समान नागरिक संहिता की आवश्यकता क्यों ?

(पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णी

१. मुसलमान पति द्वारा पत्नी का नियंत्रण मिलने के लिए पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में याचिका प्रविष्ट करना

जावेद नामक एक २६ वर्षीय मुसलमान युवक ने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में ‘हेबियस कॉर्पस’ याचिका प्रविष्ट की । (‘हेबियस कॉर्पस’ का अर्थ है किसी व्यक्ति को अवैध रूप से बंद कर रखा गया हो, तो उच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद २२६ के अनुसार हेबियस कॉर्पस याचिका प्रविष्ट कर लेता है ।) इस याचिका में उसने कहा कि १६ वर्षीय लडकी, जो मेरी पत्नी है, उसे सेक्टर १६, पंचकुला के सुधारगृह में रखा गया है । २७.७.२०२२ को मेरा उसके साथ विवाह हुआ है तथा वह वैध रूप से उसकी पत्नी है; इसलिए उसे मेरे पास भेजा जाए । ये दोनों ही मुसलमान हैं । उसने आयु के प्रमाण के रूप में न्यायालय में दोनों का आधारकार्ड प्रस्तुत किया । उनके ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ के अनुसार कोई लडकी बडी होती है (प्रजनन की क्षमता प्राप्त कर लेती है), तो वह अपनी इच्छा के अनुसार विवाह कर सकती है । उसके कहने के अनुसार उसके माता-पिता उसका विवाह उसके चाचा के साथ करनेवाले थे; परंतु यह विवाह उसे स्वीकार नहीं था । वह जावेद के साथ प्रेम करती है । उन्होंने विवाह किया है तथा वे दोनों पति-पत्नी हैं । लडकी के पिता द्वारा किए गए परिवाद के उपरांत लडकी को न्याय-दंडाधिकारी के सामने उपस्थित किया गया । उस समय साक्ष देते हुए उसने बताया कि यह विवाह उसकी इच्छा से हुआ है; इसलिए उसे सुधारगृह में न रखकर उसके पति के साथ भेज दिया जाए ।

२. याचिकाकर्ताओं का विवाह को वैध प्रमाणित करने के लिए ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ का आधार लेना

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में किए गए वाद-विवाद के आधार पर ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ के लेखक सर दिनशॉ मुल्ला की पुस्तक में दिए गए अनुच्छेद १९५ का आधार लिया गया । उसमें उन्होंने कहा है कि कोई भी मुसलमान पुरुष अथवा पुरुष ‘प्युबर्टी’ (प्रजनन हेतु सक्षम) हो, तो वह व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार विवाह कर सकता है । उसके उपरांत अन्य एक लेखक हिदायतुल्ला के मुसलमान कानून के विषय पर लिखी पुस्तक में समाहित अनुच्छेद २०१ एवं फैज बदरुद्दीन की पुस्तक में समाहित अनुच्छेद २७ के आधार पर यह तर्क दिया गया कि मुसलमान लडकी की आयु ९ से १५ वर्ष तथा लडका १५ वर्ष का हो, तो ऐसे लडके-लडकियां अपनी इच्छा के अनुसार विवाह कर सकते हैं तथा यह विवाह ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ के अनुसार वैध प्रमाणित होता है ।

३. उच्च न्यायालय द्वारा ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ के आधार पर निर्णय देकर लडकी को याचिकाकर्ता को सौंपने का आदेश देना

भारत में बालविवाह पर रोक लगाने के लिए ‘बाल विवाह प्रतिबंधक कानून, २००६’ बनाया गया है । उसके अनुसार विवाह के लिए लडके की आयु २१ वर्ष तथा लडकी की आयु १८ वर्ष निर्धारित की गई है; इसलिए इस कानून के अनुच्छेद १२ के अनुसार यह विवाह अवैध प्रमाणित होता है; परंतु यही विवाह ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ के अनुसार वैध प्रमाणित होता है । उसके कारण मुस्लिम कानून के आधार पर उच्च न्यायालय ने यह आदेश दिया कि लडकी को सुधारगृह से बाहर निकालकर याचिकाकर्ता जावेद के साथ भेजा जाए ।
यह निर्णय देते समय उच्च न्यायालय ने मुसलमानों से संबंधित अनेक पुराने निर्णयों का संदर्भ दिया । मुसलमानों के संदर्भ में अवयस्क लडकी ने माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध विवाह किया, तब भी ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ के अनुसार अनुमति मिलती है । इस कानून के अंतर्गत उनकी याचिकाएं पारित की गईं । यहां एक बात ध्यान में लेनी चाहिए कि भारतीय संविधान के अनुसार बनाए गए कानून सामान्य लोगों के लिए अनिवार्य प्रमाणित होते हैं, तो दूसरी ओर मुसलमानों को ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ के माध्यम से भारतीय कानून से छूट दी जाती है ।

