नजरबंदी और जमानत की वास्तविकता !

न्याय क्षेत्र के समाचारों का विश्लेषण

     ‘कोरेगांव भीमा दंगों के प्रकरण में गौतम नवलखा, वरनॉन गोन्‍सालविस और अन्‍य कार्यकर्ताआें को महाराष्‍ट्र सरकार एवं राष्‍ट्रीय अन्‍वेषण अभिकरण (एनआईए) ने अगस्‍त २०१८ में गिरफ्‍तार किया । इन लोगों के पास आपत्तिजनक पुस्‍तकें, लेख, दृश्‍यश्रव्‍य-चक्रिकाएं आदि वस्‍तुएं मिली थीं । उन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्‍या करने का षड्‍यंत्र रचने का आरोप होने के कारण एनआईए ने इस प्रकरण की जांच की ।

पू. (अधिवक्ता) सुरेश कुलकर्णी

१. ‘शहरी नक्‍सली’ के आरोपियों को सर्वोच्‍च न्‍यायालय द्वारा नजरबंदी में रखने के आदेश देना

     स्‍वयं को विचारक, विद्रोही, क्रांतिकारी, वाम आदि कहलवाने वाले, ऐसे अधिकतर लोगों की छवि प्रसारमाध्‍यमों ने बनाई होती है । माध्‍यमों के ऐसे अत्‍यंत प्रिय व्‍यक्‍तित्‍व जब कानून के घेरे में फंसते हैं, तब अनेक वरिष्‍ठ पत्रकारों के प्राण व्‍याकुल हो जाते हैं । ऐेसे समय विचारकों की टोली के बडे अधिवक्‍ता तथाकथित अन्‍यायपीडित विचारकों के पक्ष में खडे रहते हैं । इस समय भी ऐसा ही हुआ । व्‍यथित हुए कथित इतिहासकार, आधुनिकतावादी, बुद्धिवादी आदि ने तुरंत इस गिरफ्‍तारी को सर्वोच न्‍यायालय में चुनौती दी । विशेषतः उस समय ‘मैं भी शहरी नक्‍सलवादी’ ऐसी नई बात प्रारंभ हो गई । प्रारंभ में सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने उन्‍हें ‘कारागृह अथवा पुलिस कोठरी न देते हुए नजरबंद किया जाए’, ऐसा आदेश दिया । यह आदेश साधारणत: १ वर्ष से अधिक समय तक रहा ।

२. एनआईए द्वारा सर्वोच्‍च न्‍यायालय से आरोपियों को गिरफ्‍तार करने के आदेश प्राप्‍त करना

     नजरबंदी में ये लोग घर में ही परिजनों और कानून विशेषज्ञों से परामर्श कर रहे थे । उनका जीवन सुख से व्‍यतीत हो रहा था । उसी समय सर्वोच्‍च न्‍यायालय और अन्‍य उच्‍च न्‍यायालयों के आदेशों के अनुसार एनआईए ने नियमानुसार अनुमति लेकर उन्‍हें गिरफ्‍तार करने का प्रयत्न किया; परंतु कुछ लोगों ने न्‍यायालय में जाकर जमानत प्राप्‍त कर ली । आरोपियों को गिरफ्‍तार करने में एनआईए को असफलता मिलने पर वह सर्वोच्‍च न्‍यायालय में पहुंची । उसके उपरांत सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने एनआईए को अपेक्षित आदेश दिया । इसलिए १४ अप्रैल २०२० को गौतम नवलखा और अन्‍य व्‍यक्‍तियों को समर्पण करना पडा ।

३. विशेष न्‍यायालय और उच्‍च न्‍यायालय द्वारा जमानत निरस्‍त करना

अ. गिरफ्‍तारी में ९० दिनों के भीतर आरोपपत्र प्रविष्‍ट न करने के कारण जमानत प्राप्‍त करने के लिए इन लोगों ने एनआईए के विशेष न्‍यायालय में आवेदन दिया; परंतु विशेष न्‍यायालय ने उनकी मांग निरस्‍त कर दी ।

