महाशिवरात्रि

     एक निर्दयी एवं महापापी व्याध था । एक दिन वह शिकार के लिए निकला । रास्ते में उसे भगवान शिव का मंदिर दिखाई दिया । उस दिन महाशिवरात्रि का दिन होने से उसने देखा कि वहां अनेक भक्त पूजा कर रहे हैं । ‘पत्थर को भगवान माननेवाले मूर्ख लोग ‘शिव शिव’ एवं ‘हर हर’ कह रहे हैं’, ऐसा उपहास करते हुए वह वन में गया । शिकार देखने के लिए वह एक पेड पर चढकर बैठ गया; परंतु पत्तों के कारण उसे शिकार नहीं दिखाई दे रहा था । वह एक-एक पत्ता तोडकर फेंकने लगा । उस समय वह ‘शिव शिव’ बोल रहा था । वे पत्ते पेड के नीचे स्थित शिव की पिंडी पर अनजाने में ही गिर रहे थे । सवेरे उसे एक हिरन दिखाई दिया । व्याध उसे बाण मारने ही वाला था कि इतने में हिरन ने उसे न मारने की प्रार्थना करने लगा । पाप करने से क्या होता है, यह भी उस हिरन ने व्याध को बताया और चला गया । अनजाने में ही हुआ महाशिवरात्रि का जागरण, शिव को हुआ बिल्वार्चन एवं शिव के जप के कारण व्याध के पाप नष्ट होकर उसे ज्ञान प्राप्त हुआ । इस कथा से यह समझ में आता है कि भगवान शिव अनजाने ही हुई उपासना से भी प्रसन्न होते हैं ।

यामपूजा : ‘शिवरात्रि के दिन रात्रि के चार प्रहर चार पूजा करने का विधान है । उन्हें ‘यामपूजा’ कहते हैं । प्रत्येक यामपूजा में भगवान शिव को अभ्यंगस्नान करवाएं, अनुलेपन करें तथा धतूरा, आम एवं बेल के पत्ते चढाएं । चावल के आटे के २६ दीप जलाकर उनकी आरती उतारें । पूजा के दिन १०८ दीपों का दान दें । सवेरे स्नान कर पुनश्च शिवपूजा करें । समापन पर ब्राह्मणभोजन करवाएं । आशीर्वाद लेकर व्रतसमाप्ति करें ।

शिवरात्रि पर ‘।। ॐ नम: शिवाय ।।’ नामजप करने से शिवतत्त्व का १,००० गुना लाभ होता है ।

भगवान शिव की आध्यात्मिक विशेषताएं

महातपस्वी एवं महायोगी

     निरन्तर नामजप करनेवाले देवता एकमात्र शिव ही हैं । वे सदैव बन्ध-मुद्रा में आसनस्थ रहते हैं । अत्यधिक तप के कारण बढे तापमान को न्यून (कम) करने के लिए उन्होंने गंगा, चन्द्र, सर्प आदि धारण किए जो उन्हें शीतलता प्रदान करते हैं एवं उनका निवास स्थान भी हिम से ढके कैलाश पर्वत पर है ।

क्रोधी

     अखण्ड नामजप करने में ध्यानमग्न शिव यदि स्वयं विराम करें तो उनका स्वभाव शान्त ही रहता है; परन्तु नामजप में कोई बाधा उत्पन्न करे (उदाहरणार्थ जिस प्रकार कामदेव ने विघ्न डाला), तो साधना के कारण बढा हुआ तेज तत्क्षण (एकदम से) प्रक्षेपित होता है एवं समीप खडा व्यक्ति उस तेज को सहन न कर पाने के कारण भस्म हो जाता है । अर्थात इसे ही कहते हैं, ‘शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोलकर भस्म कर दिया ।’ मान लें कि विघ्न-बाधाएं डालनेवाले व्यक्ति को इस प्रक्रिया से १०० प्रतिशत कष्ट होता है तो शिव को मात्र ०.०१ प्रतिशत ही । उस कष्ट से शिव का नाडीबन्ध छूट जाता है; परन्तु आसन नहीं छूटता । तत्पश्चात शिव पुनः बन्ध लगा लेते हैं । – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी