‘ज्योतिषशास्त्र, कालज्ञान का शास्त्र है । ‘कालमापन’ एवं ‘कालवर्णन’, उसके २ अंग हैं । कालमापन के अंतर्गत काल नापने के लिए आवश्यक घटक एवं गणित की जानकारी होती है । कालवर्णन के अंतर्गत काल का स्वरूप जानने के लिए आवश्यक घटकों की जानकारी होती है । कालवर्णन के दृष्टिकोण से ज्योतिषशास्त्र की व्यक्तिगत एवं सामाजिक स्तर पर उपयुक्तता इस लेख द्वारा समझ लेंगे ।
१. व्यक्तिगत स्तर
१ अ. व्यक्ति को जन्मजात प्राप्त अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थिति ध्यान में आना : प्रत्येक व्यक्ति अपना प्रारब्ध साथ लेकर जन्म लेता है । विश्व का प्रत्येक व्यक्ति अन्यों से भिन्न है और इसका कारण है उसका अपना प्रारब्ध ! कुछ व्यक्तियों का जीवन बचपन से ही सुखपूर्वक व्यतीत होता है; उन्हें सभी साधन-सुविधाओं का लाभ होता है, तो कुछ का जीवन कष्टमय एवं दुःखमय होता है । सुखी व्यक्ति के पास सभी सुख होते हैं, ऐसा भी नहीं । कुछ को विवाहसुख होता है; परंतु संतानसुख नहीं । कुछ को संतानसुख होता है; परंतु आर्थिक परिस्थिति दयनीय होती है । कुछ की आर्थिक परिस्थिति अच्छी होती है; परंतु स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता इत्यादि । जन्मकुंडली से ‘व्यक्ति के जीवन में कौनसी बातें अनुकूल और कौन-सी प्रतिकूल’, इसका ज्ञान होता है । इसलिए जीवन में जिन बातों की अनुकूलता नहीं है, उसके विषय में शोक न कर जिन बातों की अनुकूलता है, उनकी ओर ध्यान देकर उनका सदुपयोग करने की सकारात्मक दृष्टि ज्योतिषशास्त्र के कारण मिलती है ।
१ आ. व्यक्ति की प्रकृति के लिए अनुकूल कार्यक्षेत्र के संदर्भ में मार्गदर्शन करना संभव : प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति भिन्न है । स्थूल रूप से व्यक्तित्व ३ प्रकार के होते हैं ।
१ आ १. चर स्वभाव : कुछ व्यक्ति जन्म से ही गतिशील, कार्यतत्पर, महत्त्वाकांक्षी, साहसी, नेतृत्व लेनेवाले एवं शारीरिक बलवाले होते हैं । इसे ज्योतिषशास्त्र में ‘चर स्वभाव’ कहते हैं ।
१ आ २. स्थिर स्वभाव : कुछ व्यक्ति एक स्थान पर स्थिर रहनेवाले, उच्चपद प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील, अधिकारीवृत्तिवाले, व्यवहार बुद्धि प्राप्त एवं सुखवस्तु होते हैं । इसे ‘स्थिर स्वभाव’ कहते हैं ।
१ आ ३. द्विस्वभाव : कुछ व्यक्ति कभी गतिशील तो कभी स्थिर, तर्कशक्ति से युक्त, विषय की गहराई में जानेवाले, ज्ञानप्राप्ति के लिए प्रयत्नशील, बौद्धिक बल से युक्त एवं विरक्त होते हैं । इसे ‘द्विस्वभाव’ कहते हैं ।
व्यक्ति की जन्मकुंडली से उसकी प्रकृति की कल्पना भली-भांति ध्यान में आ जाती है । व्यक्ति की प्रकृति का उसके शिक्षा क्षेत्र से एवं कार्यक्षेत्र से संबंध होता है । चर स्वभाव के व्यक्ति वैद्यकीय, अभियांत्रिकी, सुरक्षातंत्र, उत्पादन, राजनीति, प्रसारमाध्यम, क्रीडा इत्यादि क्षेत्रों में अग्रणी होते हैं । स्थिर स्वभाव के व्यक्ति प्रशासन, व्यवस्थापन, व्यापार, वित्त, लेखापाल, वाणिज्य, कला इत्यादि क्षेत्रों में आगे होते हैं । द्विस्वभाव के व्यक्ति शोधकार्य, तत्त्वज्ञान, विद्या, शिक्षासंस्था, न्यायप्रणाली, समुपदेशन, समन्वय इत्यादि क्षेत्रों में प्रवीण होते हैं । जन्मकुंडली से व्यक्ति को उसकी प्रकृति के लिए अनुकूल शिक्षा एवं कार्यक्षेत्र के संदर्भ में मार्गदर्शन कर सकते हैं ।
१ इ. व्यक्ति के जीवन का अनुकूल एवं प्रतिकूल काल समझ में आना : काल परिवर्तनशील है; इसलिए परिस्थिति भी परिवर्तनशील है । कोई भी अच्छी अथवा बुरी परिस्थिति सदैव नहीं टिकती । उसी प्रकार जन्मकुंडली में विद्यमान शुभ अथवा अशुभ ग्रहयोगों का फल जीवन भर एक समान नहीं मिलता । वे फल विशिष्ट अवधि में प्रकर्षता से मिलते हैं । ज्योतिषशास्त्र में कालनिर्णय की विविध पद्धतियां हैं । इन पद्धतियों से हमें यह बोध होता है कि अपने जीवन का विशिष्ट काल कौनसी बातों के लिए अनुकूल अथवा प्रतिकूल होगा ।
