
पुणे – संत साहित्य के प्रखर विद्वान एवं वारकरी संप्रदाय के वरिष्ठ कीर्तनकार ह.भ.प. गुरुवर्य डॉ. किसन महाराज साखरेजी (आयु ८६) का २० जनवरी को रात १०:३० बजे चिंचवड के एक निजी अस्पताल में निधन हो गया । उनका अंतिम संस्कार २१ जनवरी को आलंदी में हुआ । २ दिन पहले स्वास्थ्य बिगडने पर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था । उपचार होते समय उन्हें दिल का तीव्र दौरा पड़ा एवं उनकी प्राण ज्योत बुझ गई । उनके परिवार में बेटी यमुना कंकल और दो बेटे यशोधन साखरे और चिदंबरेश्वर साखरे हैं । डॉ. किसन महाराज साखरे का निधन वारकरी संप्रदाय के लिए बहुत बड़ी क्षति है । उन्होंने समाज को जो शिक्षाएं और संत साहित्य की विरासत दी, वह सदैव प्रेरणादायी रहेगी । वे सनातन संस्था के कार्य के लिए एक आशीर्वाद थे । वह सनातन संस्था द्वारा आयोजित ‘सर्व संप्रदाय सत्संग’ में भाग ले चुके थे ।
Eminent scholar of Saint literature Pujya Dr. Kisan Maharaj Sakhare ji renounces his body
We pay our humble obeisances at his holy feet 🙏🏻
The demise of Pujya Dr. Kisan Maharaj Sakhare ji is an irreparable loss to the Warkari Sampradaya. His invaluable teachings to society and… pic.twitter.com/laLXmWlmmK
— Sanatan Prabhat (@SanatanPrabhat) January 21, 2025
जीवन यात्रा और आध्यात्मिक योगदान !
डॉ. किसन महाराज साखरेजी का जन्म कृष्ण जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर वर्ष १९३८ में लातूर जिले के पान चिंचोली में हुआ था । उनके परिवार को संत साहित्य की विरासत मिली थी । उनके पिता और दादा ने संतों के साहित्य का अध्ययन किया और उसे आगे बढ़ाया । उन्होंने पुणे जिले के आलंदी स्थित साधकाश्रम में गुरु-शिष्य परंपरा को अपनाया और संत साहित्य, दर्शन और व्याकरण का गहन अध्ययन किया । प्रसिद्ध दार्शनिक एन.पी. मोडक के मार्गदर्शन में उन्होने अध्ययन किया । वर्ष १९६० में साधकश्रम का दायित्व उनके हाथों में आ गया । तब से, उन्होंने साधकश्रम में आने वाले कई छात्रों को निःस्वार्थ भाव से संत साहित्य और दर्शन की शिक्षा दी । उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में कीर्तन और उपदेश के माध्यम से आध्यात्म का प्रचार किया । उन्होंने सैकड़ों कीर्तन गायक और प्रचारक तैयार किए, जिन्होंने समाज में आध्यात्मिक ज्ञान का सृजन करने का कार्य जारी रखा।
वारकरी परम्परा का आधार स्तम्भ !
महाराजजी ने अपने उपदेशों के माध्यम से गीता, ज्ञानेश्वरी, भागवत और उपनिषदों के विचारों को ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों तक पहुंचाया । उन्होंने मूल्य-आधारित शिक्षा प्रणाली के लिए निःशुल्क बाल शिक्षा शिविर आरंभ किये । इससे हजारों छात्र अच्छे नागरिक बन सके । उन्होंने अपने जीवन के अंतिम क्षण वारकरी परंपरा को समृद्ध करने के लिए समर्पित कर दिए ।
साहित्य और सामाजिक कार्य
डॉ .साखरे महाराजजी ने कुल ११५ ग्रंथ लिखे । उनकी रचनाएं, जैसे सार्थ ज्ञानेश्वरी, सार्थ भगवद् गीता, सार्थ तुकाराम गाथा और सार्थ एकनाथी भागवत, वारकरी परंपरा के लिए अमूल्य योगदान बन गईं । उन्होंने व्यसन मुक्ति के लिए महान सामाजिक कार्य किया और अन्नछत्र, पुस्तकालय भक्तन निवास जैसी पहलों में सक्रिय रूप से योगदान दिया।
पुरस्कार और सम्मान
संत साहित्य के प्रचार-प्रसार में उनके योगदान के लिए उन्हें ज्ञानोबा-तुकाराम पुरस्कार (२०१८) और तिलक महाराष्ट्र विश्वविद्यालय से ‘डी. लिट’ की सर्वोच्च मानद उपाधि प्राप्त हुई । उनके कार्य ने महाराष्ट्र को एक नया आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य दिया ।
ह.भ.प. गुरुवर डॉ. किसन महाराज साखरेजी को ‘ज्योतिर्लिंग पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया !
