जनप्रतिनिधियों का विधिमंडल में आचरण और न्यायसंस्था की सजगता !

     हाल ही में महाराष्ट्र में दो दिवसीय वर्षाकालीन अधिवेशन हुआ । उसमें भी विरोधी और सत्ताधारी दल ने भीषण हंगामा किया । सभापति को गालियां देना और धमकियां देना आदि घटनाएं घटित हुईं । इसलिए सभापति ने विरोधी दल के १२ विधायकों की सदस्यता एक वर्ष के लिए निलंबित की । इन १२ विधायकों ने सभापति द्वारा दिए गए निर्णय के विरोध में सर्वाेच्च न्यायालय में याचिका प्रविष्ट की है, जो अभी लंबित है । इसी प्रकार मार्च २०१५ में केरल के बजट अधिवेशन के समय विधिमंडल में भीषण हंगामा हुआ । उस प्रकरण में सभी दलों के विधायकों पर अपराध प्रविष्ट किया गया । इस संदर्भ में न्यायसंस्था द्वारा दिखाई गई सजगता और दिए गए निर्णयों की जानकारी इस लेख में देखेंगे !

१. केरल विधानसभा में विरोधी दल के विधायकों द्वारा भीषण हंगामा कर मूल्यवान वस्तुओं की तोडफोड करना

     ‘मार्च २०१५ में केरल के बजट अधिवेशन के समय राज्य के वित्तमंत्री वित्त वर्ष २०१५-१६ का बजट प्रस्तुत कर रहे थे । विरोधियों ने उसका तीव्र विरोध किया । यह विरोध इतना भयंकर था कि विरोधी दल के विधायकों ने सभापति के सामने की हौद में (रिक्त स्थान में) जाकर शोर मचाया । तदुपरांत वे सीधे सभापति के डायस पर चढ गए । कुछ विधायक तो स्वयं के पटल पर ही खडे हो गए । कुछ विधायकों ने सभागृह के संगणक (कंप्युटर), ध्वनिविस्तारक (माईक), कुर्सियां और अनेक मूल्यवान वस्तुओं की तोडफोड की । इस समय बडा हंगामा कर विरोधी दल द्वारा विधानसभा का कामकाज रोकने का प्रयास किया गया । इसमें सत्ताधारी दल भी पीछे नहीं था । उन्होंने भी इसी प्रकार हंगामा किया ।

२. विधानसभा में हंगामा करने के प्रकरण में सभी दल के विधायकों पर फौजदारी अपराध प्रविष्ट किए जाना

     विधानसभा के सभागृह में हुए हंगामे और तोडफोड के प्रकरण में विधिधमंडल के सचिव द्वारा पुलिस में परिवाद (शिकायत) प्रविष्ट किया गया । भारतीय दंड विधान कानून की धारा ४४७, ४२७, संपत्ति की हानि करना, अपराध इत्यादि धाराएं विधायकों पर लगाई गई । ‘सार्वजनिक संपत्ति हानि प्रतिबंध अधिनियम’ नामक नया विशेष कानून पारित किया गया । इस कानून की धाराएं लगाकर भी अपराध प्रविष्ट किया गया ।

३. ‘फौजदारी प्रक्रिया संहिता ३२१’ के अनुसार सरकारी अधिवक्ताओं द्वारा न्यायालय में आवेदन प्रस्तुत कर अभियोग निरस्त करने का प्रयास करना

३ अ. अभियोग निरस्त करने हेतु ‘फौजदारी प्रक्रिया संहिता की धारा ३२१’ का महत्त्व : इस प्रकरण का अन्वेषण पूर्ण होने पर ‘फौजदारी प्रक्रिया संहिता’ के अनुसार (क्रिमिनल प्रोसिजर कोड के अनुसार) ६० अथवा ९० दिनों के भीतर आरोपपत्र प्रविष्ट करना अपेक्षित था । सरकारी अधिवक्ताओं ने अचानक ‘फौजदारी प्रक्रिया संहिता धारा ३२१’ के अनुसार यह अभियोग रोकने के लिए तहसील स्तरीय फौजदारी न्यायालय में आवेदन प्रस्तुत किया । जिस प्रकरण में प्रमाण (सबूत) उपलब्ध नहीं है और अपराध सिद्ध होने की संभावना भी लगभग नहीं है, ऐसे में ‘फौजदारी प्रक्रिया संहिता धारा ३२१’ के अनुसार सरकारी अधिवक्ता आवेदन देकर अभियोग रोक सकते हैं । इसका उपयोग कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए किया जाता है । सरकारी अधिवक्ता द्वारा यह आवेदन सद्भावना से जनता के हित हेतु और किसी भी दबाव में न आकर करना अपेक्षित है ।

