औषधिनिर्माण प्रतिष्ठानों की (फार्मा कंपनियों की) अनियमितताओं पर कैसे नियंत्रण पाया जा सकता है ?

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भारत के चिकित्सकीय प्रतिनिधियों के (‘मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्ज्’ अर्थात ‘एम.आर.’ के) महासंघ ने (‘फेडरेशन ऑफ मेडिकल एंड सेल्स रिप्रेजेंटेटिव्ज् एसोसिएशन ऑफ इंडिया’ अर्थात एम.आर.ए.आई.’ ने) सर्वोच्च न्यायालय में औषधिनिर्माण प्रतिष्ठानों की (फार्मा कंपनियों की) अनियमितताओं पर नियंत्रण लाने की मांग को लेकर जनहित याचिका प्रविष्ट की है । विगत ४० वर्ष से कार्यरत इस महासंघ का यह प्रशंसनीय कार्य इसलिए है कि ये सभी ‘एम.आर.’ उन्हीं फार्मा कंपनियों में नौकरी कर रहे हैं, जिनकी अनियमितताओं के विरुद्ध वे संगठित रूप से खडे हुए हैं । उन्होंने इस जनहित याचिका के लिए प्रमाण के रूप में एक सूची प्रस्तुत की है, जिसे देखकर ‘भारत में होते हैं ऐसे अनेक मजाक’ ऐसा लगेगा ! भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद ने (‘मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया’ ने अर्थात ही एम.सी.आई. ने) वर्ष २००२ में ‘व्यवसायनिष्ठा, शिष्टाचार एवं नैतिक बंधन’ के अंतर्गत निजी डॉक्टरों पर किसी भी औषधि कंपनियों से किसी प्रकार की ‘फ्री’ की (निःशुल्क) भेंटवस्तुएं लेने पर अथवा ‘रिश्वत’ लेने पर कानूनी प्रतिबंध लगाया । इसका उल्लंघन होते हुए दिखाई देने पर (यहां यह दिखाई दिया, यह महत्त्वपूर्ण है), तो उस डॉक्टर की अनुज्ञप्ति (अनुमति) रद्द हो सकती है । विगत २ दशकों में डॉक्टरों को वितरित किया जानेवाला यह प्रसाद भले ही वास्तविकता हो; परंतु तब भी इन २० वर्षाें में तत्कालीन ‘एम.सी.आई.’ और आज के ‘राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग’ को (‘नेशनल मेडिसिन कमिशन’ अर्थात ‘एन.एम.सी.’ को) ऐसे अपराध करने वाले डॉक्टर कोई बडी संख्या में दिखाई ही नहीं दिए । इसे भी यदि हमने एक ओर रखा, तब भी डॉक्टरों का उनका जो कृत्य कानूनन अपराधी प्रमाणित करता है, उसमें संलिप्त होने के विषय में औषधि प्रतिष्ठानों पर क्या कार्यवाही होती है ?, इसका उत्तर ‘कुछ भी नहीं’, यह है । अर्थात केवल डॉक्टरों पर ही आंख उठाना और उन्हें रिश्वत देनेवाले प्रतिष्ठानों के प्रति मौन रहना !’

डॉ. अरुण गद्रे

१. औषधीय प्रतिष्ठानों द्वारा डॉक्टरों को भेंट के रूप में दी जानेवाली औषधियों पर दी जानेवाली करों में छूट निरस्त !

