‘सप्तर्षियों ने जीवनाडीपट्टिका में बताया, ‘जब श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा नीलेश सिंगबाळजी परात्पर गुरु डॉक्टरजी से साधकों की साधना के विषय में बात करती हैं, उस समय गुरुदेवजी कभी-कभी हाथ हिलाकर अथवा मुख पर निहित भाव से उन्हें उत्तर देते हैं ।’ ‘उनकी किस बात को सम्मति है ? तथा कौनसी बात अस्वीकार है ?’, यह श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळजी को ही ज्ञात हो पाता है ।’ १३.७.२०२२ के दैनिक ‘सनातन प्रभात’में प्रकाशित इन सूत्रों को पढने के कुछ दिन उपरांत मैंने अपनी पत्नी श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळजी से इस विषय में बात की । उस समय उन्होेंने भावपूर्ण पद्धति से मुझे निम्न सूत्र बताए –
श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळजी द्वारा कथन किए गए सूत्र !
१. शब्दातीत संवाद से ‘सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी को क्या अपेक्षित है ?’, यह समझकर उस प्रकार कृति करना ‘‘सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी कभी मेरी ओर देखते हैं, कभी हावभाव करते हैं, तो कभी हाथ से बताते हैं । उस समय वह संवाद शब्दातीत संवाद होता है । उस समय उनकी कृपा से ही समझ में आता है कि ‘उन्हें क्या बताना है ?’ कभी उन्होंने कोई प्रश्न किया, तो ‘उन्हें उसके आगे की कौनसी कृति अपेक्षित है ?’, यह मुझे अंदर से समझ में आता है तथा उसके अनुसार उस प्रकार से कृति होती है ।
२. ‘वे सूक्ष्म से निरंतर मार्गदर्शन करते हैं’, इसकी अनुभूति लेनेवालीं श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळजी !
एक बार साधकों को समझ में नहीं आ रहा था कि सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी क्या बता रहे हैं ?; परंतु मुझे समझ में आ रहा था । मैंने उन साधकों को बताया कि ‘उन्हें क्या करना चाहिए ?’ यह सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी की मुझ पर कृपा ही है कि मुझे क्या करना उन्हें अपेक्षित है ?, यह समझ में आ जाता है । जब मैं कभी परात्पर गुरु डॉक्टरजी से कोई शंका पूछने जाती हूं, तो ‘मुझे वहां से कब बाहर निकलना है ?’, यह भी वे ही मुझे अंदर से सुझाते हैं । परात्पर गुरु डॉक्टरजी के स्थूल सान्निध्य में न होते हुए भी, अर्थात जब मैं किसी भिन्न स्थान पर होती हूं, तब भी ‘गुरुदेवजी को क्या अपेक्षित है ? कहां क्या बताना चाहिए ?’, यह भी वे ही मुझे सुझाते हैं ।
३. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी की दृष्टि पडने पर शारीरिक कष्ट घट जाना
अनेक बार मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने केवल मेरी ओर देखा, तब भी मेरे शारीरिक कष्ट घट जाते हैं । एक बार मेरे दाहिने पैर में सूजन आई थी । उस समय मुझ पर परात्पर गुरु डॉक्टरजी की दृष्टि पडी तथा उसके कुछ समय उपरांत मुझे मेरे दोनों पैर एक समान ही दिखाई देने लगे । मेरे प्रारब्ध में लिखे बहुत से कष्ट भगवान ने घटा दिए हैं । ‘यही सच्चा सुख है’, ऐसा मुझे लगता है । यह परात्पर गुरु डॉक्टरजी की मुझ पर कृपा है अर्थात श्रीविष्णुलीला ही है ।
४. ‘आश्रम में स्थित प.पू. भक्तराज महाराजजी का स्थान, साथ ही देवताओं के चैतन्यमय चित्र से सीखनेवालीं श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळजी !
मैं जिस कक्ष में सेवा करती हूं, उसके एक ओर श्री सिद्धिविनायक की मूर्ति है । वे सिद्धिविनायक ही मुझे बुद्धि प्रदान करते हैं । आश्रम में श्री भवानीदेवी का निर्गुण रूप है । मुझे लगता है कि आश्रम में स्थित ‘प.पू. भक्तराज महाराजजी का स्थान, श्रीकृष्ण का चित्र, श्रीकृष्णार्जुन का रथ, मेरी सेवा के कक्ष में स्थित देवताओं के चित्र एवं मूर्तियां, साथ ही अन्य देवताओं की स्थापना; यह सबकुछ मेरे ही लिए हुआ है ।’ यह सब चैतन्यमय है तथा यह चैतन्य ही मुझे निरंतर सिखाता रहता है । श्री सिद्धिविनायक तो सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी के प्राण हैं ।
५. परात्पर गुरु डॉक्टरजी को अपेक्षित कृति करने की अखंड उत्कंठा रहना
सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी भगवान के प्रति भाव रखनेवालों को सदैव अंतर से मार्गदर्शन करते हैं । जब मैं आरंभ में सेवा करने लगी, उस समय मुझे उसके संदर्भ में कुछ भी ज्ञात नहीं था । तब मुझसे अनेक चूकें होती थीं । उस कालावधि में सेवा करनेवाले साधकों की संख्या भी अल्प थी । उस समय ‘परात्पर गुरु डॉक्टरजी को क्या अपेक्षित है’, इस एक ही विचार को मन में रखकर मैं प्रयास करने लगी तथा इसी विचार ने मुझे तैयार किया ।’’
– (सद्गुरु) श्री. नीलेश सिंगबाळ (श्रीसत्शक्ति [श्रीमती] बिंदा सिंगबाळजी के पति), धर्मप्रचारक, हिन्दू जनजागृति समिति (१८.९.२०२२)