पहले गौरीअम्मा अब शैलजा !

     केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन् ने मंत्रीमंडल की घोषणा की । ‘नए और युवा रक्त के उम्मीदवारों को मंत्रीमंडल में अवसर देंगे’, ऐसा कहते हुए उन्होंने भूतपूर्व स्वास्थ्यमंत्री और इस बार बहुमत से चुनकर आई के.के. शैलजा को मंत्रीमंडल से निकाल दिया । विजयन् के पिछले मंत्रीमंडल में शैलजा को प्रथम बार ही स्वास्थ्यमंत्री बनने का अवसर मिला था और उन्होंने उस अवसर का लाभ उठाया । उनके कार्यकाल में उन्होंने निपाह विषाणु का संसर्ग रोकने के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किया । कोरोना की पहली लहर में उन्होंने केरल में कोरोना का संसर्ग रोकने के लिए कठोर प्रयत्न किए । इसके लिए उन्हें अंतराष्ट्रीय ख्याति मिली । इस वर्ष के विधानसभा चुनावों के प्रचार में अनेक राज्यस्तरीय प्रसारमाध्यमों ने, ‘के.के. शैलजा राज्य की मुख्यमंत्री हो सकती हैं’, इस आशय के समाचार दिए । शैलजा सदैव विजयन् की ‘प्रामाणिक मंत्री’ बनकर कार्यरत रहीं; मात्र पक्षांतर्गत अपना स्पर्धक निर्माण होते देख विजयन् की मति पलट गई और उन्होंने सुनियोजित ढंग से शैलजा का कांटा निकाल दिया । केरल में सत्ताधारी साम्यवादी पक्ष, जो पक्ष के ‘पॉलिट ब्यूरो’ के अनुसार कार्य करता है, यह केवल कहने की बात है । राज्य में विजयन् की एकाधिकारशाही चलती है । पॉलिट ब्यूरो क्या कहती है, विजयन् की दृष्टि में इसका मूल्य शून्य है । शैलजा को निकालने पर जब टीका-टिप्पणी होने लगी, तब पक्ष कहने लगा, ‘पिछले मंत्रीमंडल में कार्यरत केवल शैलजा ही नहीं, अपितु अनेक मंत्रियों को हटाया गया है । पार्टी की अगली पीढी को तैयार करने के लिए यह निर्णय लिया गया ।’ यह स्पष्टीकरण कितना हास्यास्पद है ! यदि पार्टी की अगली पीढी ही तैयार करनी है, तो यह नियम विजयन् पर क्यों नहीं लागू होता ? इसका उत्तर किसी के पास नहीं । यहां साम्यवादी पक्ष के अंतर्गत क्या घोटाला चल रहा है ? यह बताने में हमें रुचि नहीं । हमें हिन्दुओं को यह दिखाना है कि साम्यवादियों का स्त्रीवाद कितना खोखला है । ‘हिन्दू धर्म में स्त्री को दुय्यम स्थान दिया जाता है’, ऐसा कहनेवाले साम्यवादी किस प्रकार स्वपक्ष की विश्वसनीय महिला राजनीतिज्ञों के पैर खींचते हैं, इसका यह उत्तम उदाहरण है । ऐसे लोग हिन्दुओं को स्त्रीवाद सिखाने का दुःसाहस न करें !

साम्यवादियों का खोखला स्त्रीवाद !

     इस चुनाव के प्रचारकाल में मातृभूमि के पत्रकार ने शैलजा के पति भास्करन् से पूछा, ‘आपकी पत्नी मंत्री हैं, तो वे घर में रसोई बनाती हैं क्या ?’ उस समय शैलजा ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, ‘मुझे रसोई बनाना आता है अथवा नहीं, यह चुनाव का महत्त्वपूर्ण सूत्र नहीं हो सकता ।’ ऐसा कहते हुए उन्होंने उसे फटकार लगाई । उस समय पत्रकार ने विषय बदलने का प्रयत्न किया, तो वे बोलीं, ‘आप विषय मत बदलें । आपको रुचि इसमें है कि महिला रसोई बनाती है अथवा नहीं । हमारे घर में सभी को रसोई बनानी आती है । मैं रसोई में ही घुसी रहती तो आज यहां तक नहीं पहुंच पाती ।’ इससे शैलजा का कट्टर स्त्रीवाद दिखाई देता है; परंतु जिस तडप से उन्होंने पत्रकार को फटकारा, उसी तडप से वे पक्ष के निर्णय के विरोध में नहीं खडी हो सकीं । ‘मुझे सम्मिलित न करने से विरोध करना भावनात्मक है’, ऐसा कहकर वे चुप बैठ गईं । ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें यह ज्ञात है कि प्रचलित साम्यवादी व्यवस्था का विरोध कर बहुत कुछ हाथ नहीं लगेगा । साम्यवादियों की स्त्रीविरोधी राजनीति की बलि चढी शैलजा कोई पहली राजनेता नहीं ! इससे पूर्व केरल में साम्यवाद को प्रोत्साहन देनेवालीं के.आर. गौरी (गौरीअम्मा) वर्ष १९८७ में मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गईं । प्रशासन पर उत्तम पकड और आक्रामक नेता के रूप में वे लोगों में प्रचलित थीं; परंतु अंतिम क्षणों में उन्हें हटाकर इ.के. नयनार के गले में मुख्यमंत्रीपद की माला डाल दी गई । कहा जाता है कि ‘गौरीअम्मा को मुख्यमंत्री बनाने से वे सब पर भारी पड जाएंगी’, पक्ष के नेताओं को ऐसा भय था । संक्षेप में, साम्यवादियों की ‘पुरुषसत्ताक’ राजनीति में स्त्री राजनेता को स्थान नहीं, यही वास्तविकता है !

