सनातन धर्म शाश्वत कर्तव्यों का समुच्चय है, इसलिए इसे नष्ट करने का अर्थ कर्तव्यों को नष्ट करना है !

मद्रास उच्च न्यायालय का वक्तव्य !

चेन्नई (तमिलनाडु) – सनातन धर्म शाश्वत कर्तव्यों का समूह है । इसमें देश, राजा, माता, पिता एवं गुरु के प्रति कर्तव्य के साथ-साथ निर्धन सेवा सहित अन्य कर्तव्य भी समाहित हैं । अत: सनातन धर्म का विनाश करना अर्थात कर्तव्यों का विनाश, मद्रास उच्च न्यायालय ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए ऐसा विचार व्यक्त किया है । राज्य के तिरुवरूर जिले में ‘गवर्नमेंट आर्ट्स कॉलेज’ के प्रधानाध्यापक की ओर से एक परिपत्रक निकाला गया । उसमें छात्रों को तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एवं डी.एम.के. पक्ष के संस्थापक अन्नादुरई की जयंती पर ‘सनातन का विरोध’ विषय पर अपने विचार प्रस्तुत करने को कहा गया था । इसके विरुद्ध एलांगोवन नाम के एक सनातन धर्मावलंबी ने उच्च न्यायालय में याचिका प्रविष्ट की । परिपत्रक का विरोध आरंभ हुआ तो प्राचार्य ने उसे वापस ले लिया, जिसके फलस्वरूप न्यायालय ने याचिका निरस्त कर दी; किंतु उसे सुनते हुए उन्होंने उपरोक्त मत व्यक्त किया ।

उच्च न्यायालय ने आगे कहा,

१. सनातन धर्म किसी एक ग्रंथ में सीमित नहीं है क्योंकि इसके अनेक स्रोत हैं ।

२. सनातन धर्म में अनेक कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है । यदि महाविद्यालय द्वारा निकाले गए परिपत्रक पर विचार किया गया, तो उसका अर्थ सभी कर्तव्यों को समाप्त करना होगा ।

३. क्या एक नागरिक को अपने देश से प्रेम नहीं है ? क्या देश की सेवा करना उसका कर्तव्य नहीं है ? न्यायालय ने पूछा, क्या हमें अपने माता-पिता की सेवा नहीं करनी चाहिए ?

४. अस्पृश्यता को सहन नहीं किया जा सकता । यद्यपि इसे सनातन धर्म के सिद्धांतों में कहीं न कहीं अनुमति दी गई प्रतीत होती है, तथापि अस्पृश्यता को स्थान नहीं दिया जा सकता । (सनातन धर्म में अस्पृश्यता का कोई स्थान नहीं है । अस्पृश्यता गत कुछ शताब्दियों में प्रसारित की गई है । इसका समर्थन नहीं किया जा सकता ! – संपादक) संविधान के अनुच्छेद १७ में अस्पृश्यता उन्मूलन का उल्लेख है, किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि वह संवैधानिक है ।