ज्येष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह का वक्तव्य

नई देहली – यहां ज्येष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंग ने वक्तव्य करते हुए कहा ‘देश में धर्मनिरपेक्ष संविधान होते हुए हिन्दू राष्ट्र कभी भी नहीं बन सकता । अर्थात जिस दिन आप इसे हिन्दू राष्ट्र बनाने का निर्णय लेंगे, तब आप वह बिना संविधान के करें । हम देख लेंगे कि उस दिन क्या करना है । आज के दिन हमें चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है ।’ वे ‘न्यायमूर्ति सुनंदा भंडारे मेमोरियल लेक्चर’ चर्चासत्र में ‘इंडियाज मॉडर्न कॉन्स्टिट्युशनैलिजम’ विषय पर ऐसा बोल रहीं थीं । इस समय सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर, देहली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति डी.के. उपाध्याय एवं न्यायमूर्ति विभू बखरू भी उपस्थित थें ।
‘We cannot form a Hindu Rashtra when a secular constitution exists!’
Statement by senior Advocate Indira Jaisingh
What we have to realise is that everything is subject to change. In the year 1975, Indira Gandhi forcibly inserted the words ‘secular’ and ‘socialism’ in the… pic.twitter.com/y9wtfPnJrC
— Sanatan Prabhat (@SanatanPrabhat) February 24, 2025
अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह द्वारा प्रस्तुत किए गए सूत्र
१. (और इनकी सुनिए…) ‘राम’ यह मेरी भारत के संदर्भ की कल्पना नहीं हैं !’
हम देखते हैं कि लोग कहते है ‘राम मेरी भारत के संदर्भ में कल्पना हैं ।’ मैं इससे असहमत हूं । (जयसिंह के वक्तव्य पर से ही उनकी मानसिकता स्पष्ट होती है ! – संपादक) ‘राम’ यह मेरी भारत के संदर्भ की कल्पना नहीं हैं । भारत का संविधान मेरी भारत के संदर्भ में संकल्पना है । (आज भी किसी भी देश का संविधान नहीं, अपितु रामराज्य को आदर्श माना जाता है । मोहनदास गांधी भी रामराज्य के समर्थक थे । ऐसा होते हुए भी इस प्रकार के वक्तव्य करना, अर्थात बुद्धिप्रामाण्यवाद है ! – संपादक) हमे कहा गया है कि संविधान भूतकाल के नागरी मूल्यों की अनदेखी करता है; तथापि उससे यह प्रश्न उठता है कि वास्तव में भूतकाल क्या है ? मैंने जिस प्रकार कहा ‘संविधान का निर्माण करते समय हमने एक खाली स्लेट पर काम किया है ।’
२. हम संविधान की रक्षा करेंगे !
नागरिकों से व्यवहार करते समय, संविधान उन्हें मूलभूत अधिकार प्रदान करता है, जिसका राज्य भी उल्लंघन नहीं कर सकता । तथापि अब संविधान को अस्वीकार करने की चुनौतियां बढ रही हैं । भारतीय संविधान में ‘धर्मनिरपेक्षता’ जैसे मूलभूत तत्त्वों के लिए अनेक चुनौतियां उपस्थित की जा रही हैं । देश के संविधान की पवित्रता एवं महत्त्व अबाधित रखने हेतु न्याय प्रबंधन का अत्यधिक महत्त्व है । यदि देश से संविधान हटाने का प्रयास हो रहा हो, तो हम उसका सामना करेंगे । हम संविधान की रक्षा करेंगे । हम यहां उस हेतु से ही हैं । हम जानते है कि संविधान की रक्षा कैसे की जाए; परंतु स्पष्ट बोलने का साहस न होने से आधाअधूरे वाक्यों से संकेत देना, यह भयभीत लोगों का लक्षण है ।
३. क्या न्याय प्रणाली ने अपनी भूमिका सफलतापूर्वक निभाई है ?
न्याय प्रणाली नागरिकों के अधिकारों की रक्षक होनी चाहिए । तथापि, क्या उसने वास्तव में यह भूमिका सफलतापूर्वक निभाई है ? इस बारे में सोचने का समय अब आ गया है ।
४. व्यक्तिगत कानूनों को अवैध ठहराने हेतु न्याय-प्रणाली झिझकती है !
संविधान लागू होने के उपरांत भी लागू व्यक्तिगत कानूनों को अवैध ठहराने हेतु न्याय तंत्र झिझक रही है । साइरा बानो परिणाम में (ट्रीपल तलाक) के बिल्कुल समीप तक पहुंचे नरीमन एकमात्र न्यायाधीश थे, जिन्होंने कहा था, ‘ये कानून संविधान के विरुद्ध है ।’
५. न्यायालय द्वारा मनुस्मृति पढने का परामर्श देना अनुचित !
गुजरात उच्च न्यायालय के एक खंडपीठ ने गर्भपात के संदर्भ के अभियोग में मनुस्मृति पढने का परामर्श दिया था । साथ ही कहा था कि ‘पूर्व में लडकी का विवाह १४-१५ वर्षों की आयु में होता था तथा १७ वर्षों की आयु से पहले वे बच्चों की माता बन जाती थीं ।’ इस संदर्भ का उल्लेख कर जयसिंह ने कहा कि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने वर्ष १९२७ में ही मनुस्मृति को अस्वीकार किया था । एवं जिस दिन उन्होंने मनुस्मृति जलाई वह दिन आज भी महिला मुक्ति दिन के रूप में मनाया जाता है । (कोई भी ग्रंथ जला देने से उसमें विद्यमान विचार नष्ट नहीं होते हैं, यह बात इस प्रकार के ‘विद्वानों’ को कौन बताए ? – संपादक)
६. यदि धर्मनिरपेक्षता नहीं होगी, तो भारत में गृहयुद्ध होने का संकट !
धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करना अर्थात ‘मुसलमान समुदाय का समाधान करना’ ऐसा नहीं है । इसके विपरित यह भारत की एकता एवं अखंडता हेतु आवश्यक है । यदि भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं रहता, तो यहां गृहयुद्ध एवं बाह्य आक्रमण होने के संकटों की संभावनाएं हैं । बहुसंख्यक विचारधारा को जोडने के लिए कानून का अर्थ लगाने से बहुधार्मिक देश में धर्मनिरपेक्षता संकट में आती है ।
सौजन्य : Live Law
संपादकीय भूमिकाप्रत्येक बात परिवर्तित की जा सकती है । वर्ष १९७५ में इंदिरा गांधी ने देश में ‘इमरजेंसी’ लागू कर संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष’ एवं ‘समाजवाद’ ये शब्द बलपूर्वक डाले । यदि वे एसा कर सकती हैं, तो यही शब्द संसद में बहुमत के बल पर लोकतंत्र (न की हुकूमशाही) मार्ग से हटाए भी जा सकते हैं एवं वहां ‘हिन्दू राष्ट्र’ शब्द अंतर्भूत किया जा सकता है । ऐसे अधिकार संविधान द्वारा ही दिए गए हैं । ऐसा होते हुए भी इस प्रकार का वक्तव्य करनेवाली ‘ज्येष्ठ अधिवक्ता’ हैं, ऐसा कहना अर्थात विनोद ही है ! |