हमारे नीतियों की २० वर्षों तक की कुंभकर्णी निद्रा यह है कि डॉक्टरों को रिश्वत लेने के लिए जो करोडों रुपए का व्यय होता है, उसे ‘व्यवसायवृद्धि के लिए किया गया व्यय’ दिखाकर औषधिनिर्माण प्रतिष्ठान कर बचा रही थीं ! एक अपराधी की अनुज्ञप्ति निरस्त; परंतु दूसरे अपराधी को उसी अपराध में संलिप्त होने के लिए पुरस्कार के रूप में ‘टैक्स रिलीफ’ (करों में छूट)’ ! भले ही ऐसा हो; परंतु तब भी अंततः २० वर्ष उपरांत हमारे केंद्रीय अर्थविभाग तक यह विसंगति पहुंची । इस वर्ष के (वर्ष २०२२-२३) बजट के ‘वित्त विधेयक’ में स्वागतयोग्य यह स्पष्ट निर्देश आया कि इसके आगे इन निःशुल्क बातों के लिए प्रतिष्ठानों को ‘टैक्स रिलीफ’ नहीं मिलेगा । इसका अर्थ अभी भी अपराध करने की अनुमति है; परंतु उसके लिए कर चुकाना पडेगा । कछुए की चाल से ही क्यों न हो; परंतु एक कदम आगे ! वास्तव में इन प्रतिष्ठानों पर रिश्वत लेनेवाले डॉक्टरों के नाम सार्वजनिक करना अनिवार्य किया जा सकता था; परंतु वैसा नहीं हुआ ।

२. ‘डोलो’ गोलियों के लिए प्रतिष्ठानों द्वारा डॉक्टरों पर १ सहस्र करोड रुपयों की खैरात बांटना और उसे रोकने हेतु कानून बनाने के लिए हो रही मांग

इसके आगे जाकर चिकित्सकीय प्रतिनिधियों के महासंघ ने ‘केंद्रीय प्रत्यक्ष कर विभाग’ से (‘सीबीडीटी’ से ) इसकी सूची ही मंगवाई । तो इसमें किन प्रतिष्ठानों ने कितनी रिश्वत को ‘व्यवसायवृद्धि के लिए व्यय’ के रूप में दिखाया ? उसके उपरांत महासंघ ने इस सूची को ही अपनी जनहित याचिका के साथ ही प्रमाण के रूप में जोडा । इस सूची से यह उजागर हुआ कि ‘डोलो’ गोलियों का व्यवसाय बढाने के लिए उस प्रतिष्ठान ने डॉक्टरों पर १ सहस्र करोड रुपए उडाए । यह बात सामने आने पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश धनंजय चंद्रचूड ने कहा, ‘‘अरे, मुझे जब कोविड (कोरोना) हुआ था, तब मुझे भी यही ‘डोलो’ गोली लिखकर दी गई थी !’’ उनके इन उद्गारों के कारण पिछले अनेक वर्षाें से औषधीय प्रतिष्ठानों को इस प्रकार से भेंटवस्तुएं (फ्री) देने के लिए अपराधी प्रमाणित करने के लिए कानून बनाने की मांग करनेवाले स्वास्थ्य कार्यकर्ता और कोविड के लिए औषधियों पर लाखों रुपए का व्यय कर कंगाल बने करोडों नागरिकों की आशाएं पल्लवित हुई हों, तो उसमें आश्चर्य कैसा ?’ ‘मुझे यही गोली लिखकर देना कोई संयोग नहीं था’, ऐसा ही यदि इस उद्गार का अर्थ होता हो, तो इसे न्याय के लिए सकारात्मक संयोग मानना पडेगा ।

३. कोरोना काल में भारतीय प्रतिष्ठानों द्वारा बडे‘जेनेरिक’ औषधियों का बडे स्तर पर निर्यात करना; परंतु देश में बडे प्रतिष्ठानों की औषधियां ही बेचना !

औषधीय प्रतिष्ठान महाकाय हाथी जैसे हैं । कोविड से पूर्व वर्ष २०१९-२० में इन प्रतिष्ठानों का भारत में संव्यवहार (कारोबार) २ लाख ८९ सहस्र ९९८ करोड रुपए था और यह हाथी गौरवपूर्ण काम भी कर रहा है । उसने देश को ‘विश्व की फार्मसी’ के रूप में नाम दिया है । उसी वर्ष भारत के औषधीय प्रतिष्ठानों ने १ लाख ४६ सहस्र २६० करोड रुपए की ‘जेनेरिक’ औषधियों का निर्यात किया । (जेनेरिक का अर्थ इनमें औषधियों की मात्रा, गुणवत्ता और उपयोग नामचीन औषधियों के समान ही होता है ।) परंतु इसमें आश्चर्य की बात यह कि ये प्रतिष्ठान गुणवत्तापूर्ण जेनेरिक औषधियां अमेरिका को बेचते हैं; परंतु भारतीय बाजार में जेनेरिक न बेचकर महंगे ब्रैंड की औषधियां ही बेचते हैं !

