बचपन से ही सात्त्विक वृत्ति एवं दैवी गुणों से युक्त कतरास (झारखंड) की सनातन की ८४ वीं (समष्टि) संत पू. (श्रीमती) सुनीता प्रदीप खेमकाजी (आयु ६३ वर्ष) !

पू. (श्रीमती) सुनीता प्रदीप खेमकाजी के ६३ वें जन्मदिवस के उपलक्ष्य में सनातन परिवार की ओर से उनके चरणों में कृतज्ञतापूर्वक नमस्कार !

माघ शुक्ल एकादशी (२०.२.२०२४) को पू. (श्रीमती) सुनीता खेमकाजी का ६३ वां जन्मदिवस है । इस उपलक्ष्य में उनके बचपन से लेकर अब तक की साधनायात्रा यहां दी गई है । उनका बचपन, बचपन से ही उनमें विद्यमान दैवी गुण, भगवान के प्रति उनकी भक्ति तथा सनातन संस्था के मार्गदर्शन में साधना आरंभ करने से पूर्व उनके द्वारा अनुभव की गई भगवान की अपार कृपा के संबंध में यहां जानकारी दी है ।

पू. (श्रीमती) सुनीता खेमकाजी

१. जन्म

‘मेरा जन्म माघ शुक्ल एकादशी को (२७.१.१९६१) पश्चिम बंगाल के बराकर जिले के पास के दिसरगढ में हुआ ।

२. बचपन

हमारा संयुक्त परिवार था । हमारे परिवार में हम पडदादा-दादाजी से लेकर संपूर्ण परिजन एकत्रित रहते हैं । मेरे दादाजी के २ भाई थे । उनके परिजन तथा उनके बच्चों के परिवार, ऐसे सभी एकत्रित ही रहते हैं ।

३. बचपन से ही स्वयं में विद्यमान अच्छे गुण !

३ अ. बचपन से ही किसी भी वस्तु के प्रति आसक्ति न होना : एकत्र परिवार में रहने के कारण हम अनेक भाई-बहन थे । मेरे मन में सदैव अन्यों का ही विचार होता था । बचपन से ही मुझे अन्यों की सहायता करना बहुत अच्छा लगता है । घर में हम भाई-बहनों में मैं बडी थी; परंतु मुझे कभी नहीं लगा कि कोई भी वस्तु ‘सबसे पहले मुझे मिलनी चाहिए ।’ कोई भी वस्तु घर में लाई जाने पर ‘अन्यों को मिलने के उपरांत मैं लूंगी’, यही मेरा सदैव विचार रहता था । कभी मैं मेरे लिए तथा छोटी बहन के लिए कोई वस्तु लाने पर मैंने अपने लिए ली हुई वस्तु मेरी बहन को अच्छी लगी, तो मैं बहुत सहजता से मेरी वस्तु उसे देती थी । बचपन से ही मेरे मन में किसी भी वस्तु के प्रति आसक्ति नहीं थी ।

३ आ. पडोस में रहनेवाली दादी को उनकी काम में सहायता करना अच्छा लगना : हमारे घर में काम करने हेतु अनेक गृहकृत्य सहायक (नौकर) होने के कारण हमारे घर के काम हेतु मेरी आवश्यकता कभी नहीं पडती थी; परंतु हमारे घर के पडोस में एक दादीजी अकेली रहती थीं । उन्हें संतान नहीं थी । मुझे उनका घर स्वच्छ करना तथा अन्य कामों में उनकी सहायता करना अच्छा लगता था ।

