विनम्रता एवं दास्यभाव के मूर्तिमंत प्रतीक हिन्दू जनजागृति समिति के राष्ट्रीय मार्गदर्शक सद्गुरु डॉ. चारुदत्त पिंगळेजी !

     ‘एक बार हम गोवा से पुणे की यात्रा कर रहे थे । उस समय सद्गुरु पिंगळेजी मेरे बगल में बैठे थे । सद्गुरु पिंगळेजी के प्रभाव से ‘स्टेयरिंग’ पर हाथ होने के समय मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ‘मैंने परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के चरण पकडे हुए हैं ।’ सद्गुरु पिंगळेजी के इस सान्निध्य में मुझे अनुभव हुई उनकी गुणविशेषताएं यहां रख रहा हूं ।

श्री. गुरुप्रसाद गौडा

१. व्यावहारिक विषयों के संदर्भ में भी आध्यात्मिक स्तर पर विचार रखना

     सद्गुरु पिंगळेजी के साथ हम जिस गाडी में यात्रा कर रहे थे । उस गाडी में ‘गूगल असिस्टेंट’ से (‘गूगल असिस्टेंट’ अर्थात चलितभाष चलाने के लिए सहायता करनेवाला स्वचालित तंत्र) कोई प्रश्‍न पूछने पर तुरंत उसका उत्तर मिलने की सुविधा थी । उसके संदर्भ में सद्गुरु पिंगळेजी ने कहा, ‘‘इतना अच्छा आज्ञापालन करनेवाला अभीतक कोई नहीं है ।’’

२. साधकों को आश्रम की कार्यपद्धतियों का महत्त्व विशद करना

     सद्गुरु पिंगळेजी बताते हैं, ‘हमारा प्रत्येक कृत्य आश्रम की कार्यपद्धति के अनुसार ही होना चाहिए ।’ हमारे कारण आश्रम के उत्तरदायी साधकों को कुछ समस्या नहीं होनी चाहिए ।’ एक बार घर पर कपडों को इस्तरी करते समय मेरी पत्नी श्रीमती वैदेही (सद्गुरु पिंगळेजी की पुत्री) ने नीचे कुछ लिए बिना और इस्तरी का तापमान न देखकर नीचे जो शतरंजी और गलीचा था, उस पर इस्तरी करने लगी । तब उसका वस्त्रप्रावरण थोडा सा जल गया । तब सद्गुरु पिंगळेजी ने कहा, ‘‘आश्रम में हमें जो कार्यपद्धतियां बनाकर दी गई हैं, उसका पालन सर्वत्र होना चाहिए ।’’

३. ‘सबकुछ परात्पर गुरुदेवजी की कृपा से हो रहा है’, इस भाव में होना

     एक बार मैंने सद्गुरु पिंगळेजी से कहा, ‘‘आपके कक्ष और ध्यानमंदिर के बीच कोई अंतर नहीं लगता । आपके कक्ष में नामजप अच्छा होता है ।’’ उस पर उन्होंने कहा, ‘‘परात्पर गुरुदेवजी का प्रभामंडल (औरा) १०० मीटर है; इस कारण ऐसा होता है ।’’ तब मुझे उनकी भावस्थिति का अनुभव हुआ । मैंने एक संतजी को यह प्रसंग बताया, तब वे कहने लगे, ‘‘उनके विचार ऐसे हैं; उस कारण से ही वे संत हैं ।’’

– श्री. गुरुप्रसाद गौडा (जमाई), मंगलूरु (२७.११.२०२०)

४. स्वयं के आचरण से ‘साधक तो गुरुदेवजी के ही निर्गुण रूप हैं’, इसकी शिक्षा देनेवाले सद्गुरु डॉ. पिंगळेजी !

     ठंड के मौसम में एक साधिका को आध्यात्मिक कष्ट हो रहा था । उसे ठंड से कष्ट न हो; इसके लिए सद्गुरु पिंगळेजी ने अपने हाथों से उसकी चप्पलें उठाकर पैर में डालने के लिए दिए । उस समय सद्गुरु पिंगळेजी हमसे कहने लगे, ‘‘साधक तो गुरुदेवजी के ही रूप हैं । हमें साधकों में गुरुदेवजी का निर्गुण रूप देखना संभव होना चाहिए ।’’ तब ‘मैं साधकों को समझने में अल्प पड गई’, यह मेरे ध्यान में आया ।

– कु. पूनम चौधरी, देहली सेवाकेंद्र (६.१.२०२१)