१. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी के रथ में चढने पर ‘उन्होंने हमारी सेवा स्वीकार की’, ऐसा लगा
जिस क्षण परात्पर गुरु डॉक्टरजी रथ में चढे, वह क्षण रथसेवा में रत हम साधकों के लिए अविस्मरणीय था । मन का वह भाव मैं शब्दों में नहीं रख सकती; परंतु भगवान ने हमारी सेवा स्वीकार की, इससे आनंदित होकर मुझ से बहुत कृतज्ञता व्यक्त हो रही थी । ‘हमसे सेवा परिपूर्ण हुई’, ऐसा नहीं है; परंतु ‘करुणाकर भगवान ने हमारी सेवा स्वीकार की’, ऐसा प्रतीत हुआ
२. ‘सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी के रथ में बैठने पर वह रथ गुरुदेवजी के तत्त्व में समा गया है’, ऐसा लगना
‘परात्पर गुरु डॉक्टरजी जब रथ में बैठे, उस समय रथ का रहा-सहा अस्तित्व भी नष्ट हो गया । वहां केवल परात्पर गुरु डॉक्टरजी का ही तत्त्व है’, ऐसा मुझे प्रतीत हो रहा था । ‘रथदेवता सेवकभाव से गुरुदेवजी के तत्त्व में समा गए; इसलिए उनका अस्तित्व समाप्त हुआ है’, ऐसा मुझे प्रतीत हुआ ।
रथ से संबंधित सेवा करनेवाले हम सभी साधक कोटि-कोटि कृतज्ञ हैं !’
– श्रीमती जान्हवी रमेश शिंदे, फोंडा, गोवा.