     ‘हिन्दुओं को स्त्री पर अन्याय करने की ‘प्रेरणा’ मनुस्मृति से मिलती है । हिन्दुओं के धर्मग्रंथ में स्त्री को दुय्यम स्थान देने के कारण ही वे स्त्रियों पर अत्याचार करते हैं’, साम्यवादी समर्थक स्त्रीवादी इस प्रकार की रट लगाते दिखाई देते हैं । ‘साम्यवादियों ने स्त्रियों पर अत्याचार करने की, उन्हें मार्ग से हटाने की प्रेरणा ‘दास कैपिटल’ से ली अथवा ‘मैनिफेस्टो ऑफ कम्यूनिस्ट पार्टी’ से ली ?’ अब उन्हें इसका उत्तर देना होगा । हिन्दुओं पर उंगली उठानेवाले ये साम्यवादी उनकी ही पार्टी की एक महिला राजनेता पर अन्याय होते देखकर भी ‘पार्टी का निर्णय’ कहकर चुप हैं । वृंदा करात ने दबे सुर में इसका विरोध तो किया, परंतु उनके विरोध में धार नहीं थी ।

हिन्दुओं को पांडित्य न सिखाएं !

     संसार में साम्यवादियों की जहां भी सत्ता थी, वहां महिलाओं पर भारी मात्रा में अत्याचार हुए, यह इतिहास है । सोवियत रूस के हुकुमशाह स्टैलिन द्वारा महिलाओं पर किए अत्याचार सर्वज्ञात हैं । चीन में तो ‘मी टू’ जैसे आंदोलनों के विषय में बोलने या स्त्रियों पर हुए अत्याचारों को उजागर करने पर रोक है । स्त्रियों के अधिकारों के विषय में भारत के साम्यवादी भी इससे भिन्न नहीं । केरल में माकपा के नेता पी.के. ससी पर डीवाइएफआइ, साम्यवादी पार्टी के युवा संगठन की महिला सदस्या का लैंगिक शोषण करने का आरोप लगा । साम्यवादियों ने जिस प्रकार यह प्रकरण दबाने का प्रयत्न किया, उससे सत्ताधारी साम्यवादियों को स्त्रियों के प्रति कितनी आत्मीयता है, यह स्पष्ट दिखाई देता है । यही नहीं, नक्सली संगठनों में महिला नक्सलियों का जब लैंगिक शोषण होता है; तब साम्यवादी चुप रहते हैं ।

     ऐसे साम्यवादियों का स्त्रीसमानता के विषय में बोलना अपनेआप में बडा ही हास्यास्पद है । केरल में शबरीमला मंदिर में सर्व आयुवर्ग की महिलाओं को प्रवेश मिले, इस हेतु सत्ताधारी साम्यवादियों ने समर्थन किया । यहां ‘स्त्रियों को समान अधिकार चाहिए’, यह सूत्र उन्होंने पकडकर रखा । हिन्दुओं की प्रथा-परंपराओं में नाक घुसेडकर उसे स्त्रीविरोधी कहनेवाले साम्यवादी उन्हीं की ‘कॉमरेड’ महिलाओं को न्याय नहीं दिलवा पाते । ऐसे साम्यवादियों द्वारा धारण किए स्त्रीसमानता का, इसके साथ ही मानवतावाद का बुरका कब का फाडा जा चुका है । सभी को पुन: इस सत्य का स्मरण हो, इसलिए यह लेख प्रस्तुत है !