इच्छित कार्य शुभमुहूर्त पर करने का महत्त्व

‘भारत में प्राचीन काल से महत्त्वपूर्ण कार्य शुभमुहूर्त पर करने की परंपरा है । हमारे दैनिक जीवन में मुहूर्ताें का संबंध समय-समय पर आता है । ‘मुहूर्त’ संबंधी प्राथमिक जानकारी इस लेख के माध्यम से समझ लेते हैं ।


१. मुहूर्त क्या है ?

मुहूर्त शब्द का ज्योतिषशास्त्रीय अर्थ है ‘४८ मिनट की कालावधि’; परंतु वर्तमान में प्रचलित अर्थ ‘शुभ अथवा अशुभ कालावधि’ है । भारत में वैदिक काल से महत्त्वपूर्ण कार्य शुभ मुहूर्त पर करने की परंपरा है । श्रौत, गृह्य एवं धर्मसूत्रों में (धर्मशास्त्र बतानेवाले प्राचीन ग्रंथ) धार्मिक विधि एवं संस्कार कौन से मुहूर्त पर करें, यह भी बताया है । मुहूर्तों के विषय में स्वतंत्र जानकारी देनेवाले अनेक ग्रंथ हैं, इसलिए उनमें अनेक महत्त्वपूर्ण काम किस मुहूर्त पर करें, यह विस्तार से दिया है । ज्योतिष कालमापन का एवं कालवर्णन का शास्त्र होने से ‘मुहूर्त निकालना’ केवल ज्योतिषशास्त्र द्वारा संभव है । ज्योतिषशास्त्र ६ वेदांगों में से एक है; क्योंकि काल का ज्ञान होने पर ही वेदों में बताए हुए कर्म कर सकते हैं ।

२. मुहूर्त देखकर कार्य आरंभ करने के पीछे उद्देश्य

विश्व में होनेवाली प्रत्येक घटना विशिष्ट स्थल एवं विशिष्ट समय पर होती है; अर्थात प्रत्येक घटना पर स्थल-काल का बंधन होता है । किसी भी कार्य में सफलता पाने के लिए स्थल एवं काल की अनुकूलता आवश्यक होती है । इस संदर्भ में महाभारत का निम्नांकित श्लोक मार्गदर्शक है ।

‘नादेशकाले किञ्चित्स्यात् देशकालौ प्रतीक्षताम् ।’
– (महाभारत, वनपर्व, अध्याय २८, श्लोक ३२)
अर्थ : देशकाल (स्थल-काल) अनुकूल न होने पर कुछ साध्य नहीं होगा । अतः देशकाल की ओर ध्यान दें ।

अतः ‘कार्य सफल होने हेतु काल अनुकूल होना’ यह मुहूर्त देखकर कार्य आरंभ करने का उद्देश्य है ।

ऐसा नहीं है कि हिन्दू धर्म ने केवल महत्त्वपूर्ण कार्य ही काल देखकर करने के लिए कहा है, अपितु ‘मनुष्य को किस युग में कौन सी साधना करनी है ?, जीवन के किस कालखंड में कौन सा पुरुषार्थ साध्य करना है ?, दैनिक नित्यकर्म कब करने हैं ?’ इत्यादि के विषय में विस्तार से बताया गया है । संक्षेप में, हिन्दू धर्म कालानुसार जीवन आचरण की सीख देता है ।

३. मुहूर्त के लिए विचार में लिए जानेवाले घटक

श्री. राज कर्वे

मुहूर्त के लिए तिथि, नक्षत्र, वार, योग एवं करण, मुख्य रूप से इन ५ अंगों का विचार होता है । आवश्यकता के अनुसार मास, अयन (उत्तरायण एवं दक्षिणायन) एवं वर्ष का विचार होता है । मुहूर्त निर्धारित करते समय कार्य के स्वरूप के लिए पूरक गुणधर्मवाली तिथि, नक्षत्र इत्यादि घटक चुने जाते हैं । उदा. वर्षा आरंभ करने के लिए अश्विनी, मृग, पुनर्वसु, चित्रा इत्यादि वायुतत्त्व की (गति दर्शानेवाले) नक्षत्र उपयुक्त हैं; विवाह संस्कार के लिए अमावस्या एवं ‘रिक्ता’ तिथि वर्ज्य हैं (चतुर्थी, नवमी एवं चतुर्दशी, ये रिक्ता तिथि हैं । रिक्ता अर्थात न्यूनता); विद्या प्राप्त करने हेतु अश्विनी, पुष्य, हस्त, रेवती इत्यादि ‘देवगणी’ नक्षत्र (सत्त्वगुणी नक्षत्र) योग्य हैं; देवताओं की प्रतिष्ठापना करने के लिए उत्तरायण का काल प्रशस्त है इत्यादि ।

४. शुभ मुहूर्त पर कार्य करना संभव न हो तो क्या करें ?

कभी-कभी मुहूर्त पर कार्य आरंभ करना व्यक्ति के हाथों में नहीं होता, उदा. परीक्षा हो, सार्वजनिक वाहनों से लंबी यात्रा करनी हो इत्यादि । ऐसे समय पर उपास्यदेवता को कार्य की अडचनें दूर होने के लिए एवं निर्विघ्न¸रूप से कार्य संपन्न होने हेतु भावपूर्ण प्रार्थना करें ।

५. संतों द्वारा बताए गए समय के पीछे उनकी संकल्पशक्ति होेने से वही मुहूर्त होना

संतों द्वारा कार्य के लिए समय बताया गया हो, तो मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं होती । संत, ईश्वरस्वरूप होेते हैं । ईश्वर स्थल एवं काल के परे होते हैं । इसलिए संतों द्वारा बताया गया समय स्थल एवं काल के परे होता है । इसलिए संतों द्वारा बताए गए किसी कार्य के पीछे उनकी संकल्पशक्ति होने के कारण वही मुहूर्त होता है ।’

– श्री. राज कर्वे, ज्योतिष विशारद, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (१०.१२.२०२२)