३ आ. इस समय युक्तिवाद किया गया कि सभागृह में घटित होनेवाली घटनाओं के विषय में पुलिस में अपराध प्रविष्ट नहीं किया जा सकता । सभागृह में हुए अनुचित आचरण के विषय में सभापति अपने अधिकार क्षेत्र में अधिकारभंग की कार्यवाही कर सकते हैं । इस प्रकरण में विधिमंडल के सचिव ने अपराध प्रविष्ट किया; परंतु यह अधिकार केवल सभापति को है । धारा १९४ के अनुसार विधायकों को भारतीय संविधान ने कुछ विशेषाधिकार दिए हैं । इसलिए उन पर अपराध प्रविष्ट नहीं किया जा सकता ।

३ इ. सरकारी अधिवक्ताओं द्वारा ‘फौजदारी प्रक्रिया संहिता धारा ३२१’ के अनुसार आवेदन करने पर न्यायालय के पास विशेषाधिकार नहीं रहते । उनकी भूमिका केवल पर्यवेक्षक की होती है । इसलिए आवेदन मिलने पर वह अभियोग न्यायालय को निरस्त करना पडता है । ‘फौजदारी प्रक्रिया संहिता धारा ३२१’ के अनुसार आरोपपत्र प्रविष्ट करने के पूर्व आवेदन प्रस्तुत करने पर अभियोग आगे नहीं चलाया जा सकता और आरोपी दोषमुक्त होता है । आरोपपत्र प्रविष्ट करने के उपरांत भी सरकारी अधिवक्ता आवेदन प्रविष्ट कर सकते हैं । उस समय ‘चार्ज फ्रेम’ (आरोप निश्चित करना) करने की आवश्यकता नहीं होती । संक्षेप में इसका लाभ आरोपी को होता है ।

४. सरकारी अधिवक्ता द्वारा अभियोग रोकने के लिए दिया आवेदन न्यायालय द्वारा निरस्त करना

     अभियोग रोकने के लिए सरकारी अधिवक्ता द्वारा ‘फौजदारी प्रक्रिया संहिता धारा ३२१’ के अनुसार दिए आवेदन को न्यायालय ने निरस्त किया । इस हेतु न्यायालय द्वारा दिए गए कारण वास्तव में उचित थे । न्यायालय ने कहा कि सरकारी संपत्ति की रक्षा हेतु विशेष कानून बनाया गया है । उसके अंतर्गत अपराध प्रविष्ट किए जाने पर उसे वापस नहीं ले सकते । प्रविष्ट किए गए अपराध हेतु प्रमाणों (सबूतों) के आधार पर अभियोग चलाना, यह सरकारी अधिवक्ता का कर्तव्य है । उसे साक्षियों (गवाहों) से प्रतिप्रश्न पूछकर लोगों को न्याय मिले, इस दृष्टि से प्रयास करना आवश्यक है । आरोपपत्र प्रविष्ट न करना, यह उसकी सद्भावना का भाग नहीं हो सकता ।

५. उच्च न्यायालय द्वारा पुनर्निरीक्षण याचिका निरस्त करना

     तहसील न्यायालय द्वारा आवेदन निरस्त करने पर केरल सरकार और जिनके विरुद्ध अपराध प्रविष्ट किए गए, उन विधायकों ने एकत्रित रूप से केरल उच्च न्यायालय में ‘रिविजन’ (पुनर्निरीक्षण याचिका) प्रविष्ट किया । जब यह ‘रिविजन’ केरल उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति वी.जी. अरुण के समक्ष आया, तब उन्होंने यह ‘रिविजन’ अस्वीकार किया ।

     न्यायमूर्ति अरुण ने कहा कि जिस प्रकार सरकार तहसील न्यायालय के निर्णय को चुनौती दे रही है, उसका यही अर्थ है कि सरकारी अधिवक्ता पर इस आवेदन को प्रविष्ट करने के लिए दबाव लाया गया है । भारतीय संविधान की धारा १९४ का उद्देश्य यह नहीं कि उस छूट का लाभ उठाकर विधायक हंगामा करें, अशोभनीय आचरण करें और कामकाज बंद करने का प्रयास करें । केवल सभागृह का कामकाज व्यवस्थित चले और उसमें विधायकों का सक्रिय सहभाग हो, इसलिए यह छूट दी गई है ।

     केरल उच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसा आवेदन करने के लिए सरकारी अधिवक्ता पर कोई दबाव लाया गया हो, उन्हें कुछ कष्ट हुआ हो अथवा उनका उत्पीडन हुआ हो, तो भी वे अपराध प्रविष्ट किए हुए प्रकरण जारी रखें । विधिमंडल में मस्ती और गुंडागिरी कर सभागृह का कामकाज भंग करने के लिए विधायकों को संविधान ने छूट नहीं दी है ।

