उन्होंने सनातन संस्था की स्थापना कर मुंबई एवं गोवा में अपना कार्य आरंभ किया । उनके कार्य का प्रेरणास्रोत थे उनके गुरु संत भक्तराज महाराज ! ऐसे अलौकिक गुणों से युक्त सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी का जन्म ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी, कलियुग वर्ष ५०४४ अर्थात ही ६ मई १९४२ को महाराष्ट्र के रायगड जिले में स्थित नागोठणे गांव में हुआ ।
सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी में ज्ञानार्जन की लालसा है, साथ ही उनकी कलासक्ति असीमित है । उन्होंने चित्रकला की ‘एलिमेंट्री’ एवं ‘इंटरमीडिएट’ इन परीक्षाओं में बडी सहजता से सफलता प्राप्त की । वे संवादिनी, माउथ ऑर्गन जैसे वाद्य बजाते थे । उन्हें ‘फोटोग्राफी’ (छायाचित्रीकरण) एवं तैराकी में विशेष रुचि है । उन्होंने मुंबई में चिकित्सकीय शास्त्र की ‘एम.बी.बी.एस.’ की उपाधि प्राप्त की है ।
३. डॉ. आठवलेजी की गुरु के साथ भेंट तथा श्री गुरु के द्वारा उन्हें दिया गया आशीर्वाद !
मानसशास्त्र एवं सम्मोहन उपचारशास्त्रों का उपयोग कर भी रोगी ठीक नहीं होते, ऐसा दिखाई देने पर डॉ. आठवलेजी आध्यात्मिक अध्ययन की ओर मुड गए । इस अध्ययन हेतु उन्होंने प.पू. मलंगबाबा, प.पू. विद्यानंद, प.पू. अण्णा करंदीकर, प.पू. भक्तराज महाराज जैसे संतों के पास जाकर एकलव्य की एकाग्रता से अध्यात्म का ज्ञान प्राप्त किया । वर्ष १९९५ में अध्यात्म का अध्ययन करते समय डॉ. आठवलेजी अपने गुरु संत भक्तराज महाराजजी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में इंदौर जाकर रहे । उस समय महाराजजी ने उन्हें भगवान श्रीकृष्ण एवं अर्जुन की महिमा कथन की । केवल इतना ही नहीं, अपितु उन्होंने डॉ. आठवलेजी को श्रीकृष्ण एवं अर्जुन की मूर्तियों से युक्त चांदी का रथ देकर कहा, ‘‘गोवा में आपका कार्यालय होगा, आप इस रथ को वहां रखिए ।’’ संत भक्तराज महाराजजी का यह आशीर्वाद सनातन संस्था की स्थापना हेतु तथा आगे के कार्य के लिए फलदायक सिद्ध हुआ । डॉ. आठवलेजी ने सभी को सद्गुरु की कृपा का सरल, सहज तथा शीघ्रगति से आध्यात्मिक प्रगति हेतु उपयुक्त योग अर्थात ‘गुरुकृपायोग’ बताया, साथ ही उन्होंने स्वयं उसका आचरण किया तथा अन्यों से भी करवा लिया ।
४. आध्यात्मिक क्षेत्रों में अपना स्थान बनानेवाली सनातन संस्था !
सनातन संस्था की इमारत गुरुकृपायोग की मजबूत नींव पर खडी है । सनातन संस्था अध्यात्म के प्रचार एवं प्रसार हेतु आधुनिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का खुलेपन से उपयोग करनेवाली आध्यात्मिक संस्था है ।
सनातन संस्था विगत अनेक वर्षों से आध्यात्मिक क्षेत्र में विभिन्न प्रयोग कर विज्ञान की कसौटी पर उसकी सत्यता विशद करने का शोधकार्य कर रही है । यही इस संस्था की प्रमुख विशेषता है । सनातन संस्था के सभी साधक, अध्येता, वितरक एवं स्वयंसेवक बिना किसी अपेक्षा के यह कार्य कर रहे हैं । डॉ. आठवलेजी ने आरंभ से ही जो कार्यपद्धति बनाकर दी है, उस कार्यपद्धति की मर्यादा में रहकर सनातन संस्था जोर-शोर से काम कर रही है । सच्चिदानंद परब्रह्म पद तक पहुंचे डॉ. जयंत आठवलेजी ने सभी अनुयायियों को (साधकों को) ‘साधना के द्वारा हम स्वयं का उद्धार कर ले सकते हैं, साथ ही हम समाज का भी उद्धार कर सकते हैं’, यह सीख देने का महान कार्य किया है ।
सनातन ने लगभग १७ भाषाओं में विभिन्न विषयों के ग्रंथ प्रकाशित किए हैं । हमारा धर्म क्या है ?, त्योहार एवं उत्सव हमें कैसे मनाने चाहिए ?, शास्त्रोक्त पद्धति से सभी देवताओं का पूजन-अर्चन कैसी करना चाहिए ? आदि के विषय में सनातन संस्था अपने धर्मबंधुओं एवं देशवासियों का मार्गदर्शन कर रही है ।
५. प्रत्येक व्यक्ति के अंतःकरण में राष्ट्रभक्ति का तथा साधना का दीप प्रज्वलित रखने हेतु अपना जीवन उत्सर्ग करनेवाले डॉ. जयंत आठवलेजी !
