श्रीविष्णुतत्त्व की अनुभूति देनेवाले कलियुग के दिव्य अवतारी रूप : सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी !

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी

‘ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी का दिन प्रत्येक साधक श्री गुरुदेवजी के जन्मोसव के रूप में अपने अंतर्मन में अत्यंत भक्तिभाव से मनाता है । श्रीविष्णुस्वरूप सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी का जन्मोत्सव तो साधकों के लिए ‘अमृत से भी मधुर’ अनुपम एवं दिव्य पर्व है । इस दिन साधकों के अंतर्मन में भावभक्ति की शीतल धारा प्रवाहित होकर उन्हें आत्मानंद एवं आत्मशांति की अनुभूति होती है । ऐसे इस दैवी पर्व के उपलक्ष्य में श्रीविष्णु स्वरूप गुरुदेवजी की महिमा हम अपने हृदयमंदिर में स्वर्णिम अक्षरों से अंकित कर लेंगे ।

श्रीविष्णु अखिल जगत के पालनहार हैं ! जगत के साक्षात  संचालक ! सृष्टिकार्य हेतु आदिपुरुष परमात्मा से उत्पन्न त्रिदेवों में से एक ! ‘३३ कोटि देवताओं, ८८ सहस्र ऋषि-मुनियों, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, इतना ही नहीं; अपितु त्रिदेवों में से ब्रह्माजी एवं महादेव भी जिनके श्री चरणों में शरणागत होते हैं’, ऐसा दिव्य एवं सर्वश्रेष्ठ विष्णुरूप है । यही हैं वे आदिनारायण ! सप्तर्षियों ने सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी को ‘कलियुग के श्रीविष्णु के अवतार’ के रूप में गौरवान्वित किया है । इस अवतारी गुरुदेवजी के महासागर के समान अगाध चरित्र का वर्णन करने का यह प्रयास तो उस महासागर की एक बूंद के समान ही है; परंतु तब भी ब्रह्मोत्सव के इस स्वर्णिम अवसर का लाभ उठाते हुए श्री गुरुचरणों में यह लेखरूपी कृतज्ञतापुष्प समर्पित कर रही हूं ।

श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा नीलेश सिंगबाळजी

श्रीविष्णु के दिव्य स्वरूप का वर्णन करते हुए ‘श्रीविष्णुसहस्रनाम’ में कहा गया है,

शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये ।।

अर्थ : जिन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किया है, जो संपूर्ण जगत को व्यापनेवाले श्रीविष्णु हैं, जिनका रूप चंद्रमा की भांति अत्यंत प्रकाशमान है, जिनकी चार भुजाएं हैं तथा जिनका मुखमंडल प्रसन्न, तेजोमय एवं करुणा से ओतप्रोत है; समस्त विघ्न एवं बाधाओं से रक्षा होने हेतु इस दिव्य श्रीविष्णुरूप का हम ध्यान करते हैं ।

श्रीविष्णु के कलियुगांतर्गत कलियुग के इस श्रीजयंतावतार का अर्थात सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी का स्मरण करते ही उनके संदर्भ में उपरोक्त श्लोक का वर्णन अचूकता से सत्य सिद्ध होता है । इस वर्णन के द्वारा श्रीविष्णु स्वरूप श्री गुरुदेवजी के अवतारत्व तथा उनमें समाहित विष्णुतत्त्व का हम अवलोकन करेंगे ।

१. ‘श्री गुरुदेवजी का तेजोमय रूप उनके अवतारत्व तथा उनमें समाहित विष्णुतत्त्व की प्रतीति है !

‘श्रीविष्णु का मूल आदिनारायण रूप; साथ ही श्रीविष्णु के श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि रूपों का वर्ण श्यामल एवं नील होने का वर्णन मिलता है । कलियुग के श्रीविष्णु के इस श्रीजयंतावतार का रूप तो उससे भिन्न अर्थात ‘शुक्लांबरधरं विष्णुं…’ इस श्लोक में दिए गए वर्णन की भांति है । उनका वर्ण गौर एवं चंद्रमा की भांति प्रकाशमान है । ‘श्री गुरुदेवजी के अवतारी देहधारी रूप का तेज इतना प्रखर है कि ‘श्री गुरु को देखते ही उनके स्थान पर साधकों को केवल प्रकाश ही दिखाई देता है । इससे सिद्ध होता है कि यही श्री गुरुदेवजी के अवतारत्व तथा उनमें समाहित विष्णुतत्त्व की प्रतीति है । ‘वे ही जगत के संचालक श्रीविष्णु इस कलियुग में श्रीजयंतावतार के रूप में अवतरित हुए हैं’, यह त्रिवार सत्य है ।’

२. श्वेत वस्त्रों में सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी का रूप देखते समय ‘शुक्लांबरधर’ श्रीविष्णु का ही स्मरण होता है !