३ अ. औषधियों के बाजार में ‘जंगलराज’ का चलना : हमारी स्थिति यह है कि डॉक्टरों के लिए कठोर (जिसका आज तक बहुत कुछ क्रियान्वयन नहीं किया गया) कानून और औषधीय प्रतिष्ठानों की ओर केवल आंख उठाकर केवल प्रेमभरी धमकी के कारण औषधि बाजार में ‘जंगलराज’ चल रहा है । इस औषधि व्यवसाय की एक विशेषता यह है कि इनके ग्राहक ये औषधियां अपनी इच्छा से नहीं लेते ।

‘कौनसी वस्तु खरीदनी चाहिए ?’, यह निर्धारित करने की स्वतंत्रता औषधियों के ग्राहक को नहीं होती । और वह वस्तु भी कैसी ? जिसे लेना ही पडता है, जैसे न्यायाधीश को भी ‘डोलो’ लेनी ही पडी ।

४. भारतीय औषधीय प्रतिष्ठानों की अपनी स्वयं की औषधि बनाने की स्थिति

आज भारत में लगभग ३ सहस्र औषधीय प्रतिष्ठान और उनकी १० सहस्र ५०० उत्पादन-परियोजनाएं हैं । ये प्रतिष्ठान ३७६ मॉलिक्यूल्स (रेणु) (उदा. ‘डोलो’ में समाहित ‘पैरासिटामोल घटक बेचते हैं; परंतु उनके ‘ब्रैंड’ कितने हैं ? तो ६० सहस्र ! अकेले पैरासिटामोल के लिए ७९३ ब्रैंडस् ! चलो ठीक है क्या किसी भारतीय औषधीय प्रतिष्ठान ने अभी तक न्यूनतम एक तो नया ‘मॉलेक्यूल’ बेचकर जगत में उसका ‘पेटंट’ (स्वामित्व का अधिकार) प्राप्त किया है ? एक भी नहीं ! कोई ‘पैरासिटामोल’ का स्वयं उत्पादन करते हैं ? थोडे लोग करते हैं; परंतु भारतीय प्रतिष्ठान स्वयं की क्षमता होते हुए भी ७० प्रतिशत ‘एक्टिव ‘एक्टिव फार्मास्युटिकल इंग्रेडिएंट्स’ का (एपीआई – सक्रीय औषधीय घटकद्रव्यों का) चीन से आयात करते हैं । छोटे उत्पादक इस आयात कच्चे माल से बनाई गोलियां, कैप्सूल्स, बोतलबंद तरल औषधियां आदि बनाकर अपने विख्यात नाम से (ब्रैंड से) बेचते हैं । औषधीय प्रतिष्ठान केवल ‘पैकेजिंग एवं मार्केटिंग युनिट’ (पैकिंग एवं वितरण) करनेवाली हैं । तो डॉक्टर्स उन्हें ‘फ्री’ दिए बिना इन ७९३ में से अमुक ही ब्रैंड क्यों लिखेंगे ? ‘डॉक्टर ने अपना ब्रैंड ही नहीं लिखा, तो रोगी उसे खरीदेगा कैसे ?’, इसे औषधीय प्रतिष्ठान भलीभांति जानती हैं ! अब यह बात सत्य है कि कुछ अच्छे प्रतिष्ठान अपना नाम संजोते हैं और औषधियों की गुणवत्ता उच्च रखते हैं और कुछ डॉक्टर्स ‘फ्री’ (भेंटवस्तुएं) न लेकर वह ब्रैंड लिखते हैं ।

५. भारत में औषधियों की गुणवत्ता का परीक्षण करनेवाले अति आधुनिक तंत्र का अभाव होना और उसके कारण डॉक्टरों को भेंटवस्तुएं देने की होड लगना

अब गुणवत्ता तो भी क्या है ? वर्ष २०१९ में अमेरिका के अन्न-औषधीय प्रशासन ने (एफ.डी.आई. ने) जिन औषधीय प्रतिष्ठानों को उनकी गुणवत्ता के विषय में चेतावनी दी, उन ३८ में से १३ प्रतिष्ठान भारतीय (बडे प्रतिष्ठान) हैं ।