४. बालविवाह रोकने के लिए केंद्र सरकार के द्वारा ‘बालविवाह निषेध अधिनियम २००६’ बनाया जाना

स्वतंत्रता-पूर्व काल में अर्थात वर्ष १९२९ में ‘बालविवाह निषेध अधिनियम’ बनाया गया था । वर्ष २००७ में वह कानून रद्द कर उससे अधिक कठोर ‘बालविवाह निषेध अधिनियम २००६’ बनाया गया । वर्ष १९९५-९६ में भारत में बडे स्तर पर बालविवाह की प्रथा आरंभ हुई । उसके कारण महिला आयोग ने बालविवाह रोकने का सुझाव दिया था । सामाजिक संगठनों ने भी इसके विरुद्ध आवाज उठाई थी । इस कानून के अनुसार विवाह के लिए लडकी की आयु १८ वर्ष, तथा लडके की आयु २१ वर्ष सुनिश्चित की गई है । १८ वर्ष की आयु के व्यक्ति ने बालवधू से विवाह किया, तो आरोपी को २ वर्ष का सश्रम कारावास तथा १ लाख रुपए का आर्थिक दंड हो सकता है, साथ ही बालविवाह के लिए उत्तरदायी लोगों को भी २ वर्ष के सश्रम कारावास एवं १ लाख रुपए का आर्थिक दंड हो सकता है । नियम १३ में बालविवाह न हों; इसके लिए इस प्रकार के प्रतिबंधक आदेश अंतर्भूत किए गए हैं । इन सभी बातों में हिन्दू विवाह अधिनियम १९५५ का उल्लेख किया गया है, उसमें नियम १८ में भी इसी प्रकार का प्रावधान रहेगा । यहां जानबूझकर हिन्दू विवाह अधिनियम का उल्लेख किया; किंतु शासनकर्ताओं अथवा विधि सभाओं ने धर्मांधों को यथासंभव छूट दे रखी है । इस स्थिति में परिवर्तन लाना आवश्यक है ।

५. समान नागरिक संहिता लागू की जाए; इसके लिए हिन्दुओं को संगठित होकर प्रयास करना आवश्यक !

अनेक उच्च न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालय में विवाह, विवाह विच्छेद, संपत्ति तथा जन्म-मृत्यु से संबंधित अभियोग आते हैं । उस समय प्रत्येक बार मुसलमान लोग एक ढाल के रूप में ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ का उपयोग करते हैं । कभी-कभी उसके अनुसार न्यायालय निर्णय देते हैं । अन्य समय पर लडकी अवयस्क होने से, उसे भगाकर विवाह करना अवैध प्रमाणित हो जाता है । लडकी को उठाकर उसके साथ विवाह करना अवैध प्रमाणित हो जाता । लडकियों को उठाकर ले जानेवालों के विरुद्ध ‘पॉक्सो’, अन्य कानून तथा भारतीय आपराधिक संहिता के अनुच्छेदों के अनुसार अपराध प्रविष्ट किया जाता; परंतु यहां धर्मांधों के लिए एक भिन्न निर्णय सुनाया गया ।
‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ के आधार पर वादविवाद कर ये लोग उन्हें अपेक्षित आदेश प्राप्त कर लेते हैं; उसके कारण प्रत्येक बार भारतीय कानूनों का पालन करना उन्हें सुविधाजनक नहीं लगता । भारत को स्वतंत्रता मिले ७५ वर्ष पूर्ण हो गए । आज के समय में स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है । कानूनों का पालन केवल हिन्दू तथा अन्य पंथियों को ही करना चाहिए; परंतु धर्मांधों को इसमें छूट मिले, तो क्या यह संविधान के अनुसार है ? धर्मांधों के संदर्भ में महिलाओं एवं बच्चों के अधिकारों की रक्षा हेतु लडनेवाले लोग इसके मूकदर्शक बने रहते हैं । प्रसारमाध्यम भी उन्हीं का साथ देते हैं । यह सब तुरंत बंद कर देना चाहिए । उसके लिए भारत में समान नागरिक संहिता लागू करना आवश्यक है । इस दृष्टि से केंद्र सरकार को भी तुरंत कदम उठाने चाहिए । सभी हिन्दुओं को संगठित होकर समान नागरिक संहिता तुरंत लागू किए जाने की मांग करनी चाहिए ।
संक्षेप में बताना हो, तो प्रत्येक न्यायालय भिन्न-भिन्न निर्णय देते हैं । पुलिस एवं प्रशासन को उनके विचार के अनुसार किन निर्णयों का पालन करना चाहिए, इसकी स्वतंत्रता मिलती है । अतः न्यायालय के निर्णय समान रहें; इसके लिए न्यायतंत्र में कुछ परिवर्तन लाने आवश्यक हैं ।’

– (पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णी, अधिवक्ता, मुंबई उच्च न्यायालय । (१६.११.२०२२) 

अवयस्क लडकी को न्याय देनेवाला केरल उच्च न्यायालय का निर्णय !

