संपादकीय
किसी भी धर्मप्रेमी मुसलमान को आनंद मिलेगा, ऐसा चित्र अफगानिस्तान में पुन: देखने के लिए मिलता है । शरीयत कानून का अवलंबन करनेवाले तालिबान ने अफगानिस्तान में पुन: एक बार सत्ता हस्तगत की है । गत २ दशकों से अफगानिस्तान में अमेरिका ने तैनात की गई अपनी सेना को वापस बुला लिया है ।
‘सीएए’ में परिवर्तन होगा ?
इस संकट में प्रत्येक देश अपने-अपने नागरिकों को वापस अपने देश सुरक्षित कैसे ला सकता है ? इसके लिए भारत ने भी ‘विशेष वीसा’ की सुविधा आरंभ की है, जिससे अफगानिस्तान में नौकरी अथवा अन्य कारणवश वहां गए भारतीय नागरिकों को वापस ला सकें । कांग्रेस के प्रवक्ता जयवीर शेरगिल ने स्पष्ट किया कि ‘‘सीएए’ को (नागरिकता सुधार कानून को) मात्र हमारा समर्थन नहीं ।’ वास्तव में तालिबान समान कट्टरतावादी सत्ताधारियों के काल में ‘सीएए’ कानून की खरी आवश्यकता अधिक प्रकर्षता से प्रतीत होती है । इसीलिए ‘भारत ने अफगानिस्तान के ५० हिन्दू और ६५० सिख नागरिकों को तत्परता से देश में लाए । साथ ही ‘सीएए’ कानून में और सुधार कर देश की नागरिकता मिलने के लिए देश में कम से कम ६ वर्ष रहने के निकष (मापदंड) को अफगानी अल्पसंख्यकों के लिए शिथिल करते हुए वह काल अल्प करें’, ऐसे किसी संवेदनशील भारतीय को लगे, तो इसमें आश्चर्य नहीं ।
अफगानिस्तान समान संकट ६ वर्ष पहले मध्यपूर्व में निर्माण हुआ था । इस्लामिक स्टेट, बोको हराम जैसी जिहादी आतंकवादी संगठनों से भयग्रस्त होने का कारण बताते हुए इराक, सीरिया जैसे एशियाई देश और लीबिया, सुडान जैसे उत्तर अफ्रीकी देशों से लाखों मुसलमान लोगों ने यूरोप के विविध देशों में आश्रय लिया । ‘यूरो न्यूज’ के अनुसार अफगानिस्तान के शरणार्थी संकट पर जर्मनी के चान्सलर एंजेला मर्केल का कहना है कि ‘हम सभी को स्वीकार कर सभी समस्याएं नहीं सुलझा सकते ।’ ‘रॉयटर्स’ वृत्तसंस्था के अनुसार जर्मनी सहित ६ यूरोपीय देशों ने स्पष्ट किया है कि ‘वे अफगानी नागरिकों को नहीं स्वीकारेंगे ।’ वर्ष २०१५-१६ में जिस प्रकार ५० से भी अधिक मुसलमान देशों में से एक भी देश ने मुसलमान शरणार्थियों को अपने देश में आश्रय नहीं दिया था, वैसा ही चित्र अब भी दिखाई देने लगा है । अमेरिका ने बांग्लादेश से अफगानी शरणार्थियों को आश्रय देने का आवाहन किया; परंतु इस विनती को बांग्लादेश ने अस्वीकार कर दिया । कुल पृष्ठभूमि पर जिस प्रकार म्यांमार के रोहिंग्याओं को भारत आश्रय देने का प्रयत्न करे, ऐसे कुछ वर्ष पूर्व सलाह दी जा रही थी, वैसे ही अफगानी शरणार्थियों को आश्रय देने का दबाव भी डाले जाने की पूरी संभावना है । अपने राजनीतिक हित एवं भविष्य को देखते हुए भारत के मानवतावादी, आधुनिकतावादी, धर्मनिरपेक्षतावादी आदि ने भी ऐसी मांग करना और उसके लिए अपनी छाती पीटना आरंभ किया, तो आश्चर्य नहीं !
‘दारुल इस्लाम’ की चाल ?
अब प्रश्न उठ रहा है कि ‘ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करना और उस माध्यम से धर्मांधों का विविध देशों में आश्रय लेने का प्रयत्न करना’, यह नया जागतिक षड्यंत्र तो नहीं है न ? अनेक विशेषज्ञों के मतानुसार इस परिस्थिति के पीछे धर्मांधों के धर्मग्रंथ की सीख ही कारणभूत है । इसके अतिरिक्त अपने ही धर्मबंधुओं को संकट के समय उन्हें आश्रय न देने जैसी इस्लामी देशों ने कठोर भूमिका न ली होती । जहां-जहां ‘दारुल हरब’ है अर्थात ‘जहां इस्लाम का राज्य नहीं’, वहां-वहां अपना संख्याबल बढाकर इस्लामी सत्ता किस प्रकार स्थापित की जा सकती है अर्थात उस प्रदेश के ‘दारुल इस्लाम’ में (इस्लामी सत्ता स्थापित करने में) रूपांतर हो सकता है, यह उनकी धर्माधारित सीख है । इस कारण ही कंधार (अफगानिस्तान) से चित्तगांव तक (बांग्लादेश) और आसेतुहिमालय हिन्दू भूप्रदेश गत १५० वर्षाें में खंडित हो गया । अब तालिबानियों का कारण देते हुए यही अफगानी नागरिक भारत का आश्रय मांगेंगे । तालिबान के प्रवक्ता ने इसी कारण भारत के ‘सीएए’ कानून का विरोध करते हुए ऐसी भूमिका प्रस्तुत की कि ‘केवल अफगानी अल्पसंख्यकों को ही नहीं, अपितु सभी अफगानी शरणार्थियों को भारत में आश्रय के साथ नागरिकता भी दे ।’ दूसरी ओर वर्ष २०१७ में ‘प्यू रिसर्च सेंटर’ ने अपने ब्योरे में कहा है, ‘अफगानिस्तान के ९९ प्रतिशत लोग शरीयत कानून के समर्थक हैं ।’ इसलिए ऐसा कहना कि ‘शरीयत कानून के कठोर नियमों से घबराकर अधिकांश धर्मांध अफगानी नागरिक भाग रहे हैं’, इसकी असत्यता ध्यान में आती है । इस्लामी अध्ययनकर्ता और विश्वप्रसिद्ध लेखक तारेक फतेह अनेक बार ‘गजवा-ए-हिन्द’ संज्ञा का उपयोग करते हैं । ‘गजवा-ए-हिन्द’ अर्थात भारतीय उपमहाद्वीप को इस्लाममय करने के लिए आरंभ की गई मुहिम ! अफगानिस्तान में हो रही गतिविधियां इस संभावना की ओर संकेत कर रही हैं । यदि ऐसा नहीं होने देना है, तो भारत के हिन्दुओं को संगठित होकर हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना अपरिहार्य है, यह ध्यान में रखें !