आ. ये लोग मुंबई उच्‍च न्‍यायालय में पहुंचे । उन्‍होंने ‘फौजदारी निगरानी संहिता १९७३ धारा १६७ (२) के अनुसार, ६०/९० दिनों में आरोपपत्र प्रविष्‍ट नहीं हुआ । इसलिए उन्‍होंने ‘डिफॉल्‍ट बेल’ दी जाए’, ऐसी मांग न्‍यायालय से की ।

इ. उस पर ‘नजरबंदी’ का अर्थ कानूनी गिरफ्‍तारी नहीं है । इसलिए न्‍यायाधीश ने ‘ट्रान्‍जिट रिमांड’ संबंधी आदेश देने के उपरांत गिरफ्‍तार की अवधि ‘डिफॉल्‍ट बेल’ के लिए ले सकते हैं’, ऐसा एनआईए ने युक्‍तिवाद किया । न्‍यायालय ने एनआईए का यह युक्‍तिवाद स्‍वीकार करते हुए संबंधितों की जमानत अस्‍वीकार कर दी ।

ई. १६ दिसंबर २०२० को यह युक्‍तिवाद हुआ । उच्‍च न्‍यायालय ने यह प्रकरण निर्णय के लिए संरक्षित रखा था । इस संबंध में न्‍यायालय ने हाल ही में आदेश दिया है । उसके अनुसार इन लोगों की जमानत का आवेदन निरस्‍त कर दिया गया ।

४. कांग्रेस का दोगलापन

अ. वर्ष २०१३ में समाजवादी दल के विधायक किशोर समित्रे ने सर्वोच्‍च न्‍यायालय में याचिका प्रविष्‍ट की थी । इसमें उन्‍होंने विनती की थी कि ‘नक्‍सलियों द्वारा पुलिस, सुरक्षाबल और नागरिकों की हत्‍या हो रही है । इसलिए सरकार कठोर कदम उठाए ।’ आश्‍चर्य यह है कि माओवादी नक्‍सलियों ने वर्ष २००१ से याचिका लंबित रहने तक ५ सहस्र ९६९ निर्दोष जीवों की हत्‍या की तथा इसी अवधि में २ सहस्र १४७ पुलिस और सशस्‍त्र दलों के यहां काम करनेवाले कर्मचारियों की हत्‍या की ।

आ. कांग्रेस के तत्‍कालीन केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने उच्‍च न्‍यायालय को सूचित किया कि माओवादी नक्‍सलियों ने देश में जनता के विरुद्ध प्रारंभ किया हुआ युद्ध गोरिल्ला युद्ध से भी महाभयंकर है । वे उपेक्षित समाज के घटकों को चुनते हैं तथा उनके मन पर अंकित करते हैं कि सरकार निरंतर उनका शोषण कर रही है । इस संबंध में केंद्र सरकार जागृत है तथा यह अभियान समाप्‍त करने के लिए कठोर प्रयत्न कर रही है । उसके उपरांत वर्ष २०१७ में सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने इस याचिका पर निर्णय दिया ।

इ. कोरेगांव भीमा दंगोें के प्रकरण में वर्ष २०१८ में शहरी नक्‍सली कहकर इन लोगों को गिरफ्‍तार किया गया । तब कांग्रेस पैर पटककर रोई; परंतु अब शाहीन बाग और किसान आंदोलन में हुई हानि के संबंध में एक शब्‍द भी न बोलते हुए सरकार के विरुद्ध गला फाड रही है ।

५. कोरेगांव भीमा के दंगों में शहरी नक्‍सलियों का सहभाग

     पुणे में एल्‍गार परिषद की बैठक हुई । परिषद में स्‍वयं को विचारक, इतिहासकार कहलवानेवाले, आधुनिकतावादी और शहरी नक्‍सलवादियों ने सहभाग लिया तथा दंगे भडकाने के लिए भडकाऊ भाषण दिए । उसका परिणाम जो होना चाहिए था, वही हुआ । जनवरी २०१८ में कोरेगांव भीमा परिसर में दंगे हुए  इस दंगे मेें सहस्रों करोड रुपयों की आर्थिक हानि हुई । एक हिन्‍दू युवक को (छत्रपति शिवाजी महाराज के चित्रवाली जैकेट पहना हुआ) मार दिया गया । उसके उपरांत आपत्तिजनक कविता, विवरण, भाषण तथा दृश्‍यश्रव्‍य-चक्रिकाएं रखने तथा दंगे भडकाने के लिए उत्तरदायी कहकर कबीर कला मंच के कुछ लोगों को गिरफ्‍तार किया गया ।

६. आरोपी की शायरी सुनने पर न्‍यायालय द्वारा आरोपी के
अधिवक्‍ता से सीधा प्रश्‍न करना कि ‘आपके पक्षकार को क्‍या स्‍वतंत्र देश चाहिए ?’