भारत में तो गुणवत्ता पर चार चांद लगे हैं । कामाचारी और भ्रष्टाचार को बाजू में रखा जाए, तब भी भारत सरकार द्वारा संचालित ‘एफ.डी.ए.’ में ४३ प्रतिशत पद खाली हैं । मान लीजिए कि प्रामाणिकता के साथ व्यवसाय करनेवाले डॉक्टर चाहे कितनी भी खोज करे; परंतु उसे प्रतिष्ठानों और ब्रैंड्स के अनुसार उनकी गुणवत्ता जान लेने की अद्यत व्यवस्था ही नहीं है । तो इसके क्या होगा, एक तो ‘फ्री’ लेकर लिखिए, अन्यता उसे न लेकर अपने अनुभव के आधार पर ब्रैंड लिख दीजिए । ‘मैं रोगी को न्यूनतम व्यय में डालनेवाला और पुस्तक के अनुसार होनेवाला ब्रैंड ही लिखकर दूंगा’, यह प्रतिज्ञा निभानेवाले कुछ डॉक्टर्स कुछ ‘फ्री’ न लेकर रोगियों को सस्ते; परंतु गुणवत्तापूर्ण ब्रैंड्स की औषधियां लिखकर देते हैं; परंतु यह प्रत्येक डॉक्टर के विवेक पर छोडा गया होता है । वैसे ही होगा, यह देखनेवाली कोई व्यवस्था ही नहीं है । डॉक्टर्स इन प्रतिष्ठानों को जितना व्यवसाय देते हैं, उतने अनुपात में डॉक्टरों के लिए मोबाइल (चल-दूरभाष), गोल्ड कॉइन (सोने के सिक्के), टैब, लैपटॉप (भ्रमणसंगणक), कार, विदेश यात्रा’ जैसे पुरस्कार इस ‘फ्री’ रिश्वत के अंतर्गत आते हैं ।

६. औषधियों के ८२ प्रतिशत ब्रैंडस् के मूल्यों पर किसी प्रकार का नियंत्रण न होना और उसके कारण भेंटवस्तुओं की भरमार होना

इसकी तुलना में ‘डोलो’ तो केवल आज का ताजा समाचार है ! सरकार कुछ भी नहीं करती, ऐसा नहीं है । आवश्यक औषधियों की एक सूची है, जिसमें ३४८ औषधियों का समावेश है । उसमें ३४८ औषधियां हैं और लगभग उन सभी के मूल्य भी सुनिश्चित किए गए हैं; परंतु केवल १८ प्रतिशत ब्रैंड्स (कुल मिलाकर १. ६ लाख करोड रुपए का कारोबार करनेवाले ६० सहस्र ब्रैंड्स में से) इस श्रेणी में आते हैं । शेष ८२ प्रतिशत ब्रैंड्स मनगढंत पद्धति से औषधियां बेच रहे हैं । इसमें चतुराई यह की गई कि ‘पैरासिटामोल ५०० मिलीग्राम’ पर मूल्य की बंधन आने पर तुरंत उसे ६५० मिलीग्राम (‘डोलो’ जैसा) बेचना आरंभ हुआ । जब उस पर भी बंधन डाला गया, तो कुछ प्रतिष्ठानों ने ‘पॅरासिटामॉल’ की ‘कैफेन’ से युक्त गोली का उत्पादन आरंभ किया । जो डॉक्टर यह ब्रैंड लिखता है, उस रोगी के शरीर में प्रत्येक गोली के साथ कॉफी भी चली जाती है ।

