श्राद्ध किसे करना चाहिए ?

माता-पिता तथा अन्य निकटवर्ती संबंधियों की मृत्यु के उपरांत, उनकी आगे की यात्रा सुखमय एवं क्लेशरहित हो तथा उन्हें सद्गति प्राप्त हो, इसलिए ‘श्राद्ध’ करना आवश्यक है । पितृपक्ष के निमित्त इस लेख में श्राद्ध का महत्त्व एवं लाभ तथा ‘श्राद्ध किसे करना चाहिए ?’ यह समझ लेते हैं ।

१. स्वयं करना महत्त्वपूर्ण

‘श्राद्धविधि स्वयं करनी चाहिए । स्वयं नहीं कर पाते, इसलिए ब्राह्मण द्वारा करवाते हैं । वर्तमान में श्राद्ध करनेवाले ब्राह्मण मिलना भी कठिन हो गया है । इस पर उपायस्वरूप श्राद्ध-संकल्पविधि की पोथी लेकर प्रत्येक व्यक्ति श्राद्ध-संकल्पविधि का पाठ करे । यह पाठ संस्कृत में होता है । हम अन्य भाषा सीखते हैं, फिर संस्कृत तो देवभाषा है तथा सीखने में भी सरल है ।
(उक्त सूत्र सैद्धांतिक रूप से उचित है, फिर भी संस्कृत भाषा का कठिन उच्चारण, धर्मशास्त्र में बताई गई विधि का यथोचित आकलन करने में आनेवाली बाधा इत्यादि को देखते हुए आवश्यक नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए विधिवत श्राद्ध स्वयं करना सम्भव हो । ऐसे में ब्राह्मण से एवं ब्राह्मण न मिलें तो किसी जानकार से श्राद्धविधि करवाने में कोई आपत्ति नहीं है । ध्यान रखें कि श्राद्धविधि होना अधिक आवश्यक है । – संकलनकर्ता)

२. पितरों की श्राद्धपक्षादि विधि (कर्मकाण्ड) पुत्र द्वारा करना आवश्यक

पूर्वजों के स्पन्दन एवं उनके सबसे समीप के उत्तराधिकारी के स्पन्दन अत्यन्त समान होते हैं । जब किसी सूक्ष्म-देह को वेदना होती है, तब उस कष्ट के स्पन्दन, उसके सबसे समीप के उत्तराधिकारी को भी अनुभव होते हैं । इसीलिए श्राद्धपक्षादि पितरों के लिए किए जानेवाले कर्म पुत्र को करने पडते हैं । पुत्र एवं पिता के स्पन्दन तथा पितरों के स्पन्दन एक समान होने के कारण श्राद्धतर्पण के समय पुत्र द्वारा दिया गया तर्पण ग्रहण करना पितरों के लिए सरल होता है ।

२ अ. पहले तथा अन्तिम पुत्रों को श्राद्ध करने का अधिकार एवं मंझले पुत्र को न होने का क्या कारण है ? : ‘जब प्रथम पुत्र का गर्भधारण होता है, तब जीव की तीव्र इच्छाशक्ति कार्यरत रहती है । इसलिए इस पुत्र के माध्यम से की गई विधियां तीव्र इच्छाबीज में निहित शक्ति के बल पर पूर्वजों की वासना तृप्त कर उन्हें सन्तुष्ट करती हैं । अन्तिम पुत्र वंश समाप्त होने का प्रतीक होने के कारण उससे भी पूर्वजों की अपेक्षाएं तीव्र होती हैं, इसलिए उसके द्वारा किए गए कर्म भी, पूर्वजों की इच्छा की तीव्रता की मात्रानुसार कार्य करते हैं । मंझले पुत्र का प्रथम एवं अन्तिम पुत्र की तुलना में गौण स्थान होने के कारण, अर्थात इस पुत्र से पूर्वजों की अपेक्षाएं अल्प मात्रा में होने के कारण उससे विधि करवाने से फलप्राप्ति अल्प मात्रा में होती है; इसलिए केवल प्रथम एवं अन्तिम पुत्र को ही हिन्दू धर्म ने श्राद्धविधि करने का अधिकार दिया है ।

२ आ. ससुर एवं पति के जीवित रहते स्त्री की मृत्यु होने पर उसका अन्तिम संस्कार एवं श्राद्ध पति को क्यों करना चाहिए ? : विवाहित स्त्री की मृत्यु होने पर, पति को ही अन्तिम संस्कार एवं श्राद्ध करने का प्रथम अधिकार है; क्योंकि पत्नी का पति के साथ सबसे गहरा संबंध होता है, अतः पति से उसकी अपेक्षाएं भी अधिक होती हैं । इस कारण किसी अन्य की अपेक्षा पति द्वारा की गई विधि से पत्नी के लिंगदेह को गति प्राप्त होने की सम्भावना अधिक होती है ।

२ इ. विधवा स्त्री की मृत्यु के पश्चात उसका श्राद्ध उसके पुत्र को क्यों करना चाहिए ? : विधवा स्त्री की मृत्यु के उपरान्त उसका अंतिम संस्कार एवं श्राद्ध करने का अधिकार उसके पुत्र को है; क्योंकि स्त्री का किसी अन्य की अपेक्षा प्रथम पति से एवं उसके उपरान्त स्वयं के पुत्र से सम्बन्ध सर्वाधिक होता है । अतः उचित घटकों के माध्यम से की जानेवाली श्राद्धविधि से फलप्राप्ति भी अधिक होती है ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळजी एक विद्वान के नाम से भी लेखन करती हैं ।)

३. श्राद्धविधि अमुक व्यक्ति नहीं कर सकता, इसलिए नहीं कर पाए, ऐसा कहने का अवसर हिन्दू धर्म नहीं देता !

‘पुत्र (जिसका उपनयन नहीं हुआ है वह भी), कन्या, पौत्र, प्रपौत्र, पत्नी, सम्पत्ति में भागीदार कन्या का पुत्र, सगा भाई, भतीजा, चचेरे भाई का पुत्र, पिता, माता, बहू, बडी तथा छोटी बहन के पुत्र, मामा, सपिण्ड (सात पीढियों तक के कुल का कोई भी), समानोदक (सात पीढियों के पश्चात गोत्र का कोई भी), शिष्य, उपाध्याय, मित्र, जमाई (दामाद) इस क्रम से पहला न होने पर दूसरे को श्राद्ध करना चाहिए ।

संयुक्त परिवार में वयोवृद्ध पालनकर्ता पुरुष (परिवार में आयु में बडा अथवा सभी के पालन-पोषण का दायित्व निभानेवाला व्यक्ति) श्राद्ध करे । विभक्त परिवार में प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्र रूप से श्राद्ध करना चाहिए ।’

हिन्दू धर्म ने ऐसी पद्धति बनाई है कि प्रत्येक मृत व्यक्ति के लिए श्राद्ध सम्भव हो एवं उसे सद्गति प्राप्त हो । धर्मसिंधु नामक ग्रन्थ में लिखा है, ‘किसी मृत व्यक्ति का कोई परिजन न हो, तो उसका श्राद्ध करने का कर्तव्य राजा का है ।

(इससे यह विदित होता है कि श्राद्धविधि अमुक व्यक्ति नहीं कर सकता, इसलिए नहीं की गई, ऐसा कहने का अवसर हिन्दू धर्म नहीं देता ! यही एकमात्र धर्म है, जो प्रत्येक व्यक्ति का उसकी मृत्यु के उपरान्त भी ध्यान रखता है ! – संकलनकर्ता) 

(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘श्राद्धका महत्त्व एवं अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन’)