श्रीविष्णु का वर्णन करते हुए ‘शुक्लांबरधर’ अर्थात ‘श्वेत वस्त्र धारण किए हुए’, ऐसा कहा गया है । उसी प्रकार से सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी की सामान्य वेशभूषा भी श्वेत पजामा एवं श्वेत कुर्ता ही है । श्वेत वस्त्रों में उनके इस रूप को देखते समय ‘शुक्लांबरधर’ श्रीविष्णु का ही स्मरण होता है । साधकों ने अभी तक महर्षि की आज्ञा के अनुसार श्री गुरुदेवजी द्वारा धारण किए गए विभिन्न अवतारी रूपों के दर्शन किए । श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीविष्णु एवं श्री सत्यनारायण, इन सभी अवतारी रूपों के दर्शन से साधकों को श्री गुरुदेवजी में समाहित अवतारत्व का रहस्य उजागर हुआ । उस दर्शन से साधकों को जितना अवतारी तत्त्व मिला, उतना ही तत्त्व उनके श्वेत वस्त्रों में विद्यमान सादगीपूर्ण एवं सामान्य रूप से भी मिलता है । ‘श्री गुरुदेवजी के इस श्वेत वस्त्र में समाहित सहज-सामान्य रूप में भी सभी देवताओं के तत्त्व समाए हुए हैं’, इसकी साधकों ने अनुभूति ली है । यह सादगीभरा रूप भी साधकों को उतना ही भाता है; क्योंकि कलियुग के श्रीविष्णु का यह सहजरूप है ।

३. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी का स्मरण करते ही साधकों के मुख पर प्रसन्नता छा जाती है !

भगवान श्रीविष्णु अपने वात्सल्य से इस जगत का पालन कर रहे हैं । ‘श्रीविष्णु’ शब्द का उच्चारण करते ही तुरंत मनोहारी एवं करुणावत्सल एवं प्रसन्न मुखमंडल आंखों के सामने आता है तथा मन को आनंदित करता है । उसी प्रकार सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी का स्मरण करते ही साधकों के मुख पर अपनेआप ही प्रसन्नता छा जाती है । श्री गुरुदेवजी में इतना वात्सल्य है कि उन्हें केवल देखने पर ही नहीं, अपितु उनके स्मरणमात्र से ही साधकों के मुख पर प्रसन्नता छा जाती है । आत्मचक्षुओं द्वारा देखा गया यह प्रसन्न मुखमंडल एवं श्री गुरुदेवजी का वह रूप साधकों के मन को भाता है । उनका स्मरण होते ही साधकों के अंतःकरण में समाहित सभी भाव प्रकट होते हैं । श्री गुरुदेवजी के अपार वात्सल्य का यही प्रमाण है ।

यही है श्रीविष्णु स्वरूप गुरुदेवजी का वह प्रीतिमय प्रसन्न वदन रूप ! श्री गुरुदेवजी के प्रसन्न मुखकमल की ओर देखते ही अथवा मात्र उनका स्मरण करते ही हमारे मन में चल रहे सभी विचार रुक जाते  हैं । हमारे मन में चल रहा असंख्य विचारों का तूफान रुक जाता है । मानो उनके स्मरण से ही सभी संकट दूर होते हैं । यह तो परम मंगलदायक श्री गुरुदेवजी के केवल प्रसन्नवदन रूप की ही महिमा है । ‘श्रीविष्णु स्वरूप गुरुदेवजी का यह प्रसन्नवदन रूप हमारे हृदयमंदिर में सदैव विराजमान रहे’, यह उनके चरणकमलों में प्रार्थना है !

४. श्रीविष्णु के चार भुजाओं में स्थित आयुध

श्रीविष्णु का स्मरण करते ही हमें चतुर्भुज रूप में उनके दर्शन होते हैं । इन ४ भुजाओं में स्थित आयुधों के कार्य की प्रतीति अब श्रीजयंतावतार के माध्यम से भी हो रही है । इन आयुधों का भावार्थ निम्न प्रकार से है, ऐसा समझ में आया ।