१ ई. जन्मकुंडली से व्यक्ति की समस्याओं का आध्यात्मिक कारण ज्ञात होना : जीवन की किसी भी समस्या के शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक कारण होते हैं । समस्याओं के शारीरिक एवं मानसिक कारण बुद्धि को समझ में आते हैं और उस पर समाधानयोजना व्यवहार में उपलब्ध होती हैं । समस्याओं के आध्यात्मिक कारण मात्र बुद्धि द्वारा समझ में नहीं आते, उदा. अतृप्त पूर्वजों का कष्ट, सूक्ष्म की अनिष्ट शक्तियों का कष्ट, प्रारब्ध आदि के कारण होनेवाली विविध समस्याएं ! ऐसी समस्याओं पर शारीरिक एवं मानसिक स्तरों पर समाधानयोजना करने में मर्यादा आती है । ऐसी समस्याओं के लिए देवताओं का नामजप करना, धार्मिक विधि करना, तीर्थक्षेत्र जाना, संतसेवा करना, प्रायश्चित लेना इत्यादि आध्यात्मिक स्तर पर उपचार लागू पडते हैं । जन्मकुंडली से व्यक्ति की समस्या के पीछे के आध्यात्मिक कारण ध्यान में आते हैं और उससे संबंधित आध्यात्मिक उपचार करने के विषय में उसका मार्गदर्शन करना संभव होता है ।
१ उ. समस्याओं के निवारण के लिए नवग्रहों की उपासना बताना
‘दैवी उपासना’ यह हिन्दू धर्म की विशेषता है । उपासना के माध्यम से व्यक्ति को आवश्यक सूक्ष्म ऊर्जा प्राप्त होती है । ज्योतिषशास्त्र में ग्रहदेवताओं की उपासना को महत्त्व है । जिस ग्रह से संबंधित सूक्ष्म ऊर्जा व्यक्ति में अल्प है, उस ग्रह से संबंधित उपासना करने के लिए बताया जाता है । ग्रह से संबंधित रत्न धारण करना, मंत्रजप करना, यज्ञ करना, नामजप करना इत्यादि ग्रह-उपासना के प्रकार हैं । जीवन की अधिकतर समस्याओं के पीछे आध्यात्मिक कारण होते हैं; इसलिए व्यावहारिक प्रयत्नों को दैवी उपासना की जोड देना आवश्यक होता है ।
२. सामाजिक स्तर
२ अ. शुभाशुभ दिनों का ज्ञान होना : ‘काल का प्रभाव पहचानना’ इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ज्योतिषशास्त्र की निर्मिति हुई । ज्योतिषशास्त्र के कारण शुभाशुभ दिनों का ज्ञान होता है । भारत में वैदिक काल से महत्त्वपूर्ण कार्य एवं धार्मिक संस्कार शुभ मुहूर्तों पर करने की परंपरा है । इसके पीछे दृष्टिकोण यह है कि कालानुरूप किए गए कार्य में सफलता मिलती है ।
२ आ. काल के स्वरूप का ज्ञान होना : सृष्टि की सभी क्रियाएं काल के आश्रय से होती हैं । काल स्वयं कर्म नहीं करता; परंतु वह सृष्टि का आश्रय होने से उसे सत्त्व, रज एवं तम, इन गुणों की उपाधि लगाई जाती है । जब काल सात्त्विक होता है तब उत्पत्ति, नवनिर्मिति, विधायक कार्य, ज्ञानवृद्धि एवं धर्मसंस्थापना होकर समाज का लौकिक एवं आध्यात्मिक उत्कर्ष होता है । काल के तामसिक होने पर विनाश, अज्ञान, षड्रिपु, भोगवाद एवं आसुरीवृत्ति प्रबल होती है । भारतीय ज्योतिषशास्त्र में युगपद्धति द्वारा काल के स्वरूप का ज्ञान भली-भांति होता है ।
२ इ. समाज का प्रारब्ध समझ में आना : एक शरीर में एक आत्मा निवास करती है, तो एक राष्ट्र में अनेक व्यक्ति अर्थात अनेक आत्माएं निवास करती हैं । एक व्यक्ति द्वारा किए गए अच्छे-बुरे कर्मों का फल उस व्यक्ति को भोगना पडता है; इसे हम ‘व्यष्टि प्रारब्ध’ कहते हैं । उसी प्रकार एक राष्ट्र के लोगों के एकत्रित कर्मों के फल उस राष्ट्र को भोगने पडते हैं । इसे ‘समष्टि प्रारब्ध’ कहते हैं । व्यक्ति के समान राष्ट्र की भी कुंडली होती है । ज्योतिषशास्त्र की ‘मेदिनीय’ शाखा में ग्रहों की स्थिति का राष्ट्र पर होनेवाले परिणाम का अध्ययन किया जाता है । गुरु, शनि, हर्षल इत्यादि बडे ग्रहों में महत्त्वपूर्ण योग होने पर बडी स्थित्यंतर (अर्थात एक स्थिति से दूसरी स्थिति में जाना) देखने के लिए मिलते हैं । मेदिनीय ज्योतिषशास्त्र से राष्ट्र एवं विश्व के संदर्भ में आगामी काल का स्वरूप कैसा होगा, इसकी टोह ले सकते हैं ।’
– श्री. राज कर्वे, ज्योतिष विशारद, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (१३.२.२०२३)