नई देहली – भारत के संविधान में न्यायव्यवस्था की स्वतंत्रता के लिए अनेक संस्थागत प्रावधान किए गए हैं । उदाहरणार्थ न्यायमूर्तियों की निवृत्ति की निश्चित आयु, न्यायमूर्तियों की निवृत्ति के उपरांत उनके वेतन में परिवर्तन न करने का बंधन आदि । ऐसा भले ही हो, तब भी न्यायव्यवस्था की स्वतंत्रता अबाधित रखने के लिए ये संस्थागत प्रावधान अपर्याप्त हैं, ऐसा मत मुख्य न्यायमूर्ति धनंजय चंद्रचूड ने व्यक्त किया है । सर्वोच्च न्यायालय को ७५ वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में वे ऐसा बोल रहे थे ।
मुख्य न्यायमूर्ति धनंजय चंद्रचूड ने आगे कहा कि,
१. मुक्त न्यायव्यवस्था अर्थात ऐसी न्यायव्यवस्था कि जिस व्यवस्था में न्यायमूर्ति भी मानवीय पक्षपातों से मुक्त हों ।
२. पिछले कुछ समय में अनेक विवाद उत्पन्न हुए हैं । उनका स्वरूप बहुत अधिक क्लिष्ट है । इन विवादों का समाधान करना, वर्तमान स्थिति में कठिन हो रहा है; परंतु यह सब होते हुए भी सर्वोच्च न्यायालय संविधान सुरक्षा एवं कानूनन राज्य स्थायीभाव से बनाए रखने का अपना मूलभूत कर्तव्य कभी भी भूल नहीं सकता ।
३. निरंतर बढते जा रहे अभियोगों का निराकरण करने में प्रत्येक वर्ष सर्वोच्च न्यायालय को अडचनों का सामना करना पड रहा है । वर्तमान समय में केवल सर्वोच्च न्यायालय में ६५ सहस्र ९१५ अभियोग प्रलंबित हैं । इन बढते हुए अभियोगों का अर्थ है, ‘‘नागरिकों का न्यायव्यव्था पर विश्वास दृढ हो रहा है’’, ऐसा कहकर हम स्वयं को समझाते हैं; परंतु हमें इन कठिन सूत्रों का समाधान ढूंढना ही पडेगा । इन बढते हुए अभियोगों के संदर्भ में क्या कर सकते हैं ? निर्णय प्रक्रिया की ओर देखने के दृष्टिकोण में आमूलाग्र परिवर्तन होना आवश्यक है । ‘प्रत्येक अभियोग को न्याय मिलना ही चाहिए’, अपनी यह इच्छा के कारण क्या हमें न्यायालय अकार्यक्षम बनाने का संकट स्वीकार करना चाहिए ?