विवेक अग्निहोत्री का बहुचर्चित चलचित्र ‘द कश्मीर फाइल्स’ ११ मार्च को प्रदर्शित हुआ । १९९० में कश्मीर घाटी में धर्मांधता अपने शिखर पर थी, तब कश्मीरी पंडितों की नरक यातनाओं का सत्यान्वेषण करनेवाली ‘द कश्मीर फाइल्स’ के निमित्त….
१. १९९० में अंततः हुआ क्या था ?
१९९० में हुआ क्या था ?, इस संबंध में दुर्भाग्यवश आधुनिक भारतीय पीढी को कुछ ज्ञात नहीं है । १९ जनवरी १९९० को विभिन्न स्थानों पर सार्वजनिक रूप से आदेश दिया गया कि ‘संपूर्ण कश्मीर से हिन्दू निकल जाएं ।’ इसके लिए समाचार पत्रों में विज्ञापन दिए गए । रेडियो, मस्जिदों के लाउडस्पीकर आदि के द्वारा नारे लगाए गए । सार्वजनिक दीवारें रंगी गईं और संपूर्ण हिन्दू समाज को वहां से निकल जाना पडा । उनके समक्ष कश्मीरी भाषा में तीन विकल्प रखे गए – रलिव, त्सलीव या गलिव ! अर्थात ‘धर्म परिवर्तन करें, कश्मीर छोडकर चले जाएं अथवा मृत्यु स्वीकार करें ।’
इन तीन विकल्पों के पश्चात प्रारंभ हुआ कश्मीरी पंडितों का भीषण हत्यासत्र तथा साढे चार लाख कश्मीरी हिन्दुओं को कश्मीर से विस्थापित होना पडा । कश्मीरी हिन्दुओं ने धर्म बचाने के लिए अपनी मातृभूमि, अपनी स्मृतियां, अपना बचपन, अपनी नौकरी-व्यवसाय सभी का त्याग कर दिया । आज भी धर्म के लिए ऐसा विलक्षण त्याग किया जाता है, यह एक प्रकार से स्पृहणीय है; परंतु दूसरे अर्थ में बहुसंख्यक हिन्दुओं के राष्ट्र में ही हिन्दुओं को ऐसी स्थिति का सामना करना पडा, इसका हमें दुःख होना चाहिए । कश्मीरी हिन्दुओं को स्वयं के देश में ही विस्थापित होना पडा, इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण बात अन्य कोई नहीं । हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जब यह घटना घटी, तब देश में असहिष्णुता के संबंध में बोलनेवाले शांत बैठे थे । ‘द कश्मीर फाइल्स’ चलचित्र इन अत्याचारों और उसके पश्चात के ‘प्रोपोगंडा’ के संबंध में सत्यान्वेषण करता है ।
२. भारतीय लोकतंत्र पर कलंक !
भारतीय लोकतंत्र का गुणगान करनेवालों के लिए ‘द कश्मीर फाइल्स’ अनेक प्रश्न उपस्थित करती है । जनवरी १९९० में जो हो रहा था, उस संबंध में ऐसी स्थिति नहीं थी कि कश्मीर के ‘बुरखाधारी’ राज्यकर्ता कुछ करें । तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन जब केंद्र शासन को परिस्थिति की गंभीरता बता रहे थे, तब उन्हें ही वहां से हटाने की प्रक्रिया की गई । भारतीय संसद में कश्मीरी हिन्दुओं पर हुए अत्याचार के संदर्भ में एक भी प्रस्ताव पारित नहीं हुआ । इस तत्कालीन संसद में ८५ सांसद वर्तमान राष्ट्रवादी सत्ताधारी दल के ही थे; परंतु वे भी वी.पी. सिंह सरकार बचाने के लिए दुर्भाग्यवश निष्क्रिय बने रहे । भारतीय सर्वाेच्च न्यायालय ने इस प्रकरण में किसी प्रकार की ‘स्युओ-मोटो’ कार्यवाही न कर, आंखों पर पट्टी बांध ली । भारतीय सेनादल अपनी संवैधानिक सीमाओं की ढाल बनाकर कौरव सभा के भीष्माचार्य बन गए । जो संविधान प्रत्येक भारतीय नागरिक को सुरक्षित जीवनयापन का वचन देता है, वही कश्मीर में विफल हो गया । राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय महिला अधिकार आयोग ने भी अपने कर्तव्य में आनाकानी की । लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में अकड दिखानेवाले बडे ‘मीडिया हाउजेस’ ने इन अत्याचारों को मौन सम्मति दी । इसलिए इतिहास सका साक्षी है कि १९९० में कश्मीरी हिन्दुओं का जो वंशविच्छेद हुआ, वह भारतीय लोकतंत्र के बुरखे की आड में हुआ, यह कलंक मिटाए बिना भारतीय लोकतंत्र को ‘महान’ कहलाने का कोई अधिकार नहीं है ।
– श्री. चेतन राजहंस, राष्ट्रीय प्रवक्ता, सनातन संस्था.
‘द कश्मीर फाइल्स’ देखिए !कश्मीर फाइल्स चलचित्र बनने के बाद भी आज बॉलीवुड उसके प्रति अस्पृश्यता दर्शा रहा है । कपिल शर्मा जैसे बॉलीवुड प्रमोटर्स उसे एक पक्षीय कथा संबोधित कर रहे हैं तथा स्वरा भास्कर इस चलचित्र को नकार रही है । इस ‘उर्दूवुड’ को भय है कि यह चलचित्र १०० करोड हिन्दू देखेंगे और वह सुपर-डुपर हिट हो जाएगा । यदि ऐसा हुआ, तो कल ‘१९४७ पार्टिशन फाइल्स’, ‘१९७१ बांग्लादेशी हिन्दू एट्रोसिटीज फाइल्स’, ‘१९७६ इमरजेन्सी फाइल्स’, ‘१९८९ अयोध्या फाइल्स’, ‘२००२ गोधरा फाइल्स’ आदि अनेक दबा हुआ सत्य बतानेवाले चलचित्र बनेंगे । देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ‘द कश्मीर फाइल्स’ के कलाकारों से संवाद करते समय सांकेतिक वक्तव्य किया कि ‘‘कश्मीरी हिन्दुओं पर हुए अत्याचारों की सच्चाई अनेक वर्ष दबाने के प्रयास हुए हैं ।’’ सर्वस्तंभीय और सर्वदलीय लोकतंत्र द्वारा छिपाए ये अत्याचार दिखाने का प्रयत्न ही कश्मीर फाइल्स है । बॉलीवुड में प्रतिवर्ष गुंडे, माफिया, ‘ड्रग्स पेडलर’, गंगूबाई जैसे वेश्यागृहों की मालकिन का उदात्तीकरण करनेवाले अनेक ‘ड्र्रामा फिल्म्स’ प्रदर्शित होती हैं । ऐसे चलचित्र देखने की अपेक्षा भारतीय ‘द कश्मीर फाइल्स’ देखना देशहितकारी सिद्ध होगा । इसलिए यह चलचित्र एक बार तो अवश्य देखें । – श्री. चेतन राजहंस, राष्ट्रीय प्रवक्ता, सनातन संस्था. |