‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिस्तानी । सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ हिन्दी फिल्म ‘श्री ४२०’ का राजकपूर पर चित्रित गीत आज भी लोकप्रिय है । गीत में नायक गर्व से बताता है, ‘वेशभूषा भले ही विदेशी हो; परंतु हृदय भारतीय ही है ।’ संक्षेप में कहा जाए, तो नायक कह रहा है, ‘काल के अनुसार तथा परिस्थिति के चलते भले ही वेशभूषा बदल गई हो; परंतु तब भी मेरे हृदय में देश के प्रति प्रेम है ।’ नायक की यह शैली हमें भाती है । इस कारण हम सभी भारतीयों में नायक को देखते हैं तथा ‘सभी भारतीयों में देश के प्रति आत्मीयता है’, इस विचार से हम अभिभूत हो जाते हैं । ‘भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना है’, इस विचार से हम भले ही अभिभूत हो जाएं, परंतु इन्हीं भारतीयों को न्याय प्रदान करनेवाला देश के लोकतंत्र का एक आधारस्तंभ न्यायव्यवस्था, स्वतंत्रता के ७६ वर्ष उपरांत भी अंग्रेजी प्रभाव में ही है, तो क्या हम उसके लिए कुछ भी नहीं करेंगे ? प्रश्न यह उठता है कि ‘स्वतंत्रता के उपरांत से ही इस अंग्रेज प्रभावित न्यायव्यवस्था का राष्ट्रीयकरण नहीं किया गया, इसके पीछे ‘श्री ४२०’ कौन है ? तथा क्या इसके लिए जनप्रतिनिधियों पर भारतीय दंड संहिता की ‘धारा ४२०’ लगाई जाए ?’ नई देहली में चल रहे ‘अंतरराष्ट्रीय अधिवक्ता सम्मेलन २०२३’ के उद्घाटन भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक महत्त्वपूर्ण घोषणा की, ‘न्यायालयों में भारतीय भाषाओं का प्रयोग हो तथा वह सामान्य लोगों को समझ में आए’, इस पद्धति से उसे सुगम बनाने के लिए केंद्र सरकार प्रयास करेगी ।’
‘श्री ४२०’ का नायक कह रहा है कि उसका हृदय भारतीय है; परंतु देश की न्यायव्यवस्था की केवल वेशभूषा ही नहीं, अपितु सभी कानून और संपूर्ण न्यायदेवता ही पाश्चात्य संकल्पना पर आधारित है । ‘ऑर्डर’, ‘ऑर्डर’ कहनेवाले न्यायाधीश तथा ‘थैंक्स माई लॉर्ड’ कहनेवाले अधिवक्ता आज भी भारतीय संस्कृति में तामसिक माने जानेवाले काले चोगे में घूमते हैं । कानूनों की बात छोडिए; पिछले ७६ वर्षाें में जनप्रतिनिधियों ने न्यूनतम इन पद्धतियों को भी देश के अनुरूप बनाने का काम नहीं किया । ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह घोषणा कि ‘देश के कानून इस प्रकार बनाए जाएंगे कि सामान्य व्यक्ति को अपने लगें,’, निश्चित ही संतोषजनक है; परंतु इस दिशा में गंभीरता से, निश्चयपूर्वक एवं कालबद्ध मार्गक्रमण आवश्यक है ।
कार्यवाही कालबद्ध हो !