     २८ अगस्‍त २०१८ को वरनॉन गोन्‍सालवीस को उसके अंधेरी के निवास स्‍थान से गिरफ्‍तार किया गया । उसने जमानत के लिए आवेदन दिया । यह प्रकरण मुंबई उच्‍च न्‍यायालय के समक्ष आया । उसके उपरांत सरकार ने आरोपियों के विरुद्ध कुछ आपत्तिजनक कागजात न्‍यायालय के समक्ष रखे । उसमें कबीर कला मंच द्वारा की गई (राज्‍य सरकार द्वारा की जा रही अन्‍यायी तानाशाही सेे त्रस्‍त होने के कारण) राज्‍यदमन विरोधी शायरी थी । यह शायरी पढकर न्‍यायालय ने (न्‍यायमूर्ति सारंग कोतवाल ने) गोन्‍सालवीस के अधिवक्‍ता मिहीर देसाई से सीधा प्रश्‍न किया कि ‘क्‍या आपके पक्षकार को स्‍वतंत्र देश चाहिए ?’

७. शहरी नक्‍सलियों को नजरबंद देने के उपरांत उठा हुआ विवाद तार्किक होना

     कोरेगांव भीमा दंगे के प्रकरण में सर्वोच्‍च न्‍यायालय के आदेशानुसार नवलखा वर्ष २०१८ से नजरबंद थे और यह आदेश १० अक्‍टूबर २०१८ तक कायम था ।  नजरबंदी यह कारण धारा १६७ (२) के अनुसार गिरफ्‍तार की व्‍याख्‍या में नहीं आते । न्‍यायाधीश द्वारा ‘ट्रान्‍जिट रिमांड’ का आदेश दिए जाने के उपरांत हुई गिरफ्‍तारी, गिरफ्‍तारी की व्‍याख्‍या के अंतर्गत आती है । नजरबंदी के समय अन्‍वेषण अभिकरण आरोपियों का अन्‍वेषण नहीं कर पाया था । इसलिए ‘ट्रान्‍जिट रिमांड’ स्‍थगित रखा गया था । इसलिए आरोपी पुलिस या न्‍यायालय के नियंत्रण में नहीं थे । इस संबंध में मुंबई उच्‍च न्‍यायालय ने सर्वोच्‍च न्‍यायालय के निर्णय ‘छगंतीसत्‍य नारायण विरुद्ध आंध्र प्रदेश’ का आधार लिया । उसमें सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने कहा कि आरोपी की गिरफ्‍तारी रिमांड के दिन से होगी, तो ही वह अवधि ६०/९० दिन फौजदारी निगरानी संहिता (क्रिमिनल प्रोसीजर कोड) धारा १६७ (२) के अनुसार जमानत मिलने के लिए माना जा सकता है । जनवरी २०१८ में सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने शहरी नक्‍सली आरोपियों को नजरबंदी देने के उपरांत जो विवाद हुआ था, वह उचित ही था । यही सर्वोच्‍च न्‍यायालय का आंध्र प्रदेश सरकार विरुद्ध के अभियोग का निर्णय और मुंबई उच्‍च न्‍यायालय के निर्णय से सिद्ध होता है । नजरबंदी फौजदारी निगरानी संहिता में दी हुई व्‍याख्‍या के अंतर्गत कहीं नहीं आती ।

– (पू.) अधिवक्‍ता सुरेश कुलकर्णी, संस्‍थापक सदस्‍य, हिन्‍दू विधिज्ञ परिषद और अधिवक्‍ता, मुंबई उच्‍च न्‍यायालय.  (१६.२.२०२१)