उससे इस २ रुपए की गोली को ४ रुपए देने पडते हैं । यह एक उदाहरण हुआ । इसी प्रकार जिसकी आवश्यकता नहीं होती, ऐसे ‘काँबिनेशन’ के (औषधीय घटकों के एकत्रीकरण किए गए) सहस्रों ब्रैंड्स हैं और वे बेचे भी जाते हैं; क्योंकि उन्हें लिखा जाता है । वो लिखे जाए; इसके लिए ‘फ्री’ का उपहार है ही ! नीतिनिर्धारक अथवा शासनकर्ता तो केवल मूक दर्शक ! और भी एक बात यह है कि ‘राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग’ ने भी (‘एन.एम.सी.’ ने भी) उदार मन से डॉक्टरों के संगठनों को ‘फ्री’ लेने की अनुमति दी है । इसका अर्थ यदि एक डॉक्टर ने ली, तो अपराध; परंतु वही ५ डॉक्टरों ने एकत्रित लिया, तो उनके लिए ‘फ्री’ ! इन संगठनों पर ‘कौंफरेंस’ के लिए ५० लाख, ८० लाख जैसे लाखों रुपए उडा देना । क्या वह ‘करयोग्य’ है ? होनी तो चाहिए; परंतु इस पर जनप्रतिनिधि निद्रित !

७. कैंसर की औषधियों के माध्यम से रोगियों के पैसों पर खुलेआम डाका डाला जाना

इस निःशुल्क उपहार के लिए और एक दमदार राजमार्ग है । उदा. कैंसर की कोई औषधि है और उसे लेने के लिए रोगी ने पहले ही अपना घर-बार बेचकर कुछ लाखों का व्यय किया होता है और उसे लंबे समय तक वह गोलियां लेनी हैं । औषधि बिक्रेता के लिए उन गोलियों के एक स्ट्रीप का (१० गोलियों की एक पट्टी का) मूल्य होता है १ सहस्र ५० रुपए ! उन गोलियों की पट्टी पर औषधीय प्रतिष्ठान ने ‘एम.आर.पी.’- न्यूनतम खुदरा मूल्य ३ सहस्र ६५० छाप दी है ! इसमें खुदरा विक्रेता को ही २ सहस्र ५०० रुपए का सीधा लाभ ? यह लाभ मिलता है चिकित्सालय में ही ‘फार्मसी’ चलानेवाले औषधि विक्रेता दुकानदार को (‘मेडिकल शॉप’ को) अथवा लेन-देन (डील) करनेवाले डॉक्टर को ! ऐसे अनेक उदाहरण हैं । यह तो निर्धन रोगी की जेब पर डाली जानेवाली डकैती है, जो खुलेआम चल रही है । ‘एलायंस ऑफ डॉक्टर्स फॉर एथिकल हेल्थ केयर’ संगठन विगत अनेक वर्षाें से ‘चिकित्सालय को देने में लगनेवाले मूल्य और स्ट्रीप पर छापी जानेवाली ‘एम.आर.पी.’ में अधिकाधिक केवल ३० प्रतिशत का ही अंतर होना चाहिए’, यह मांग कर रहा है; परंतु ‘औंधे घडे का पानी !’

८. डॉक्टरों और औषधीय प्रतिष्ठानों की ओर से भेंटवस्तुएं लेने की आदत बंद करने के लिए उपाय

इस पृष्ठभूमि पर सर्वोच्च न्यायालय ने इन्हीं प्रश्नों से संबंधित एक जनहित याचिका का संज्ञान लिया है, जो बहुत प्रसन्नतापूर्ण है; परंतु इधर पैवंद लगाइए (‘स्टैंट’ के [हृदय की धमनियों में उत्पन्न अवरोध दूर करने के लिए लगाई जानेवाली एक संकीर्ण तार की जालीदार नलिका के] मूल्य पर नियंत्रण लाइए; परंतु ‘एंजिओप्लास्टी’ के लिए [हृदय से संबंधित एक विशिष्ट प्रकार का शल्यकर्म] आवश्यक अन्य वस्तुओं और चिकित्सालय के मूल्यों को अनियंत्रित रखिए), उधर पैवंद लगाइए (५०० मिलीग्राम ‘पैरासिटामॉल) के मूल्य पर नियंत्रण लाइए; परंतु ‘कैफेन से बच निकलने का मार्ग खाली छोडिए), इस पद्धति से यह पुराना दर्द ठीक नहीं होगा ।