भारतीय न्यायप्रणाली में लंबित अभियोगों की समस्या जितनी गंभीर है, उतनी ही न्यायालयों में स्थानीय भाषाओं का प्रचलन न होना तथा अत्यंत क्लिष्ट भाषाशैली जैसी समस्याएं भी गंभीर है । स्वतंत्रता के उपरांत आरंभ के कुछ वर्ष मौलिक सुविधाएं निर्माण करने के लिए देने के उपरांत, अगले कुछ वर्षाें में सरकार को न्यायालयों की इन महत्त्वपूर्ण समस्याओं की ओर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए था; परंतु कांग्रेस ने इसकी पूर्ण उपेक्षा की । पिछले कुछ वर्षाें में इन समस्याओं के विषय में चर्चा आरंभ हुई; परंतु उसके आगे कुछ नहीं हुआ । न्यायालयों से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक का अधिकतर कामकाज आज भी अंग्रेजी में चल रहा है । ‘राज्यों को उच्च न्यायालयों के निर्णय की प्रतियां संबंधित राज्यों की स्थानीय भाषा में उपलब्ध हो’, इसके लिए केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को इससे पूर्व ही निर्देश दिए हैं । कुछ दिन पूर्व महाराष्ट्र शासन ने मुंबई उच्च न्यायालय के निर्णय का मराठी में अनुवाद करने के लिए एक व्यक्ति की नियुक्ति करने का आदेश जारी किया । मुंबई उच्च न्यायालय की भांति, ऐसी कार्यवाही राज्य के जिला दंडाधिकारी तक पूरी न्यायप्रणाली में होना आवश्यक है ।
न्याय खरीदना पडता है !
न्यायव्यवस्था का राष्ट्रीयकरण करते समय भारतीय संस्कृति के अनुसार कानूनों में आवश्यक परिवर्तन करना मुख्य विषय है; परंतु केवल कानूनों में ही परिवर्तन नहीं लाना है, अपितु प्रतिदिन की सुनवाई स्थानीय भाषा में हो, ब्रिटिशकालीन परंपराएं बंद हों तथा भारतीय संस्कृति के अनुसार वेशभूषा सुनिश्चित हो, ये कार्य भी उतनी ही गंभीरता से होने आवश्यक हैं । भारत का कोई सामान्य व्यक्ति जब न्यायालय में आता है, तब उसे न्याय खरीदना पडता है । किसी को लग सकता है कि ‘न्याय बिकता है’, ऐसा कहने से न्यायालय की अवमानना होती है; परंतु यह सच्चाई है । सत्र न्यायालय से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक कहीं भी न्यायप्रक्रिया पूर्ण करनी हो, तो उसके लिए लोगों को अधिवक्ताओं पर लाखों रुपए खर्च करने पडते हैं । और तो और सत्र न्यायालय में एक ही बार पैसे खर्च किए, तब भी आगे विरोधी पक्ष जब उस निर्णय को चुनौती देता है, तब यह खर्चा बढता ही जाता है । किसी व्यक्ति के लिए अधिवक्ता करना संभव न हो, और सरकार उसे अधिवक्ता उपलब्ध भी करा दे; तब भी वह अधिवक्ता उस व्यक्ति को न्याय दिलाने के निष्ठापूर्वक काम करेगा, यह कौन सुनिश्चित करेगा ? इसलिए आज के समय की वास्तविकता यही है कि जिसके पास पैसे हैैंं, वही न्यायालयीन प्रक्रिया चला सकता है । इसलिए न्याय पाने के लिए कोई सामान्य व्यक्ति अपने जीवनभर की जमा-पूंजी खर्च कर दे, तब भी उसे न्याय मिलेगा, यह सुनिश्चित नहीं है । ‘प्रधानमंत्री मोदी ने अंतरराष्ट्रीय अधिवक्ता परिषद’ के मंच पर यह गंभीर प्रश्न उठाया है । इसके लिए सभी अधिवक्ताओं तथा न्यायप्रणाली को एकत्रित काम करना आवश्यक है ।
न्यायव्यवस्था में सुधार लाते समय सिद्धांतप्रियता, धर्माचरण एवं साधना भी उतने ही महत्त्वपूर्ण घटक हैं । इनके बिना न्यायव्यस्था में सुधार असंभव हैं । अतः राष्ट्रीयता को आधारभूत मानकर कानून एवं न्यायव्यवस्था में परिवर्तन लाना तो आवश्यक है ही; परंतु उसके साथ ही ‘जूता जापानी, पतलून इंग्लिस्तानी’ गीत में तो ठीक हैं; तथापि न्यायव्यवस्था में वेशभूषा एवं हृदय, दोनों भारतीय संस्कृति के अनुसार हों, तो न्यायव्यवस्था की स्थिति में सुधार आएगा !