     इस समय केरल उच्च न्यायालय ने सर्वाेच्च न्यायालय के ‘डॉ. जगन्नाथ मिश्रा विरुद्ध बिहार सरकार’ अभियोग का संदर्भ देते हुए कहा कि सरकारी अधिवक्ता अपने मनानुसार किसी भी प्रकार का आवेदन नहीं दे सकते । यह आवेदन ‘एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ जस्टिस’ की (न्यायदान की) दृष्टि से होना चाहिए । यह प्रकरण वापस लेने के पीछे यदि सद्भावना हो, तो ही आवेदन स्वीकार करें, अन्यथा उसे अस्वीकार करें ।

     इससे पहले कुछ वर्षाें पूर्व महाराष्ट्र के एक विधायक ने सभापति की ओर पेपरवेट फेंककर मारा था । इस प्रकरण में उसका केवल निलंबन ही नहीं किया गया, अपितु उसके विरुद्ध फौजदारी अपराध प्रविष्ट किया गया, जिसके कारण उसे ६ मास का कारावास भी भोगना पडा ।

६. धारा ३२१ का अन्य एक प्रकरण

     केरल के एक विधायक के विरुद्ध भारतीय दंडविधान की धारा १९५ और धारा ५०६ के अंतर्गत अपराध प्रविष्ट किया गया । तदुपरांत अभियोग रोकने के लिए सरकारी अधिवक्ता ने धारा ३२१ के अंतर्गत कनिष्ठ न्यायालय में आवेदन दिया । यह आवेदन कनिष्ठ न्यायालय ने स्वीकार किया, जिससे आरोपी के विरुद्ध अभियोग समाप्त हुआ; परंतु इस संदर्भ में एक अन्य व्यक्ति ने उच्च न्यायालय में ‘रिविजन’ (पुनर्निरीक्षण याचिका) प्रविष्ट किया । तब ‘आवेदनकर्ता अन्य होने से उसका ‘रिविजन’ स्वीकारा नहीं जा सकता’, ऐसा समझकर ‘रिविजन’ अस्वीकृत किया गया ।

     यह प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय में गया । सर्वोच्च न्यायालय की द्विसदस्यीय खंडपीठ के मुख्य न्यायाधिपति मिश्रा और न्यायमूर्ति चंद्रचूड ने उत्तम निर्णय दिया । उन्होंने कहा कि तहसील न्यायालय सरकारी अधिवक्ताओं का आवेदन स्वीकृत करती है और उच्च न्यायालय ‘रिविजन’ अन्य व्यक्ति का होने से उसे अस्वीकृत करती है, यह अनुचित है । इस प्रकरण का सर्वोच्च न्यायालय ने परीक्षण किया और उच्च न्यायालय का आदेश निरस्त किया । साथ ही यह प्रकरण अन्वेषण हेतु पुन: तहसील न्यायालय को भेजा ।

     इस कानून के विषय में सूत्र उपस्थित किए गए कि संविधान ने जनता के कल्याण हेतु जनप्रतिनिधियों को धारा १९४ अथवा १०५ के अंतर्गत विशेष अधिकार प्रदान किए हैं ।

     इसलिए सरकारी अधिवक्ता द्वारा सद्भावना से आवेदन दिया हो, तो ही उसे स्वीकार करें । आज तक इस विषय पर सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णयों पर विचारमंथन कर प्रकरण स्वीकार किया गया ।

७. सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा केरल उच्च न्यायालय का निर्णय यथावत रखकर सजगता दिखाना

     केरल विधिमंडल में अशोभनीय आचरण करनेवाले विधायकों के विरोध में अभियोग निरस्त करने के संदर्भ में ‘रिविजन’ केरल उच्च न्यायालय द्वारा अस्वीकार करने पर उसे सर्वाेच्च न्यायालय में चुनौती दी गई । इसकी सुनवाई द्विसदस्यीय खंडपीठ चंद्रचूड और एम.आर. शाह के समक्ष की गई । चंद्रचूड वर्ष २०१८ में मुख्य न्यायाधिपति मिश्रा के साथ केरल के एक अभियोग में सहभागी हुए थे । उस समय उन्होंने विधायकों के अशोभनीय आचरण को सहन न करते हुए विधायकों पर प्रविष्ट अभियोग जारी रखने का आदेश दिया था । इसलिए हाल ही में जब केरल का प्रकरण उनके समक्ष आया, तब उन्होंने कहा कि केरल उच्च न्यायालय का निर्णय निरस्त करने का हमारा विचार नहीं है । इसलिए हम विधायकों का इस प्रकार का अनुचित आचरण सहन नहीं कर सकते ।