४ अ. पांचजन्य शंख

पांचजन्य शंख

भगवान श्रीविष्णु के चतुर्भुज रूप की ओर देखते समय सर्वप्रथम उनके द्वारा ऊपर के हाथ में धारण किए हुए शंख का स्मरण होता है । भगवान का रूप प्रकट होते समय शंखध्वनि होती है । प्रथम ध्वनि कान में आती है तथा उसके उपरांत भगवान के दर्शन होते हैं । ‘जिसकी ध्वनि से दैत्य भाग जाते हैं’, ऐसे शंखों के सम्राट ‘पांचजन्य शंख’ को श्रीविष्णु ने धारण किया है ।

४ अ १. भगवान की इच्छा से बहुत शीघ्र ही हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के रूप में त्रिलोक में मंगलमय शंखनाद गूंज उठेगा ! : श्रीविष्णु स्वरूप सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी का जन्म तो केवल धर्मसंस्थापना के अवतारी कार्य के लिए ही हुआ है । ‘हिन्दू राष्ट्र’ के रूप में हम धर्मसंस्थापना के मूर्तिमंत रूप को प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं । श्री गुरुदेवजी ने हिन्दू राष्ट्र-स्थापना के कार्य का शंखनाद किया है । सर्वत्र के संत, आध्यात्मिक अधिकारी, ऋषि-मुनि एवं देवता भी इस कार्य का सम्मान कर रहे हैं । विभिन्न माध्यमों से हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का काल निकट आने की प्रतीति मिल रही है । भगवान की इच्छा से बहुत शीघ्र ही हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के रूप में यह मंगलमय शंखनाद त्रिलोक में गूंजनेवाला है, इसके प्रति मन में लेशमात्र भी संदेह न रखते हुए हम श्रीविष्णु स्वरूप गुरुदेवजी के अवतारी कार्य के प्रति संपूर्ण श्रद्धा रखेंगे ।

४ आ. सुदर्शन चक्र

सुदर्शन चक्र

४ आ १. भगवान के तेज का अंश तेजोमय ‘सुदर्शन चक्र’ विश्ववंदनीय है ! : भगवान श्रीविष्णु ने अपनी चार भुजाओं में से ऊपर के दाहिने हाथ की सबसे छोटी उंगली में ‘सुदर्शन चक्र’ धारण किया है । काल को संचालित करने की शक्ति भगवान के ही हाथ में है । इस जगत की सभी गतिविधियों पर भगवान का नियंत्रण है । यह चक्र जब तक भगवान के हाथ में है, तब तक वह ‘सु-दर्शन’ अर्थात हितकारी एवं कल्याणकारी दर्शन होता है; परंतु जब वह उनके हाथ से छूट जाता है, उस समय वह विश्व के लिए विनाशकारी सिद्ध होता है । भगवान के तेज का अंश तेजोमय ‘सुदर्शन चक्र’ विश्ववंदनीय है ।

४ आ २. भक्तों पर अखंड कृपा एवं चैतन्य की वर्षा करने के लिए यह सुदर्शन चक्र अब इस कलियुग में भी कार्यरत है ! : श्रीविष्णु के हाथ में स्थित चक्र असुरों के लिए मारक तथा भक्तों के लिए तारक है । यही चक्र भक्त अंबरीष के साथ निरंतर रहकर उसकी रक्षा करता था । उसी प्रकार यह चक्र इस कलियुग में भी भगवान के प्रति दृढ निष्ठा एवं भक्ति रखनेवाले समस्त श्रीविष्णु भक्तों की रक्षा अवश्य करेगा है । भक्तों पर अखंड कृपा एवं चैतन्य की वर्षा करने के लिए ही यह सुदर्शन चक्र अब भी कार्यरत है ।

काल पर भगवान का नियंत्रण है । उसी प्रकार ‘हिन्दू राष्ट्र कब लाना है ?’, यह भी भगवानस्वरूप सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी के ही हाथ में है । ‘अब जिस क्षण हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए पूरक काल आ जाए’, यह उनकी इच्छा होगी, उसी क्षण भूतल पर हिन्दू राष्ट्र की स्थापना होगी । तब तक हम सभी इस सूक्ष्म सुदर्शनचक्र से प्रक्षेपित गुरुकृपा एवं चैतन्य की अखंड वर्षा का अनुभव करेंगे ।

