तमिलनाडु सरकार द्वारा मंदिरों का स्वर्ण पिघलाने की योजना वर्तमान में तो मद्रास उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक ली गई है । इससे हिन्दुओं को भले ही थोडी-बहुत दिलासा मिली हो; परंतु तमिलनाडु सरकार के युक्तिवाद को देखते हुए ऐसा नहीं कह सकते कि मंदिरों की संपत्ति पर (स्वर्ण पर) मंडराता संकट हमेशा के लिए टल गया है । मद्रास उच्च न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘मंदिर का स्वर्ण पिघलाने संबंधी निर्णय लेने का अधिकार केवल विश्वस्तों को है ।’ इस पर राज्य सरकार ने न्यायालय को लिखित आश्वासन दिया है कि ‘विश्वस्त की नियुक्ति की जाएगी ।’ इसलिए ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि अब तमिलनाडु सरकार अपने हस्तक (एजेंट) विश्वस्त पद पर नियुक्त कर मनचाहे हिन्दूद्वेषी निर्णय ले सकती है । ऐसे धूर्त एवं चरमसीमा के हिन्दूद्वेषी सरकारी निर्णयों के विरोध में हिन्दुओं को भी वैचारिक स्तर पर अधिक संघर्ष करना पडेगा, यह ध्यान देने योग्य सूत्र है । इस दृष्टि से ‘स्टैलिन’ सरकार का हिन्दूद्वेषी स्वरूप सतत उजागर करना और हिन्दुओं में मंदिर सरकारीकरण के विरोध में जागृति कर हिन्दुओं का संगठन करना आवश्यक है ।
यह कैसा सुव्यवस्थापन ?
मंदिरों का स्वर्ण पिघलाने के संदर्भ में तमिलनाडु सरकार का कहना है कि ‘इस स्वर्ण पर जो ब्याज मिलेगा, वह मंदिरों के विकास के लिए उपयोग में लाया जाएगा ।’ कुछ दिनों पूर्व न्यायालय ने सरकार को फटकार लगाई थी, ‘गत ६० वर्षाें से मंदिरों की संपत्ति की प्रविष्टि एवं मूल्यांकन नहीं हुआ !’ वर्तमान सत्ताधारी द्रविड मुन्नेत्र कळघम् (डीएमके) दल ने लगभग डेढ शतक कार्यभार संभाला है; फिर भी इस अवधि में मंदिरों की संपत्ति की पारदर्शकता के विषय में उसने अत्यंत उदासीनता दिखाई । स्वर्ण पिघलाने के निर्णय का विरोध करनेवाली याचिका प्रविष्ट करते समय याचिकाकर्ताओं ने न्यायालय के निदर्शन में लाकर दिया कि ‘तमिलनाडु के अधिकांश मंदिरों में गत १० वर्षाें से विश्वस्त नियुक्त करने की प्रक्रिया नहीं हुई ।’ इससे सरकार को मंदिरों के विकासकामों के संदर्भ में वास्तव में कितनी रुचि है ?, यह ध्यान में आता है । तमिलनाडु में मंदिरों की मूर्तियों की तोडफोड होने की अनेक घटनाएं होने पर भी राज्य सरकार ने उस संदर्भ में कोई भी कार्यवाही नहीं की । मंदिरों में गैरब्राह्मण पुजारी भी नियुक्त करने का निर्णय लेकर मंदिरों की प्रथा-परंपराओं पर प्रहार करने का काम भी इसी ‘स्टैलिन’ सरकार ने किया है ।
आज सरकारी यंत्रणा को भ्रष्टाचार के दीमक ने खोखला बना दिया है । सरकारी योजनाओं में घोटाले, मंद गति से काम जैसे अनेक अनाचार सामने आते हैं । दूसरी ओर तमिलनाडु के नास्तिकतावादी मुख्यमंत्री ‘स्टैलिन’ के निर्णय हिन्दूद्वेषी होते हैं । उनके दल के कार्यकर्ता हिन्दुत्वनिष्ठों से असभ्य वर्तन करते हैं । ऐसी पृष्ठभूमिवाली सरकार ‘हिन्दुओं के मंदिरों का सुव्यवस्थापन करेगी’, इस दावे पर कौन विश्वास रखेगा ?
हिन्दुओं को धर्माभिमान बढाना आवश्यक !
आज देशभर के मंदिरों के सरकारीकरण के कारण स्थिति दयनीय हो गई है; परंतु इसके विरोध में आवाज उठाने के लिए उतनी मात्रा में हिन्दू आगे नहीं आते । तमिलनाडु में इसका कारण है वहां के राजनीतिक दलों द्वारा निर्माण किया ‘द्रविड’ एवं ‘आर्य’ वाद ! इस वाद के माध्यम से ‘तमिळ संस्कृति स्वतंत्र है’, ऐसा वहां के हिन्दुओं के मन पर अंकित किया जाता है । इसलिए यहां के हिन्दुओं को धर्माभिमान की अपेक्षा प्रांतीय अस्मिता अधिक महत्त्वपूर्ण लगती है । वास्तव में तमिलनाडु के हिन्दू धार्मिक एवं श्रद्धालु हैं । यदि वे निर्धार कर लें तो वे संगठित रूप से मंदिर सरकारीकरण का विरोध कर, मंदिर भक्तों के नियंत्रण में देने के लिए सरकार को बाध्य कर सकते हैं । तमिलनाडु के राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों के समय जनता को मंहगी वस्तुएं नि:शुल्क बांटने की तो प्रथा-सी बन गई है । हिन्दुओं को अपना स्वार्थीपन छोडकर, निरंतर ही हिन्दूद्वेषी निर्णय लेनेवाली सरकार को अपने मतों द्वारा उनका स्थान दिखा देना चाहिए । ‘मंदिर’ हिन्दू धर्म की आधारशिला हैं । चैतन्य के स्रोत हैं । इसलिए तमिलनाडु के हिन्दुओं को केवल तमिलनाडु अथवा दक्षिण भारत के ही नहीं, अपितु संपूर्ण भारत के मंदिरों का सरकारीकरण रहित होने हेतु भी प्रयत्न करने चाहिए । कुछ दिनों पूर्व उत्तराखंड राज्य के भूतपूर्व मुख्यमंत्री एवं भाजपा के विधायक त्रिवेंद्रसिंह रावत को वहां के पुरोहितों ने मंदिर में दर्शन करने से रोका था । मंदिर सरकारीकरण के विषय में मन में रोष होने से पुरोहितों ने निषेध व्यक्त किया था । अब देशभर के हिन्दुओं को संगठित होकर मंदिरों को सरकार के नियंत्रण से मुक्त होने के लिए प्रयत्न करना, हिन्दुओं का कर्तव्य है । मंदिरों की पवित्रता बनी रहेगी, तब ही आनेवाले कठिन काल में हिन्दुओं का अस्तित्व भी बना रहेगा !