‘हिन्दू धर्म में बताए गए प्रमुख १६ संस्कारों में से ‘नामकरण’ ५ वां संस्कार है । नवजात शिशु के जन्म के १२ वें अथवा १३ वें दिन उसका नामकरण संस्कार किया जाता है । ‘शिशु में विद्यमान बीजदोष एवं जन्मजात दोष नष्ट हों, उसकी आयु बढे तथा इस विश्व में व्यवहार करना उसके लिए सरल हो’, इसके लिए नामकरण संस्कार किया जाता है । धर्मशास्त्र में बताए गए नवजात शिशु के नाम रखने की पद्धतियों तथा उनका महत्त्व इस लेख के द्वारा हम समझ लेते हैं । लेखांक २
१. नवजात शिशु के नामकरण की पद्धतियां
धर्मशास्त्र में नवजात शिशु का नामकरण करने की ४ पद्धतियां बताई गई हैं । देवता, माह, नक्षत्र एवं व्यवहार से संबंधित ये ४ पद्धतियां हैं, जिनकी जानकारी आगे दी गई है ।
१ अ. देवता से संबंधित नाम : यह नाम रखते समय उस कुल के जो कुलदेवता हों, उनके नाम के सामने दास, शरण इत्यादि उपपद लगाकर यह देवतानाम रखा जाता है । उदा. दुर्गादास, अंबादास इत्यादि
१ आ. माह से संबंधित नाम : जिस चंद्रमाह में (मराठी माह में) शिशु का जन्म होता है, उस माह से संबंधित नाम रखा जाता है । चैत्रादि १२ माह तथा उनसे संबंधित लडके एवं लडकियों के नाम निम्न सारणी में दिए गए हैं –
१ इ. नक्षत्र से संबंधित नाम : जिस नक्षत्र में शिशु का जन्म हुआ हो, उस नक्षत्र से संबंधित नाम रखा जाता है । नक्षत्र पर आधारित नाम रखने की निम्न २ पद्धतियां हैं –
१ इ १. नक्षत्र के नाम को प्रत्यय लगाकर नाम रखना : नक्षत्र के नाम को संस्कृत भाषा के अनुसार ‘जातः,’ (जन्मा हुआ) इस अर्थ से तद्धित प्रत्यय लगाकर नक्षत्र नाम रखा जाता है, उदा. कृत्तिका से कार्तिक, रोहिणी से रौहिण इत्यादि । कन्या का नक्षत्र नाम रखते समय नक्षत्र का जो नाम होता है, वही रखा जाता है । उदा. कृत्तिका, रोहिणी इत्यादि
१ इ २. नक्षत्र के चरणाक्षर पर आधारित नाम रखना : प्रत्येक नक्षत्र के ४ पाद अर्थात ४ चरण होते हैं । नक्षत्र के प्रत्येक चरण को विशिष्ट अक्षर दिया गया है । उदा. अश्विनी नक्षत्र के ४ चरणों को क्रमशः ‘चू, चे, चो, ला’ अक्षर हैं । शिशु का जन्म नक्षत्र के जिस चरण में होता है, उस चरण के अक्षर पर आधारित नक्षत्र नाम रखा जाता है, उदा. अश्विनी नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्म हो, तो ‘चू’ अक्षर पर आधारित ‘चूडेश्वर’ इत्यादि नाम रखा जाता है ।
१ ई. व्यवहार से संबंधित नाम : यह नाम नित्य व्यवहार में उपयोग करने के लिए रखा जाता है । इसके संबंध में शास्त्र ने आगे दिए नियम बताए हैं – ‘व्यावहारिक नाम में क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग एवं प वर्ग में से तीसरा, चौथा एवं पांचवा वर्ण (ग, घ, ङ, ज, झ, ञ, ड, ढ, ण, द, ध, न, ब, भ, म) एवं ‘ह’ में से कोई भी वर्ण नाम के आरंभ में होना चाहिए । नाम के मध्य भाग में अंतस्थ वर्ण (य, र, ल अथवा व) होना चाहिए । पुत्र के नाम में अक्षरों की संख्या सम (२, ४ इत्यादि) हो तथा नाम अकारान्त हो, उदा. जय, नीलकंठ, देवव्रत, भालचंद्र, गिरिधर इत्यादि । कन्या के नाम में अक्षरों की संख्या विषम (३, ५ इत्यादि) हो तथा नाम आकारान्त अथवा ईकारान्त हो, उदा. गायत्री, नलिनी, जान्हवी, देवश्री इत्यादि’ (संदर्भ : ‘धर्मसिंधु’)