‘फ्री’ की ये आदतें बंद करने की इच्छाशक्ति हो, तो उसके लिए बहुत ही सरल उपाय हैं –

अ. पहला यह कि ‘एन.एम.सी.’ द्वारा डॉक्टरों के संगठनों को ‘फ्री’ लेने की छूट बंद करना । यह बहुत ही सरलता से संभव है । आप केवल एक आदेश दीजिए, ‘फ्री’ लेनेवाले डॉक्टरों की सूची मंगवाइए और एन.एम.सी. कानून के अंतर्गत उनकी अनुमतियां कुछ महिनों तक तो निलंबित रखिए ।

आ. औषधीय प्रतिष्ठानों के लिए संसद में ‘यूनिफॉर्म कोड ऑफ फार्मास्युटिकल्स मार्केटिंग प्रैक्टिसेस (यू.सी.पी.एम.पी.)’ का (औषधीय प्रतिष्ठानों, उनकी वितरण पद्धतियों, चिकित्सकीय प्रतिनिधियों, भेंटवस्तुओं और विज्ञापनों को नियंत्रित करनेवाला कानून) संसद में पारित करना पडेगा । ‘मेडिकल रिप्रेजेंटिटिव्ज महासंघ’ ने अपनी जनहित याचिका में यही मांग की है ।

इ. कदाचित सर्वोच्च न्यायालय के दबाव के कारण ये कार्य होंगे भी; परंतु पूर्वानुभव हमें यही बताता है कि इतना पर्याप्त नहीं है, उदा. डॉक्टरों पर कानूनन प्रतिबंध तो आया; परंतु वास्तव में कुछ भी बदला नहीं है; क्योंकि इस कानून का क्रियान्वयन करने की व्यवस्था का मानो अस्तित्व ही नहीं है । ‘अलाइंस ऑफ डॉक्टर्स फॉर एथिकल हेल्थकेयर’ ने राज्यसभा समिति को आग्रहपूर्ण ज्ञापन प्रस्तुत किया था कि डॉक्टर नैतिक मर्यादाओं का पालन कर ही व्यवसाय करेंगे’, इस पर ध्यान रखने के लिए इंग्लैंड की भांति ‘एन.एम.सी.’ के अंतर्गत ‘जनरल मेडिकल काउंसिल’ जैसा एक अलग विभाग बनाइए; परंतु वह स्वीकार नहीं हुआ ।

ई. इस इतिहास को ध्यान में लेते हुए वास्तव में देखा जाए तो सर्वाेच्च न्यायालय से ‘वास्तव में कानून की कार्यवाही हो रही है न ?’, इसे कठोरता से देखनेवाली ‘स्वायत्त’ व्यवस्था का भी आग्रह रखना आवश्यक है ।

इन ‘डोलो’ गोलियों के प्रकरण के कारण यह आशा जगी है कि सर्वोच्च न्यायालय सहित सर्वदलीय जनप्रतिनिधि, शासनकर्ता और नीतिनिर्धारक संगठित रूप से निर्धन रोगियों को लूटनेवाले ‘फ्री’वाले, लूटमारी करनेवाले मूल्यों के और बुद्धिहीन कौंबिनेशंस का समूल निर्र्मूलन करेंगे और करोडों भारतीयों के आशीर्वाद प्राप्त करेंगे ।

लेखक : डॉ. अरुण गद्रे, जनआरोग्य विषय से संबंधित अनेक संस्थाओं से संबंधित हैं । (साभार : दैनिक ‘लोकसत्ता’, ७.९.२०२२)

आज के समय में अनेक डॉक्टर रोगियों की लाचारी का लाभ उठा रहे हैं । पैसों की लालची फार्मा कंपनियां प्रामाणिक डॉक्टरों को भी ‘भेंटवस्तुएं’ देकर भ्रष्ट बनाती हैं । हिन्दू राष्ट्र में ऐसा कोई दिखाई दिया, तो उन पर तुरंत कठोर कार्यवाही की जाएगी । ‘शुद्ध एवं नि:स्वार्थ भाव से समाज की सेवा करना’, यह वास्तव में चिकित्सकीय व्यवसाय का व्रत है; परंतु हिन्दू राष्ट्र में इस प्रकार अनुचित लाभ उठानेवालों को कठोर दंड दिया जाएगा, इसे ध्यान में रखें ! – संपादक