४ इ. गदा

गदा

४ इ १. प्रत्येक भगवद्भक्त जीव के साथ सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी का गदारूपी कवच अखंड कार्यरत है ! : भगवान के हाथ में सदैव रहनेवाला आयुध है गदा ! इस गदा का नाम है
‘कौमोदकी’ ! इसमें मोद का अर्थ है आनंद ! ‘संपूर्ण जगत को राक्षसों के कष्टों से बचाकर आनंद देनेवाली’, ऐसी है श्रीविष्णु की यह ‘कौमोदकी गदा’ । इस अत्यंत तेजस्वी कौमोदकी गदा को भगवान श्रीविष्णु ने अपने करकमल के अग्रभाग से अर्थात उंगली से अत्यंत प्रेमपूर्वक धारण किया है । श्रीविष्णु स्वरूप सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी द्वारा सिखाई साधना के कारण अखिल मानवजाति के सभी दुखों का हरण होता है तथा उसे आनंद प्राप्त होता है । श्री गुरुदेवजी की सिखाई साधना का यह अभेद्य कवच अनिष्ट शक्तियों के कष्टों से रक्षा करता है । यह साधना का अभेद्य कवच साधकों के लिए अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण विफल करनेवाली गदा की भांति कार्य करता है । श्रीविष्णु स्वरूप गुरुदेवजी का यह गदारूपी कवच प्रत्येक भगवद्भक्त जीव के साथ अखंड कार्यरत है, उसकी हम अनुभूति लेंगे ।

४ ई. कमल

कमल

४ ई १. श्रीविष्णु के हाथ में स्थित कमल की भांति ही सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने सभी साधकों को अपने करकमलों में संभालकर रखा है ! : श्रीविष्णु ने अपने चौथे हाथ में कमलपुष्प धारण किया है । उन्होंने उसे इतने धीरे से पकडा है कि उसकी ओर देखकर हमारे अंतःकरण में भाव जागृत होता है ।

श्रीविष्णु द्वारा हाथ में पकडे हुए इस कमल की भांति ही श्रीविष्णु स्वरूप सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी ने सभी साधकों को अपने करकमलों में बहुत हल्के से पकड रखा है । उन्होंने केवल साधकों को ही नहीं, अपितु जगत के सभी भगवद्परायण जीवों को भी इसी प्रकार संभाला है । अभी तक साधकों ने ऐसी अनेक अनुभूतियां ली हैं कि जिनसे उन्हें कठिन प्रसंगों में भी अपनेआप तथा सहजता से समाधान मिला है । भयंकर दुर्घटनाओं से उनकी रक्षा हुई है । साधकों का प्रारब्ध तीव्र होते हुए भी उन्हें उसका दंश नहीं झेलना पडा । यह सब कुछ सहजता अथवा संयोगमात्र से ही नहीं हुआ, अपितु यह सब विष्णु स्वरूप गुरुदेवजी की अपार कृपा है । विष्णु स्वरूप श्री गुरुदेवजी ने साधकों की रक्षा करने के लिए उन्हें अपने करकमलों में सुरक्षित रखा है । ‘आनेवाले भीषण आपातकाल में भी श्री गुरुदेवजी इस प्रकार सद्भक्तों की रक्षा करेंगे’, इसमें कोई संदेह नहीं । उसके कारण साधकों को ‘आपातकाल कब आया तथा कब चला गया’, यह भी समझ में नहीं आएगा ।

५. भगवान श्रीविष्णु के सहस्र नाम हैं तथा अनंत कार्य भी हैं । उसी प्रकार श्रीविष्णु स्वरूप सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी के भी अनंत कार्य हैं । उनका वर्णन करना असंभव है ।

‘श्रीविष्णुसहस्रनाम’ में समाहित केवल एक ही श्लोक का विश्लेषण करते समय भी हमें इतने सूत्र मिलते हों, तो ‘श्रीविष्णु के अनादि अनंत स्वरूप को जानना तथा उसका वर्णन करना’ असंभव बात है । ‘सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी श्रीविष्णु तत्त्व से परिपूर्ण हैं’, यह इसी का प्रमाण है । ऐसे सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी के जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में उनके विष्णुमय अनादि अनंत स्वरूप को कोटि-कोटि प्रणाम !

प्रार्थना

‘अखिल विश्व के कल्याण एवं धर्मसंस्थापना हेतु इस भूतल पर अवतरित हे नारायणस्वरूप सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी, ‘आपके श्रीविष्णुरूप का प्रसन्नवदन दिव्य रूप साधकों के चित्त में अंकित हो । ‘आप ही भक्तवत्सल, प्रीतिवत्सल एवं कृपावत्सल नारायण हैं’, इसके प्रति सभी साधकों में दृढ निष्ठा बनी रहे । आपमें समाहित श्रीविष्णु के अवतारी तत्त्व की अनुभूति लेते हुए सभी साधकों की श्रद्धा में अविरत वृद्धि हो’, आपके परम मोक्षदायी श्री चरणकमलों में यही प्रार्थना है ।’

– श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा नीलेश सिंगबाळजी, सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी की एक आध्यात्मिक उत्तराधिकारिणी (९.५.२०२३)