३ इ. अन्नपूर्णादेवी जैसे सभी को भोजन देने के उपरांत स्वयं भोजन करती हैं, उसकी भांति घर के सभी छोटे-बडों के तथा गृहकृत्य सहायकों के भोजन होने के उपरांत स्वयं भोजन करना : घर में सभी का भोजन होने के उपरांत सबसे अंत में मैं भोजन करती थी । अभी भी मुझमें वह गुण है । चाहे मैं कितनी भी व्यस्त क्यों न रहूं, कोई भी कार्यक्रम हो अथवा अन्य दिन भी सभी का भोजन होने के उपरांत ही मैं भोजन करती हूं । ‘भूख लगी; इसलिए मैंने पहले खा लिया’, ऐसा मुझसे कभी नहीं होता । ‘मैं एक गृहिणी हूं । गृहिणी में अन्नपूर्णादेवी का अस्तित्व होता है । अन्नपूर्णादेवी सभी को खिलाने के उपरांत ही स्वयं अन्न ग्रहण करती है । घर के किसी को भी अन्न अल्प नहीं पडना चाहिए । मुझे लगता है कि सभी परिजनों का तथा घर के गृहकृत्य सहायकों का भोजन होने के उपरांत ही मुझे अन्न ग्रहण करना चाहिए ।’

४. परिवार में आध्यात्मिक वातावरण होने के कारण भगवान में रुचि होना !

४ अ. परिवार का वातावरण आध्यात्मिक होना तथा सभी लोगों के द्वारा खाटू श्यामबाबा की भक्ति की जाना : पहले से ही हमारे परिवार में आध्यात्मिक वातावरण है । हमारे घर में पडदादा-दादाजी के काल से खाटू श्यामबाबा की (कलियुग के श्रीकृष्ण के रूप की) उपासना की जाती है । खाटू श्यामबाबा के ध्वज उठाना, कलश यात्रा, पैदल यात्रा इत्यादि सभी उपक्रमों में हम परिजन मन से सहभागी होते थे । मेरा मन बचपन से ही पूजा-अर्चना एवं आरती उतारने में व्यस्त रहता था । मैं सवेरे-सायंकाल इन दोनों समय आरती उतारना, खाटू श्यामबाबा की पोथी पढना, हनुमान चालीसा का पाठ, व्रत करना इत्यादि धार्मिक कृत्य करती थी । बचपन से ही मुझे खाटू श्यामबाबा के प्रति झुकाव था । ईश्वर की कृपा से मेरा पालन-पोषण सात्त्विक वातावरण में हुआ ।

४ आ. कीर्तन में रुचि होना : मुझे कीर्तन सुनने में बडी रुचि थी । मेरे बचपन में हमारे घर के पडोस के ‘बराकर’ में २४ घंटे कीर्तन होता था । मुझे लगता था कि ‘सदैव कीर्तन ही सुनती रहूं ।’

५. शिक्षा

मेरी शिक्षा १२वीं कक्षा तक हुई है । मैं शिक्षा में सामान्य ही थी ।

६. विवाह

१२वीं कक्षा तक की शिक्षा के उपरांत मेरा विवाह पू. प्रदीप खेमकाजी (सनातन के ७३ वें [समष्टि] संत) के साथ हुआ ।

७. साधना में न होते हुए भी अनुभव की हुई भगवान की अपार कृपा !

७ अ. पति के द्वारा विवाह से पूर्व मांसाहार किया जाना; परंतु ईश्वर की कृपा से विवाह सुनिश्चित होने पर उनकी वह आदत छूटना : हमारा विवाह सुनिश्चित होने से पूर्व मेरे पति मांसाहार करते थे; परंतु हमारी मंगनी होने के उपरांत उनकी मांसाहार की आदत संपूर्णतया छूट गई । ‘मेरे पति मांसाहार करते थे’, यह बात मुझे विवाह के उपरांत ही ज्ञात हुई । उस समय में विवाह से पूर्व हमें वर के विषय में अथवा वर के लोगों के विषय में बहुत कुछ ज्ञात नहीं होता था । हमारा विवाह सुनिश्चित होने पर ‘मेरे पति का मांसाहार करना बंद हुआ’, यह ज्ञात होने पर मुझे ईश्वर के प्रति बहुत कृतज्ञता प्रतीत हुई । ‘प्रयास कर भी यह करना’ मेरे लिए संभव नहीं था, उस बात को ईश्वर से मेरे विवाह से पूर्व ही बंद कर मुझ पर कितनी बडी कृपा की है । आज के समय में लोगों को ‘मांसाहार करना’ बहुत ही सामान्य लगता है; परंतु मेरे लिए ‘मांसाहार करना’ बहुत बडी बात थी । ‘कोई मांसाहार कर सकता है’, यह विचार भी मैं नहीं कर सकती थी । उसके कारण ‘विवाह से पूर्व ही पति की यह आदत छूट गई’, यह ज्ञात होने पर ‘भगवान मेरे लिए कितना कर रहे हैं !’, इस विचार से मुझे बहुत कृतज्ञता प्रतीत हुई ।

