‘रोग न होने के लिए प्रयास करना, रोग होने पर उपचार करने से श्रेष्ठ है । (Prevention is better than cure.)’, ऐसी अंग्रेजी कहावत है ।
‘रोग अथवा विकार से बचने के लिए दैनिक जीवन का आहार-विहार (क्रिया) इत्यादि कैसा हो’, यह प्रत्येक मानव को ज्ञात होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । इसीके साथ विकार होने पर ‘खाने-पीने से सबंधित पथ्य-अपथ्य’ अर्थात ‘क्या खाएं और क्या न खाएं ?’ यह भी ज्ञात होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । इसके भी कारण हैं, ‘द्रष्टा सन्तों द्वारा बताए अनुसार संभावित तृतीय विश्वयुद्ध’ और ‘आधुनिक चिकित्सा शास्त्र की सीमाएं ।’ तृतीय विश्वयुद्ध में प्रत्येक को यथासंभव स्वयं ही वैद्य बनना होगा ।
अलार्म लगाकर उठना उचित है क्या ?
अलार्म लगाकर उठना, अर्थात शरीर के प्राकृतिक रूप से जागने के पहले ही अप्राकृतिक रूप से उठना । नींद पूरी न होने पर भी अलार्म लगाकर उठने से शरीर का धातुओं में समता प्रस्थापित करने का कार्य खण्डित हो जाता है । इस कारण नींद पूर्ण होने पर बिना अलार्म के उठना, स्वास्थ्य का लक्षण है ।
अनिष्ट शक्तियों की पीडा के कारण, मन सपनों में उलझ जाने के कारण अथवा आलस्य के कारण नींद पूरी होने पर भी उठा नहीं जाता । इस समय अलार्म लगाकर उठना आवश्यक होता है; अन्यथा आवश्यकता से अधिक सोने की आशंका रहती है । ऐसा न हो, इसके लिए अलार्म लगाकर सोना आवश्यक है; परन्तु ऐसा करते समय नींद पूरी हो, इसका ध्यान रखना भी आवश्यक है ।
सवेरे निर्धारित समय पर जागने के लिए अलार्म लगाने के स्थान पर मन को स्वसूचना देना उचित है क्या ?
जो कार्य अलार्म से हो सकता है, उसके लिए स्वसूचना लेकर मन की बहुमूल्य ऊर्जा व्यय करना व्यावहारिक नहीं । कभी-कभी इन स्वसूचनाओं के कारण मन अधिक सतर्क रहता है और रात को बीच-बीच में नींद खुल सकती है । इसलिए जागन के लिए मन को स्वसूचना देने से बचें ।
रात को कितने बजे सोएं ?
लगभग कितने घंटे सोना हमारे लिए पर्याप्त है, इसका अनुमान प्रत्येक व्यक्ति को होता है । अधिकांश लोगों के लिए ६ से ८ घंटे सोना आवश्यक होता है । ब्राह्ममुहूर्त पर उठने के पूर्व उतनी नींद पूर्ण होना आवश्यक है, इसलिए उतनी देर पहले सोएं, उदा. किसी के लिए ६ घंटे की नींद आवश्यक हो और उसे प्रातः ५ बजे उठना हो, तो उसे ११ बजे तक नींद लगनी चाहिए । इस व्यक्ति को बिस्तर पर लेटने के १५ से २० मिनट में नींद आती हो, तो वह १०.४० से १०.४५ तक सोने जाए ।
दिनचर्या की कृतियों का क्रम
१. भोजन केवल पेट भरने का साधन नहीं, अपितु ‘यज्ञ’ भी है । ऐसा भाव रखकर भोजन करने पर ही शरीर का उचित पोषण होता है । इसलिए इस यज्ञकर्म के पहले मलत्याग और स्नान करना आवश्यक है ।
२. खाने के पश्चात स्नान करने से जठराग्नि मन्द होती है; इससे खाए हुए अन्न का उचित पाचन नहीं होता ।
३. ‘सवेरे शौच हुए बिना एवं तेज भूख लगे बिना आहार लेना’, सर्व विकारों का एक महत्त्वपूर्ण कारण है । ‘शौच होकर तेज भूख लगने पर आहार लेना’, निरोगी जीवन की कुंजी है ।
अन्नपदार्थों के संस्कारों का महत्त्व
संस्कार से पदार्थ में निहित पृथ्वी और आप महाभूत बढाने पर वह गुरु (पचनेमें भारी) होता है, तो तेज, वायु और आकाश महाभूत बढने पर पदार्थ लघु अर्थात सुपाच्य बनता है । पानी में भिगोना, ठण्डा करना आदि जलप्रधान संस्कारों से पदार्थ गुरु बनता है, जबकि गरम करना, भूनना, पकाना, धूप में सुखाना आदि अग्निप्रधान संस्कारों से पदार्थ लघु बनता है ।
(संदर्भ – सनातन का ग्रंथ ‘आयुर्वेदानुसार आचरण कर बिना औषधियोंके निरोगी रहें !’)
अम्लपित्त किस प्रकार से ठीक हो सकता है ?
वात की प्रतिलोम गति के कारण होनेवाले विकार का उदाहरण : वात प्रतिलोम होने पर कभी-कभी पेट के द्रव पदार्थ ऊपर आने लगते हैं और अम्लपित्त के लक्षण निर्माण होते हैं । अम्लपित्त के अनेक रोगियों की यह समस्या रहती है कि ‘प्रतिदिन पेट साफ नहीं होता ।’ और यही उनके अम्लपित्त का मुख्य कारण होता है । ऐसे रोगी मूल कारण दूर किए बिना, पित्तशामक गोलियां लेना, ठंडा दूध पीना जैसे अनुचित उपचार करते रहते हैं । इन उपचारों से भले ही तात्कालिक आराम मिलता हो, तब भी अम्लपित्त बार-बार होते रहता है । यदि अधोवात, मल और मूत्र का उचित समय पर विसर्जन हो, दिनचर्या ही ऐसी हो, तो मूल कारण दूर हो जाता है और अम्लपित्त अपनेआप ठीक हो जाता है ।
आंसू रोककर न रखें !
आनन्द अथवा दुःख के कारण आनेवाले आंसू भी एक वेग है । इस वेग के कारण मन की भावनाओं की निकासी होती है । इस कारण आनन्द अथवा दुःख की भावना रोककर न रखें । स्त्रियों में विशेषतः सौतेली बेटियों अथवा ससुराल में कष्ट अनुभव करनेवाली स्त्रियों में दुःख को भीतर ही दबाने की प्रवृत्ति पाई जाती है । वे आंसुओं के माध्यम से अपने दुःख की निकासी नहीं कर पातीं । इस कारण आगे उन स्त्रियों में कालान्तर में तीव्र शिरोवेदना, बार-बार सर्दी होना, हृदय में वेदना, गर्दन अकडना, मुख में स्वाद न होना, चक्कर आना, आंखों में वेदना आदि विकार उत्पन्न होते हैं । अनेक बार इन विकारों का कारण समझ में नहीं आता । सर्व प्रकार के परीक्षण सामान्य निकलते हैं । कभी व्याधि के मूल तक जाने का प्रयास करते समय रोगी के इतिहास में दुःख के अनेक प्रसंग आने पर भी दुःख व्यक्त न कर पाना, यह कारण पाया जाता है ।