१. धर्मांधों द्वारा बंगाल की अवयस्क लडकी का अपहरण कर बंगाल लाकर उस पर अत्याचार करना

कुछ दिन पूर्व ही केरल उच्च न्यायालय का एक निर्णय आया है । धर्मांधों ने बंगाल से एक १४-१५ वर्ष की अवयस्क लडकी का अपहरण कर उसे केरल लाया । उसके उपरांत ३१ वर्षीय खालेदूर रहमान नामक व्यक्ति ने अनेक दिनों तक उस पर शारीरिक अत्याचार एवं बलात्कार किया । जब वह गर्भवती हो गई, तब उसे उपचार के लिए चिकित्सालय ले जाया गया । उस समय इस लडकी की आयु बहुत अल्प है, यह बात डॉक्टरों के ध्यान में आई तथा उन्होंने तुरंत पुलिस को बुलाया । ३१.८.२०२२ को पुलिस ने जब इस धर्मांध से पूछताछ की, तब उसने यह बताया कि ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ के अनुसार १४.३.२०२१ को उन दोनों का विवाह हुआ है तथा वे पति-पत्नी हैं । इस लडकी का बंगाल से अपहरण किया गया, तब वह १४ वर्ष ४ माह की थी । अब वह केवल १५ वर्ष की है । इस प्रकरण में पुलिस प्रशासन ने थिरुविला पुलिस थाने में अपराध पंजीकृत कर ‘पॉक्सो’ एवं भारतीय आपराधिक संहिता में समाहित अनुच्छेदों के अंतर्गत उसे कारागार में डाल दिया ।

२. जमानत मिलने के लिए धर्मांध द्वारा न्यायालय में आवेदन देना

धर्मांध ने उसे जमानत मिलने के लिए न्यायालय में आवेदन दिया; परंतु जिला सत्र न्यायालय ने उसे अस्वीकार कर दिया । उसके उपरांत जमानत हेतु वह केरल उच्च न्यायालय गया । वहां वह ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ की रट लगाए हुए था, जिसका सरकारी अधिवक्ता ने विरोध किया । सरकारी अधिवक्ता ने कहा, ‘आरोपी ने अवयस्क लडकी का उसके माता-पिता की सहमति के बिना बंगाल से अपहरण किया । इस प्रकार से ‘पॉक्सो’ कानून द्वारा अस्वीकृत विवाह को कैसे वैध माना जा सकता है ? ‘पॉक्सो’ एक विशेष कानून है, तो ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ एक सामान्य कानून है । अतः इस प्रकरण में ‘पॉक्सो’ कानून का उल्लंघन नहीं किया जा सकता ।’

३. केरल उच्च न्यायालय ने आरोपी की प्रतिभू (जमानत) अस्वीकार की

इस प्रकरण में दोनों पक्षों के वाद-विवाद सुनने के उपरांत तथा विभिन्न उच्च न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा दिए गए निर्णयों के संदर्भ ध्यान में लेने के उपरांत केरल उच्च न्यायालय ने इस वासनांध पति की प्रतिभू (जमानत) अस्वीकार कर दी । इस प्रकरण में उच्च न्यायालय ने बताया कि विशेष कानून (पॉक्सो), बालविवाह प्रतिबंधक कानून एवं सामान्य कानून (मुस्लिम व्यक्तिगत कानून), इनमें से जो कानून सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, उसे ही माना जाना चाहिए । विशेष कानून के चंगुल से छूटने के लिए जब ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ का आधार लिया जाएगा, तब कुछ गिने-चुने लोगों का विचार न होकर विशेष कानून का ही विचार होना चाहिए । यहां न्यायालय यह कहता है, ‘पॉक्सो’ कानून का अनुच्छेद ‘४२ अ’ बताता है कि ‘पॉक्सो’ कानून को अन्य कानूनों के बिना अतिरिक्त मानने का यह अर्थ है कि उसमें समाहित अनुच्छेदों तथा ‘पॉक्सो’ कानून के नए अनुच्छेदों को बढाकर अपराध पंजीकृत किए जाएं । यहां केरल उच्च न्यायालय ने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय, साथ ही अन्य उच्च न्यायालयों द्वारा धर्मांधों के पक्ष में दिए गए निर्णयों को अस्वीकार करने के लिए यथोचित कारण दिए । उसमें सर्वोच्च न्यायालय के ‘जे.के. कॉटन स्पिनिंग एवं विविंग मिल कंपनी लिमिटेड विरुद्ध उत्तर प्रदेश ए.आइ.आर. १९६१ स. न्या. ११७०’ तथा ‘पी. हेमलता विरुद्ध कट्टमकडी पुथिया मलाइक्कल साहेडा’ और अन्य २००२ (५) एस.एस.सी. ५४८ से संबंधित निर्णयों का संदर्भ देकर अंततः प्रतिभू (जमानत) अस्वीकार कर दी ।

– (पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णी