सनातन संस्था ने समाज मानस में कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का त्रिवेणी संगम बनाने का सफल प्रयास किया है । ‘राष्ट्र, समाज, संस्कृति एवं धर्म के लिए निःस्वार्थ एवं निरपेक्ष भावना से कर्म कीजिए तथा उसके लिए ज्ञान संपादन कर ही ऐसा कर्म कीजिए’, यह सीख देकर प्रत्येक व्यक्ति के अंतःकरण में राष्ट्रभक्ति का तथा साधना का कभी न बुझनेवाला दीप प्रज्वलित रहे; इसके लिए डॉ. जयंत आठवलेजी ने अपना संपूर्ण जीवन उत्सर्ग किया है । उनकी यह तपस्या आज फलीभूत होती हुई दिखाई दे रही है । यह करते समय इस संस्था को अनेक आरोप-प्रत्यारोपों का सामना करना पडा; परंतु उन्होंने अपना यह व्रत नहीं छोडा । अब सनातन संस्था कैसी भी चुनौतियों एवं आक्षेपों का सामना करने के लिए सक्षम बन गई है ।
६. शांति एवं प्रसन्नता के संगम सनातन के आश्रम !
सनातन के आश्रमों में विज्ञान के लिए भी पहेली बनेंगे, ऐसी अकल्पित घटनाएं हुई हैं तथा अभी भी हो रही हैं । सनातन के आश्रमों का अवलोकन किए बिना उसकी प्रतीति नहीं होगी । सनातन के किसी भी आश्रम में प्रवेश करने पर हमें वहां शांति एवं प्रसन्नता का संगम देखने को मिलता है । इन आश्रमों में भले ही सैकडों साधक रह रहे हों; परंतु वहां किसी प्रकार की आवाज, गडबड तथा हंगामा सुनाई नहीं देता । संपूर्ण परिसर स्वच्छ एवं व्यवस्थित होता है । यहां का प्रत्येक साधक बिना चूके अपना-अपना काम करता है । अनेक व्यावसायिक प्रतिष्ठानों ने आश्रम का व्यवस्थापन जान लेने हेतु सनातन के आश्रमों का अवलोकन किया है ।
७. अपने दोषों पर विजय प्राप्त करने की सीख मिले सनातन के साधक !
सनातन संस्था के सभी अनुयायी ‘स्वयं में विद्यमान दोषों की स्वयं ही खोज कर उस पर कैसे विजय प्राप्त करनी चाहिए ?’, इसकी सीख का कठोरता से कार्यान्वयन करते हुए दिखाई देते हैं । यहां के सभी बालक-वृद्ध अनुशासन का पालन करते हैं । सनातन संस्था के साधकों में एक-दूसरे के प्रति सम्मान की, प्रेम की तथा अपनेपन की भावना का सहजता से जतन करने की सीख विशेष रूप से दिखाई देती है । सनातन संस्था के साधकों में उछले विचारों तथा उथले आचारों का कोई स्थान नहीं है । ‘हमारे द्वारा किया जा रहा कार्य ईश्वर को साक्षी मानकर करना है । हमें प्राप्त ज्ञान एवं विद्या का भारतमाता के उत्कर्ष हेतु कैसे उपयोग करना चाहिए’, यह विचार वीर सावरकर ने इस भूमि में स्थापित किया । सनातन के साधकों ने इसका प्रचार एवं प्रसार करने का काम कर उस विचार का कार्यान्वयन करने का सफलतापूर्ण प्रयास किया है । वर्तमान समय में इस अनुशासित कार्य की सुगंध संपूर्ण विश्व में फैलती जा रहा है । देश-विदेश के अनेक जिज्ञासु सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के द्वारा दी गई अध्यात्म की सीख की ओर आकर्षित हो रहे हैं ।
यह कार्य सर्वत्र प्रसारित हो; इसके लिए अनुरूप शास्त्रशुद्ध तंत्र तैयार करनेवाले सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में उन्हें विनम्र प्रणिपात !’
– श्री. दुर्गेश जयवंत परुळकर, व्याख्याता एवं लेखक (१८.४.२०२३)