     सरकारी अधिवक्ताओं को ‘प्रिवेन्शन ऑफ पब्लिक प्रॉपर्टी एक्ट’ (सार्वजनिक संपत्ति हानि प्रतिबंध अधिनियम) इस विशेष कानून के अंतर्गत प्रविष्ट हुए अपराध आवेदन देकर वापस लेना संभव नहीं होगा । साथ ही विधायकों को बचाने के लिए सरकार की ओर से जो चुनौती दी गई, वह भी स्वीकार नहीं की जा सकती । इस पूरे प्रकरण में हम आपके पक्ष में निर्णय देने के लिए उत्सुक नहीं’, ऐसा न्यायमूर्ति द्वारा स्पष्ट बताया गया और ८ दिन के उपरांत प्रकरण सुनवाई हेतु भेजा । ‘यह सभी अनुचित प्रकार जनता के लिए अपमानास्पद है । ऐसे विधायक अपने अनुचित आचरण द्वारा समाज के समक्ष क्या आदर्श रखना चाहते हैं ?’, ऐसा प्रश्न न्यायालय ने विधायकों के अधिवक्ता से पूछा । हाल ही में सर्वाेच्च न्यायालय ने केरल उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सरकार द्वारा प्रस्तुत याचिका अस्वीकार की ।

८. जनप्रतिनिधि दायित्वपूर्वक आचरण कर सभागृह का प्रत्येक क्षण जनता के हित हेतु उपयोग करें !

     जो केरल के विधिमंडल में हुआ, वही न्यून-अधिक मात्रा में सभी राज्यों के विधिमंडल में देखने के लिए मिलता है । विधिमंडल के अधिवेशनों पर जनता के सहस्रों कोटि रुपए व्यय (खर्च) होते हैं, इसका जनप्रतिनिधियों को विचार करना चाहिए । उस काल में प्रशासन के कर्मचारियों से लेकर सचिव तक सभी लोगों को सतर्क रहना पडता है । इसलिए जिस अपेक्षा से जनता ने सभी दलों के विधायक और सांसदों को प्रतिनिधि के रूप में विधिमंडल में भेजा है, उसका विचार कर उन्हें सभागृह का प्रत्येक क्षण जनता के हित हेतु व्यतीत करना चाहिए । साथ ही जनता तक उचित संदेश जाए, इस दायित्व का भान रखकर आचरण करना चाहिए ।

     विगत कुछ वर्षाें से दिखाई देता है कि सहस्रों कोटि रुपए का बजट हंगामे में ही स्वीकृत होता है । पहले सरकार द्वारा प्रस्तुत बजट पर सरकार और विरोधी दल के विधायक अथवा सांसद सभागृह में यथोचित चर्चा करते थे । अधिवेशन काल में ४-४ घंटे मंत्री और विरोधी दल के नेता भाषण देते थे । उनमें जनता के हित की लगन दिखाई देती थी । विगत कुछ वर्षाें से अधिवेशन कुश्ती का अखाडा हो गया है । सभापति के सामने के रिक्त स्थान पर उतरना, सभापति पर कागज फेंकना, ध्वनिविस्तारक (माइक) और कुर्सियों की तोडफोड करना, सभापति के सामने लगा राजदंड चुराने का प्रयास करना, इतना ही नहीं अपितु अब सभापति को धक्का मुक्की करने का साहस भी जनप्रतिनिधि कर रहे हैं । ऐसा अशोभनीय आचरण करना और स्वयं के विरोध में अभियोग न चलें; इसलिए सभापति केवल अधिकारभंग के अंतर्गत आदेश दें, ऐसी वर्तमान विधायकों और सांसदों की अपेक्षा होती है ।

     भारत ने लोकतंत्र को स्वीकार किया है; परंतु उसके अत्यधिक महत्त्वपूर्ण अंग विधिमंडल में किस प्रकार आचरण करते हैं, यह जनता तटस्थता से देख रही है । इसलिए वैध मार्ग से क्रियाशील होकर इसमें परिवर्तन करना आवश्यक है । जनता को जागृत होकर ऐसे विधायकों अथवा सांसदों को उनके द्वारा किए गए दुष्कृत्यों के लिए घर बिठाना चाहिए । इससे वे मतदाताओं का आदर करेंगे और शालीनता दिखाएंगे, ऐसी आशा करते हैं । ‘ऐसी स्थिति में आदर्श ‘हिन्दू राष्ट्र’ अर्थात रामराज्य स्थापित हो’, ऐसा समस्त हिन्दुओं को लगे तो क्या आश्चर्य ?’

श्रीकृष्णार्पणमस्तु ।’

– (पूज्य) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णी, संस्थापक सदस्य, हिन्दू विधिज्ञ परिषद और अधिवक्ता, मुंबई उच्च न्यायालय (१०.७.२०२१)