रामनाथी, १९ जून – भारतीय कानून आयोग के (‘लॉ कमिशन’ के) एक विवरण के अनुसार वर्ष २००० से २०१५ की समयावधि में देश के सत्र न्यायालयों ने कुल १ सहस्र ७९० लोगों को फांसी का दंड सुनाया । उनमें से १ सहस्र ५१२ प्रकरण उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गए थे । उनमें से केवल ४.३ प्रतिशत लोगों को फांसी दी गई । अन्यों की निर्दोष मुक्ति की गई । तो फिर सत्र न्यायालयों के न्यायमूर्तियों ने चुक की, ऐसा कहे ? एकाध सरकारी अधिकारी द्वारा चुक हो गई, तो जांच की जाती है, तो फिर न्यायाधिशों के अयोग्य निर्णयों का क्या ? इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने वर्ष १९७६ में ४ लोगों को फांसी का दंड सुनाया था । उनमें से एक की पुलिस की मुठभेड में मृत्यु हो गई, एक को फांसी हो गई, तो अन्य दोनों को दया के परिवाद से आजन्म कारावास का दंड दिया गया ।
एक ही प्रकार का अपराध होते हुए भी अपराधियों को भिन्न दंड क्यों दिया जाता है ? उसके पीछे क्या कर्मफलसिद्धांत है ? जब एकाध द्वारा बलात्कार के समान अपराध होता है, तब उसके पीछे ‘काम’ एवं ‘क्रोध’ ये षड्रिपुओं के दोष समाहित होते हैं । क्या उसका अध्ययन नहीं होना चाहिए ? विविध अपराधों के अभियोग चलाने के लिए विशेष न्यायालयों की स्थापना की जाती है, नए-नए कानून पारित होते हैं; परंतु ये अपराध जिन षड्रिपुओं के कारण होते हैं, उनका अध्ययन कब करोगे ? आंखो पर पट्टी बांधे हुए न्यायदेवता की मूर्ति कर्मफलन्याय सिद्धांत न माननेवाले पश्चिमी संकल्पना पर आधारित है । एकाध अभियोग की सुनवाई के समय न्यायालय अमेरिका, इंग्लैंड जैसे देशों के निर्णय का अध्ययन करता है, परंतु हमारे देश के कर्मफलसिद्धांत का अध्ययन क्यों नहीं होता ? न्यायव्यवस्था में कर्मफलन्याय सिद्धांत समाविष्ट करना अत्यावश्यक है, ऐसा हिन्दू विधिज्ञ परिषद के अध्यक्ष वीरेंद्र इचलकरंजीकर ने कहा । वे यहां चल रहे वैश्विक हिन्दू राष्ट्र महोत्सव के चतुर्थ दिवस (१९.६.२०२३) पर उपस्थितों को संबोधित कर रहे थे ।