१ ई १. नित्य व्यवहार से संबंधित नाम रखने के लिए बताए गए नियमों का शास्त्र : ‘क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग एवं प वर्ग में से पहला एवं दूसरा वर्ण (क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ), ये सभी पृथ्वी तथा आप तत्त्वप्रधान होने के कारण तमोगुणी हैं । अतः ये वर्ण नाम के आरंभ में नहीं होने चाहिए । पुत्र का नाम सम तथा कन्या का नाम विषम अक्षरसंख्या से युक्त होना चाहिए; क्योंकि सम संख्या शिवप्रधान तथा विषम संख्या शक्तिप्रधान है ।’
(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘सोलह संस्कार’)
२. नाम अर्थपूर्ण एवं सात्त्विक होना चाहिए
व्यावहारिक नाम रखते समय वह अर्थपूर्ण, सात्त्विक एवं उच्चारण में सरल होना चाहिए । देवता, पौराणिक व्यक्ति, धर्मपरायण राजा, नक्षत्र, प्रकृति, विद्या, बुद्धि, तेज, सौंदर्य, बल, वृद्धि इत्यादि से संबंधित नाम रखने चाहिए, उदा. नारायण, सत्यवान, दशरथ, दयानंद, ज्ञानेश्वर, अश्विनी, उत्तरा, गिरिजा, मंजिरी, मैथिली इत्यादि । अर्थहीन नाम (उदा. बंडू, पिंटू, मोनू इत्यादि) तथा विदेशी भाषा के नाम (पिंकी, बेबी, डॉली इत्यादि) नहीं रखने चाहिए । संस्कृत भाषा दिव्य (देववाणी) होने के कारण उसमें विद्यमान सात्त्विकता का लाभ मिलने हेतु संस्कृतनिष्ठ नाम रखने चाहिए ।
३. धर्मशास्त्र में बताए अनुसार नाम क्यों होना चाहिए ?
धर्म ने मनुष्य की सर्वांगीण अर्थात आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक उन्नति का विचार कर उसके लिए जीवनपद्धति निर्धारित कर दी है । इसके विपरीत आधुनिक विज्ञान केवल आधिभौतिक अंग का विचार करती है । व्यक्ति के रखे गए नाम का उपयोग केवल, नित्य व्यवहार करना सरल हो, इतने तक सीमित नहीं है । प्रत्येक अक्षर में बीज रूप में विशिष्ट शक्ति समाहित होती है । व्यक्ति के नाम का उस पर आधिदैविक स्तर पर (सूक्ष्म ऊर्जा के स्तर पर) तथा आध्यात्मिक स्तर पर (जीवात्मा के स्तर पर) परिणाम होता है । उसके कारण ‘नाम के आरंभ एवं मध्य में कौन से अक्षर होने चाहिए, नाम में कौन से अक्षर नहीं होने चाहिए, स्त्री एवं पुरुष के नाम में कितने अक्षर होने चाहिए ?’ इत्यादि बातों का धर्मशास्त्र में व्यापक विचार किया गया है । इसका महत्त्व ध्यान में लेकर अभिभावक उनके बच्चों के नाम धर्मशास्त्र के अनुसार रखने का प्रयास करें ।’
– श्री. राज कर्वे, ज्योतिष विशारद, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (१४.१०.२०२२)