
भारतीय वास्तुशास्त्र द्वारा किया गया विचार अन्य देशों में विकसित वास्तुशास्त्र में नहीं है !
‘विदेशों में विकसित वास्तुशास्त्र में वास्तु की मजबूती पर बल दिया गया है, अपितु भारतीय वास्तुशास्त्र में मजबूती के साथ ही उस घर में रहनेवाले व्यक्ति, उनकी मानसिक स्थिति तथा उन व्यक्तियों का ईश्वर के साथ संबंध का भी विचार किया गया है । इन दो वास्तुशास्त्रों में स्थित यह मूल अंतर होने की बात स्पष्ट करते हुए अधिवक्ता वझे ने बताया है कि सूर्य से निकलनेवाली किरणें, चुंबकीय आकर्षण एवं प्रमुख दिशा-उपदिशाएं ये तीन बातें हमारे (हिन्दू) वास्तुशास्त्र के आधार हैं ।’
– (दिशाचक्र, पृष्ठ ८३, प.पू. (स्व.) परशराम माधव पांडे महाराज, अकोला)
वास्तुपुरुष क्या होता है ?
वास्तुपुरुष का अर्थ है हमारे वास्तु के रक्षणकर्ता ! जब कोई स्वयं के लिए वास्तु का निर्माण करता है, उसे वहां रहने से पूर्व वास्तुपुरुष का निक्षेप करना पडता है । उसके कारण सुखसमृद्धि, आर्थिक स्थिरता, सभी का कल्याण, विचार तथा बातों में सकारात्मकता आए; इसके लिए विधिवत पद्धति से वास्तुपुरुष का निक्षेप किया जाता है ।
वास्तु की आग्नेय दिशा के कोने में गड्ढा खोदकर उस क्षेत्र में अंत में फर्श लगाना अच्छा रहता है; क्योंकि उस क्षेत्र में वास्तुपुरुष का निक्षेप करना पडता है । अनेक लोगों को यह ज्ञात नहीं होता तथा वे फर्श लगाने का कार्य पूरा करते हैं, अंततः गड्ढा खोदने के लिए फर्श में तोडफोड करनी पडती है । शास्त्र यह बताता है कि तैयार हुए वास्तु में तोडफोड करना अशुभ है ।
त्योहार के दिन जैसे हम पूजाघर के देवताओं को भोग लगाते हैं, उस प्रकार वास्तुपुरुष को स्वतंत्र रूप से भोग लगाएं । वास्तुपुरुष हमारे घर में सदैव एक वरदान देते रहते हैं, वह वरदान है ‘तथास्तु !’
वास्तुकला का इतिहास !
‘भारत में वेदकाल से वास्तुशास्त्र के अस्तित्व के अनेक प्रमाण मिलते हैं । गृह्यसूत्र में वास्तुशास्त्र के अनेक सिद्धांत मिलते हैं । शुल्बसूत्र में बताया गया है कि यज्ञवेदी की रचना करते समय कौनसी ईंटों का उपयोग करना चाहिए ? वाल्मीकि रामायण में अनेक स्थानों पर नगर, तट तथा किलों के वर्णन मिलते हैं ।
भारत के देवालयों के इतिहास की गहन जांच करने से ऐसा दिखाई देगा कि इन देवालयों के निर्माण में वेदांत एवं योगशास्त्र के अतिरिक्त भूगोल, भौतिक, गणित, भूमिति आदि शास्त्रों का, साथ ही गुरुत्वाकर्षणादि नियमों का उपयोग किया गया है । वैज्ञानिक सिद्धांतों का कलापूर्ण उपयोग करनेवाले ये देवालय, ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति कराने के साथ समाजधारणा भी करते थे, अपितु उस समय ‘देवालय’ सामाजिक जीवन के केंद्र थे’, ऐसा दिखाई देता है ।
– श्री. संजय मुळ्ये, रत्नागिरी
‘हिन्दुओं के देवालय !’ : वेदकाल से ही वास्तुशास्त्र के विकसित होने के प्रमाण हैं । उदाहरण के रूप में भारत के देवालयों को देखा जा सकता है । इन देवालयों की निर्मिति में विज्ञान एवं अध्यात्म का सुंदर संगम दिखाई देता है । देवालयों के वास्तुशास्त्र का अध्ययन कर उसका समाज में अवतरण करना ही आज के विज्ञानयुग के वास्तुविशेषज्ञों के लिए बडी चुनौती है ।