प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक श्री क्षेत्र भीमाशंकर में ४ दिवसीय महारुद्र स्वाहाकार एवं अखंड हरिनाम सप्ताह कार्यक्रम वर्ष २०२४ में हर्षोल्लास के साथ आयोजित किया गया । इस अवसर पर उन्हें संस्थान द्वारा ‘ज्योतिर्लिंग पुरस्कार’ प्रदान किया गया।
सनातन संस्था और ह.भ.प. गुरुवर डॉ. किसन महाराज साखरेजीवे २४ फरवरी २००२ को पुणे में आयोजित ‘सर्व संप्रदाय सत्संग’ का मार्गदर्शन करने आये थे । वर्ष २०११ में उन्होंने दैनिक ‘सनातन प्रभात’ की तपस्या वर्षगांठ के अवसर पर संत संदेश दिया था। |
डॉ. सच्चिदानंद परब्रह्म जयंत आठवलेजी ने ह.भ.प. गुरुवर डॉ. किसन महाराज साखरेजी के बारे में लिखा !

भक्त को शिक्षा देने के लिए स्वयं के प्राण त्यागने की साखरे परिवार की परंपरा !
‘एक बार किसन महाराज साखरेजी के पिता ने अपने शिष्य को बार-बार बताया कि कुंडली से लिंगदेह को कैसे बाहर निकालते हैं और शरीर का कैसे त्याग किया जाता है, लेकिन शिष्य फिर भी इसे नहीं समझ पाया । वह इसके बारे में बार-बार प्रश्न पूछता । एक सुबह, जब वे दोनों नदी तट पर गए, तो उन्होंने वापस आकर अपने शिष्य को बताया कि ‘कुंडलिनी से लिंग को कैसे निकाला जाए और शरीर को कैसे त्यागा जाए’; लेकिन शिष्य के फिर भी ध्यान में नहीं आया । तब संत ने उससे पूछा, “क्या तुम देखना चाहते हो कि कुंडलिनी से लिंग को कैसे बाहर निकालते हैं और देह त्याग करते हैं ?” शिष्य ने कहा, “हां ।” फिर संत ने शिष्य से कहा कि वह अपने कंधे पर रखा कपड़ा जमीन पर रख दे और स्वयं उस पर बैठ गए । कुछ ही समय में उन्होंने कुण्डलिनी से लिंगदेह बाहर निकाला और देह त्याग दिया ।
(संदर्भ : परम पूज्य डॉ. आठवलेजी द्वारा सुखसागर, फोंडा स्थित आश्रम में दिया गया सत्संग ( १५.५.२००२ )
दिनांक: १ मार्च २००३
प्रति,
परम पूज्य श्री किसन महाराज साखरे जी को,
साष्टांग दंडवत
हम समझते हैं कि एक दु:खद घटना घटी है। तब से, पिछले तीन सप्ताह से, हम समय-समय पर सुनते आ रहे हैं कि आपका स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन बेहतर हो रहा है। ईश्वर की कृपा से एक बड़ा जीवन-संकट टल गया। आपका स्वास्थ्य तेजी से बेहतर होता रहे और आप पहले की तरह अपना काम कर पाएं तथा जल्द से जल्द अपना बहुमूल्य काम फिर से शुरू कर पाएं, यही हमारी ईश्वर से प्रार्थना है।
आपका
डॉ. जयंत बालाजी आठवले