टिप्पणी : इमाम – मस्जिद में प्रार्थना करवानेवाला प्रमुख
१. मस्जिद के इमामों को वेतन देनेवाला सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय संविधान विरोधी ?
देहली के श्री. सुभाष अग्रवाल, सूचना अधिकार कार्यकर्ता ने ‘देहली वक्फ बोर्ड’ से पूछा कि अब तक विविध इमामों को कितना वेतन दिया गया है ?’, इसकी जानकारी मांगी थी; परंतु अनेक दिन बीत जाने पर भी उन्हें इसकी जानकारी नहीं दी गई । इसलिए केंद्रीय सूचना आयोग के आयुक्त श्री. उदय माहूरकर ने ‘देहली वक्फ बोर्ड’ को आदेश दिया कि श्री. अग्रवाल को उन्हें वांछित प्रदान की जाए ! इसके साथ ही उन्होंने कहा देहली वक्फ बोर्ड को यह जानकारी देने में विलंब के कारण हुई परेशानी की भरपाई करनी चाहिए !
श्री. उदय माहूरकर बोले, वर्ष १९९३ में ‘अखिल भारतीय इमाम संघ’ की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका प्रविष्ट की गई थी । उसमें ‘मस्जिद में ५ बार अजान देने के लिए वक्फ बोर्ड द्वारा वेतन मिलने’ की मांग भी की गई थी । तदुपरांत सर्वोच्च न्यायालय ने ‘अखिल भारतीय इमाम संघ’ के पक्ष में निर्णय दिया । सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय अयोग्य होने से वहां कुछ अनुचित ही आरंभ हो गया । इस निर्णय के कारण सामाजिक सुसंवाद संकट में पड गया एवं राजनीतिक वाद-विवाद का सूत्र बन गया ।
२. राजनीतिक दलोेंं की भांति मुसलमानों की चापलूसी करनेवाला सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय !
श्री. माहूरकर आगे कहते हैं, सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से करदाताओं का संवैधानिक अधिकार भंग हुआ । इसके लिए उन्होंने संविधान के अनुच्छेद २७ का संदर्भ दिया । करदाता अपने कडे परिश्रम से पसीना बहाकर सरकार को कर देते हैं । उनके कर के स्वरूप मिले पैसों से एक विशिष्ट धर्मियों को प्रसन्न करने के लिए मस्जिद की सेवा के इमामों को वेतन देना अवैध है । इसके साथ ही ऐसा निर्णय लेना, संविधान विरोधी भी है । मुसलमानों को सदैव प्रसन्न करने की प्रवृत्ति के कारण वर्ष १९४७ में भारत का विभाजन होकर, पाकिस्तान का निर्माण हुआ । इस प्रकार के निर्णय का अर्थ है पुन: एक बार विभाजन का संकट निर्माण करना !
श्री. माहूरकर इतने पर ही नहीं रुके, अपितु उन्होंने इस निर्णय पत्र की प्रति (कॉपी) केंद्रीय कानूनमंत्री को भेजने की सूचना दी । वे बोले, ‘देश में प्रत्येक धर्म के साथ समान व्यवहार हो, ऐसा देखा जाना चाहिए । अन्यथा देश की एकता एवं अखंडता नष्ट होगी । इसके साथ ही संविधान के २५ से २८ अनुच्छेदों का ‘लेटर एंड स्पिरिट’ में (कानून का उद्देश्य समझकर) उपयोग हो । विशेष रूप से अनुच्छेद २७ समान करदाताओं के पैसे इमामों के वेतन के लिए व्यय न करें, ऐसा आशय है । इस जानकारी से स्पष्ट हुआ कि देहली सरकार इमामों के वेतन के लिए प्रतिवर्ष ६२ करोड रुपए व्यय करती है, जबकि देहली वक्फ बोर्ड की स्वयं की आय ही प्रति माह ३० लाख रुपए है । मस्जिद की सेवा के लिए प्रत्येक इमाम को सामान्यत: १६ से १८ सहस्र रुपए वेतन दिया जाता है, ऐसा धक्कादायक ब्योरा आया है । श्री. माहूरकर आगे कहते हैं कि हिन्दुओं के मंदिर के पुजारियों को १-२ सहस्र रुपए का ही वेतन मिलती है । वह भी सरकार द्वारा अधिग्रहित किए हुए मंदिरों से जिससे सरकार ने करोडों रुपए अर्जित किए होते हैं ।
आज तक अंग्रेजों ने अथवा स्वतंत्रता के उपरांत किसी भी केंद्र सरकार ने एक भी मस्जिद अथवा चर्च को सरकारी नियंत्रण में नहीं लिया । ऐसा होते हुए वर्ष १९९३ में ‘ऑल इंडिया इमाम ऑर्गनाइजेशन’ द्वारा केंद्र सरकार एवं अन्य के विरुद्ध सीधे सर्वोच्च न्यायालय में याचिका प्रविष्ट की गई । उसमें विविध मस्जिदों में सेवा करनेवाले, अजान देनेवाले एवं मौलवियों को वेतन देने की मांग की गई ।
केंद्र सरकार एवं विविध राज्य सरकार ने ऐसा प्रतिपादन किया, ‘मस्जिद में सेवा करनेवाले धर्म के प्रति निष्ठावान होने से वे नि:शुल्क (ऑनररी) सेवा करते हैं । वर्ष १९९३ से पूर्व मुसलमान पंथियों में मस्जिद में की गई सेवा के लिए वेतन देने की संकल्पना नहीं थी । इसके साथ ही वक्फ कानून में कहीं भी ऐसी कानूनी धारा नहीं है कि इन व्यक्तियों को केंद्र सरकार, राज्य सरकार, केंद्रीय अथवा राज्य स्तरीय वक्फ बोर्ड द्वारा वेतन दिया जाए । ऐसा कोई भी कानून अथवा आधार नहीं है । इस कारण उनकी रिट याचिका निरस्त (खारिज) की जाए’ । ऐसा प्रतिवाद करने के पश्चात भी सर्वोच्च न्यायालय को उनके प्रति अथाह प्रेम उमड पडा एवं उन्होंने यह निर्णय दिया, जो हिन्दू धर्मी एवं मुस्लिम पंथियों में भेदभाव करनेवाला है । यह तो किसी राजकीय पक्ष समान चापलूसी करनेवाला निर्णय है ।
३. मुसलमानों को विशेष महत्त्व देनेवाले सर्वोच्च न्यायालय एवं विविध उच्च न्यायालयों के निर्णयों को केंद्र सरकार द्वारा निरस्त करना आवश्यक ! १३ मई १९९३ को सर्वोच्च न्यायालय के सदस्य पीठ द्वारा दिए गए निर्णय में केंद्र सरकार एवं केंद्रीय वक्फ बोर्ड को ऐसा आदेश दिया गया कि मस्जिद में सेवा करनेवाले इमामों को कितना वेतन दिया जाए ? इस विषय में वे ६ माह की अवधि में योजना बनाएं । केंद्र सरकार कानून बनाकर मुस्लिम पंथियों को ऐसा विशेष महत्त्व देनेवाले सर्वोच्च न्यायालय अथवा विविध उच्च न्यायालयों के निर्णय को निरस्त करे । हिन्दुओं के मतों पर चुनकर आनेवाली हिन्दुत्वनिष्ठ सरकार को यह काम तुरंत करना चाहिए, बहुसंख्यक भारतीयों को ऐसा लगता है ।’
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ।
– (पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णी, मुंबई उच्च न्यायालय.