७ आ. काम की व्यस्तता के कारण पति पू. प्रदीप खेमकाजी का अनेक बार देर से घर आना, ‘जिस दिन उनका अपहरण हुआ, उस दिन उनके सुरक्षित घर लौटने के कारण उनका अपहरण हुआ था’, यह ज्ञात न होना : वर्ष १९९२ में व्यावसायिक शत्रुता के कारण किसी ने मेरे पति का (पू. प्रदीप खेमकाजी का) अपहरण किया था । अपहरणकर्ताओं ने रात ८-९ बजे उनका अपहरण किया; परंतु ईश्वर की कृपा से उसी रात २-३ बजे वे सुरक्षित घर वापस आए । उस समय काम की व्यस्तता के कारण मेरे पति देर रात घर आते थे । उस दिन पति जब देर रात घर लौटे, उस समय मुझे ‘वे काम समाप्त कर अभी घर वापस आए हैं’, ऐसा लगता । उसके कारण इस घटना के बहुत दिन उपरांत तक उनका अपहरण हुआ था, यह मुझे ज्ञात ही नहीं था । पति के घर आने तक मैं नहीं सोती थी । मैं उनकी प्रतीक्षा करते हुए अट्टालिका में खडी रहती थी । उस रात ३-३.३० बजे जब पति घर लौटे, उस समय मेरे मन में ‘उन्हें घर आने में इतना विलंब क्यों होता है ?’, बस इतना ही विचार आया । उसके कुछ दिन उपरांत मेरी ननद ने बताया कि ‘उस दिन मेरे पति का अपहरण हुआ था ।’ तब मुझे विश्वास ही नहीं हुआ; परंतु ‘ईश्वर ने ही उनकी रक्षा की’, इस विचार से मुझे बहुत कृतज्ञता प्रतीत हुई ।

७ इ. ससुराल एवं मायके के लोगों ने गुरुमंत्र लिया था; परंतु स्वयं को गुरुमंत्र न मिलना तथा कुछ काल पश्चात सनातन संस्था के मार्गदर्शन में साधना आरंभ करने पर वह ईश्वर का ही नियोजन था, यह बात ध्यान में आना : मेरे ससुराल के तथा मायके के सभी लोगों ने गुरुमंत्र लिया हुआ था । ‘मेरे सनातन संस्था के मार्गदर्शन में साधना करने से पूर्व मेरे जीवन में अन्य कोई गुरु नहीं आए’, यह ईश्वर की ही लीला थी । मैंने कभी किसी भी ज्योतिष को मेरा हाथ दिखाकर मेरे भविष्य के विषय में कुछ नहीं पूछा । एक बार मैं अपने मां के पास गई थी । उस समय उसके गुरु आनेवाले थे । मां ने मुझे कहा, ‘‘अब तुम भी गुरुमंत्र लो ।’’ संयोगवश मेरे घर से बाहर निकलने के उपरांत उसके गुरु घर आए । मां ने उनके गुरु के घर आने के संबंध में चल-दूरभाष कर बताया; इसलिए मैं पुनः उसके घर गई; परंतु मेरे वहां पहुंचने से पूर्व ही उसके गुरु वहां से निकल गए थे । उस समय ‘मेरे भाग्य में ही गुरु का संयोग नहीं होगा’, इस विषय से मुझे बहुत बुरा लगा था । अब उस पर विचार करने पर ‘वह मुझ पर ईश्वर की कृपा ही थी । ईश्वर ने मेरे भाग्य में ‘मेरे गुरु के रूप में मुझे परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का सान्निध्य प्राप्त होनेवाला है’, यह संयोग लिखा था; इसलिए वैसे हुआ’, यह बात मेरे ध्यान में आई ।’

– (पू.) श्रीमती सुनीता खेमका, कतरास, झारखंड. (२.१.२०२०)

(क्रमश:)