‘श्रीराम मूर्ति प्रतिष्ठान केपहले प्रसारमाध्यम ‘शंकराचार्याें ने किया प्राणप्रतिष्ठा कार्यक्रम का बहिष्कार !’, इस आशय के समाचार दिखा रहे थे। इन समाचारों को देखकर कुछ लोग सामाजिक माध्यमों पर (सोशली मीडिया पर) उतावलेपन से तथा शब्दों की मर्यादा का पालन किए बिना प्रतिक्रियाएं व्यक्त कर रहे हैं । इसे देखते हुए मैं कुछ सूत्र आपके सामने रखना चाहता हूं । यदि संभव हो, तो इन सूत्रों को शांत मन से पढकर समझ लें ।
१. ‘हम नहीं जा सकते’, इसका अर्थ बहिष्कार करना नहीं होता !
किसी ने भी श्री रामलला की प्राणप्रतिष्ठा समारोह का बहिष्कार नहीं किया है । ४ में से ३ पीठों के शंकराचार्याें ने बताया है कि ‘२२ जनवरी को आयोजित समारोह में हम उपस्थित नहीं रह पाएंगे ।’ इनमें से ज्योतिर्पीठ एवं बद्रीनाथ के जगद्गुरु शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वतीजी ने उन्हें इस समारोह का निमंत्रण ही न मिलने की बात कही है । ‘शृंगेरी के आचार्यजी जाएंगे अथवा नहीं’, इस विषय में स्पष्टता से कुछ कहा हो, ऐसा मेरे पढने में नहीं आया है । ‘हम नहीं जा सकते’, इसका अर्थ बहिष्कार करना नहीं होता । सभी आचार्याें ने इस कार्यक्रम के लिए उनके मंगल आशीर्वाद होने तथा इस समारोह के विषय में किसी भी प्रकार की अप्रसन्नता न होने का स्पष्ट किया है ।
२. माध्यमों की ओर से रची जा रही हैं कपोलकल्पित कथाएं
धार्मिक विषयों में इन पीठों के सर्वोच्च होने से उनके कुछ विशिष्ट ‘प्रोटोकॉल’ (नियम) हैं, जिनकी पूर्तता होना संभव न होने से वे इस कार्यक्रम में नहीं जा सकते । स्वयं की ओर से किसी प्रकार का विवाद उपस्थित न कर कार्यक्रम से दूर रहने का उनका यह निर्णय वास्तव में स्वागतयोग्य ही है; परंतु माध्यमों ने इसमें मसाला नहीं खोजा, तो आश्चर्य होगा ! इसके चलते बहिष्कार की कथाएं चलाई जाने लगी, जो किया नहीं गया है !
३. श्रीराम मंदिर के विषय में शंकराचार्याें का योगदान
कुछ अतिउत्साहित लोग ‘श्रीराम मंदिर के विषय में इन शंकराचार्याें का क्या योगदान है ?’, यह प्रश्न पूछ रहे हैं । उन्होंने स्वयं इस विषय में पहले कुछ अध्ययन किया होता, तो वे यह प्रश्न उठाते ही नहीं ! पुरी के पीठाधीश ने इसमें योगदान दिया है । द्वारका एवं बद्रीनाथ, इन दोनों पीठों के संयुक्त जगद्गुरुपद का निर्वहन किए हुए ब्रह्मीभूत स्वरूपानंद सरस्वती महाराज ने श्रीराम जन्मभूमि के विषय में पदयात्रा से लेकर कारावास तथा संतों के एकत्रीकरण से लेकर न्यायालयीन लडाई; यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । राजनीतिक मतभेद होने के कारण वे विश्व हिन्दू परिषद के इसमें सम्मिलित होने के पक्ष में नहीं थे; परंतु इससे उनके योगदान को न्यून (कम) आंका नहीं जा सकता ।
४. शंकराचार्याें के हिन्दुत्व में योगदान के विषय में प्रश्न उठाना कितना उचित ?
‘इन शंकराचार्यों का हिन्दुत्व के कार्य में क्या योगदान है ?’, यह प्रश्न पूछनेवाले कितने महानुभावों ने प्रश्न पूछने से पूर्व इस विषय में क्या जानकारी ली ? चारों पीठों के शंकराचार्य ‘गोरक्षण से लेकर अखंड भ्रमण कर जनसंपर्क’ का धर्मकार्य करते रहते हैं । उनके जालस्थल पर आपको इसकी जानकारी मिलेगी । दूसरी बात यह कि आप यह प्रश्न उठा रहे थे; परंतु आपने स्वयं ऐसा क्या कार्य कर रहे हैं, जिसके आधार पर आप यह प्रश्न उठा सकेंगे । इसका हम प्रामाणिकता से आत्मपरीक्षण करेंगे ।
५. विसंवाद दूर करना महत्त्वपूर्ण
घर के २ वरिष्ठ लोगों में कुछ विसंवाद होने पर हम उसे दूर करने का प्रयास करते हैं अथवा वैसा करना संभव न हो, तो क्या हम मौन रहते हैं अथवा गांव के चौक पर जाकर उसका ढिंढोरा पीटकर उन्हें अनापशनाप कुछ बोलते हैं ? प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्तर पर इसका उत्तर खोजना है । एक ओर कोई विधायक रामायण के संदर्भाें का विकृतिकरण करता है तथा तब ‘हम इसकी ओर ध्यान नहीं देंगे’, यह भूमिका लेनेवाले हम हमारे ही धर्म के सर्वोच्च पदों पर विराजमान व्यक्तित्वों की आलोचना करते समय इतनी मर्यादाहीन भाषा का उपयोग करने लगे थे? मुझे तो इसमें कोई मेल दिखाई नहीं पडता ।
६. संयमहीन भाषा में लेखन करने की अपेक्षा रामनाम लेना आवश्यक !
क्या हमें प्रत्येक बात पर व्यक्त होना ही चाहिए ? ५०० वर्ष के संघर्ष के उपरांत अयोध्या में भव्य मंदिर बन रहा है । हम इसका निर्मल आनंद मनाएंगे ! सर्वोच्च धार्मिक पदों पर विराजमान व्यक्ति क्या बोलते हैं, इस पर टिकाटिप्पणी करने की अपेक्षा यही समय हम व्यक्तिगत उपासना में लगाएंगे ! यहां अनरगल (संयमहीन) भाषा में कुछ लिखने की अपेक्षा हम वही समय श्रीराम का नाम लेने में व्यतित करेंगे । ‘जब भी प्रसारमाध्यम जानबूझकर कोई वातावरण बनाते हैं, तो क्या हमें प्रत्येक बार उनके झांसे में आना चाहिए, ऐसा कोई नियम तो नहीं है न ? हमारे प्रधानमंत्री यम-नियमों का पालन करते हुए अगले ११ दिन अनुष्ठान में व्यतीत किया । हम उनके समर्थक, प्रशंसक एवं हिन्दुत्वनिष्ठ के रूप में तो उनका आदर्श सामने रखेंगे । अच्छा लगा, तो आज, अभी, तत्काल इस विषय पर व्यक्त होना रोकेंगे । व्यक्त होने की यदि बहुत ही अनिवार इच्छा हुई, तो उस समय श्रीराम नाम की एक मालाजपेंगे ! यह अति आवश्यक होने से मैं इस विषय पर व्यक्त हुआ; परंतु तब भी यह लेखन करने के प्रायश्चित के रूप में मैं एक माला अधिक जपूंगा । आपको भी यह कैसा लगा !
– वैद्य परीक्षित शेवडे, आयुर्वेद वाचस्पति, डोंबिवली, महाराष्ट्र.