सभागार अथवा हंगामागार ?

कुछ प्रकरण पर हंगामा मचाकर ‘आगे का कामकाज नहीं होने देना’, ऐसा विरोधियों ने अलिखित नियम ही बना लिया है

संसद का वर्षाकालीन सत्र चल रहा है तथा महाराष्ट्र राज्य का विधान मंडल का सत्र ४ अगस्त को समाप्त हुआ है । वर्तमान समय में जब अधिवेशन आयोजित किया जाता है, तो अराजकता, हंगामा, चीख-पुकार, कागद फेंकना आंखों के सामने कुछ ऐसे ही चित्र आ जाते हैं । सभागार बंद कराने के लिए विरोधी पक्ष कुछ न कुछ कारण ढूंढते ही रहते हैं । सत्र के पूर्व के कुछ दिनों में हुए कुछ बडे प्रकरण अथवा उस समय हो रहे प्रकरण पर हंगामा मचाकर ‘आगे का कामकाज नहीं होने देना’, विरोधियों ने ऐसा अलिखित नियम ही बना लिया है ।अधिवेशन आरंभ होने के पूर्व ही ‘शासन को किन सूत्रों पर घेरना है ?’, यह वे पहले ही निश्चित कर लेते हैं तथा वे ऐसा करते भी हैं । इसलिए यह अधिवेशन ‘सरकार को दुविधा में डालने के लिए है अथवा जनता की समस्याओं का समाधान करने के लिए ?’, यह प्रश्न उठता है । अपने इस कृत्य से ‘हम सभागार का अमूल्य समय व्यर्थ कर रहे हैं’, खेद की बात है कि जन प्रतिनिधियों को इससे थोडी भी लज्जा नहीं आती ! इस अधिवेशन के लिए जनता के कर से आए करोडों रुपए व्यय किए जाते हैं । उसका प्रत्येक क्षण जनता एवं देश की समस्याएं तथा प्रश्न सुलझाने में लगाना आवश्यक है । इस सभागार में सैकडाें प्रश्न, सूत्र तथा रोचक सुझाव चर्चा के लिए प्रलंबित रहते हैं । समय के अभाव में वे वैसे ही रह जाते हैं । यह सभागृह जनता के असंख्य विषयाें पर पहुंच ही नहीं पाता । ऐसे में केवल एक ही विषय को लेकर कामकाज न होने देना, यह कौन सा देशप्रेम है? इससे सिद्ध होता है कि जिन्होंने इन जन प्रतिनिधियों को चुना, उन मतदाताओं की समस्याओं पर इन्हें सामाजिक दायित्व का थोडा भी भान नहीं होता, अन्यथा वे इन समस्याओं पर ठोस सूत्र, सर्वांगीण विकास तथा समाधानों पर बल देते ।
इसलिए, ऐसा लगता है कि संसद अथवा विधान सभा के सभागृह सार्वजनिक प्रयोजनों के सभागृह की अपेक्षा राजनीतिक क्षेत्र बन गए हैं; क्योंकि सरकार को दुविधा में डालने के लिए इसका मुख्य उद्देश्य लोगों की समस्याएं सुलझाने की अपेक्षा राजनीति करना अधिक है अथवा नहीं ? कोई भी यह प्रश्न पूछ सकता है |

संसद में मणिपुर की हिंसा पर विरोधी पक्षाें ने गत ९ दिनों तक दंगे किए । वास्तव में मणिपुर के प्रश्न की लंबी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है । मणिपुर में असंतोष के अनेक कारण हैं तथा इस असंतोष के अनेक अंग हैं । उसमें विदेशी शक्तियों का बहुत बडा हाथ है । विगत अनेक दशकों तक वहां के हिन्दू मैतई समाज पर हुए अन्याय की वह प्रतिक्रिया है । यदि हिन्दुओं द्वारा कोई प्रश्न उठाया भी जाता है, तो क्या सारे विरोधी पक्ष एकजुट होकर शासन को घेरते हैं ? इसलिए क्योंकि सरकार हिन्दुत्वनिष्ठ के रूप में पहचानी जाती है ! महाराष्ट्र विधान मंडल के सत्र में पू. संभाजी भिडेगुरुजी के प्रशन पर विपक्ष ने बिलकुल निरर्थक प्रश्न उपस्थित कर समय गंवाया । इसमें द्वेष की राजनीति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखा । अंत में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिडलाजी ने ऊबकर निर्णय लिया कि जबतक ‘सदस्यों के आचरण में सुधार नहीं होता, तबतक लोकसभा के कामकाज का संचालन नहीं करेंगे’ ।

जनता भी स्पष्टीकरण मांगे !

सभागृह का कामकाज समाचार वाहिनियों पर भी दिखाया जाता है, जिसे बहुत मतदाता देखते हैं । उनके सामने हम क्या बोलते हैं, कैसा अचरण करते हैं, जन प्रतिनिधियों को इसका भान नहीं रहता । आज कल महाराष्ट्र के विधान मंडल का कामकाज देखने के लिए विद्यालय के छात्रों को भी लाया जाता है । इन बच्चों के सामने ये जनप्रतिनिधि क्या आदर्श रखेंगे ? ये छात्र मन में सोचेंगे, ‘हम भी विद्यालय में शिक्षकाें का कहा मानते हैं, शांत बैठते हैं; किंतु इतने बडे तथा जनता के प्रतिनिधि कहे जानेवाले लोग ऐसा क्यों नहीं कर सकते?’ एक समय में एक ही व्यक्ति को क्यों बोलना चाहिए, कुछ जन प्रतिनिधि इतने सरल नियम पालन करते भी नहीं दिखाई देते ।सभापति अथवा अध्यक्ष को बार बार यह बताना पडता है । अभी अभी हुए महाराष्ट्र के वर्षाकालीन सत्र में अध्यक्ष ने एक प्रतिनिधि को बार बार बैठने के लिए कह रहे थे किंतु उन्होंने बात नहीं सुनी । प्रहार जनशक्ति पक्ष के विधायक बच्चू कडू के बोलते समय विरोधी पक्ष के २ सदस्य आपस में बातें कर रहे थे । इससे कडू के बोलने में बाधा आने से वे क्रुद्ध हुए ।

४ जुलाई को भी अराजकता के के कारण राज्यसभा को पूरे दिन के लिए स्थगित करना पडा, उससे पूर्व विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खडगे तथा अध्यक्ष जगदीप धनखड में कुछ हास्य के मध्य तीखी नोकझोंक हुई थी, जिसका अर्थ था कि सदन को चलाने का प्रयास नहीं किया गया था । अर्थात सभागार में पूरे देश का प्रतिनिधित्व करनेवाले नेता के उपस्थित होते हुए भी सभागार का कामकाज चलाने की दृष्टि से प्रयास नहीं होते ।  ‘इस प्रकार दायित्वशून्य आचरणवाले प्रतिनिधि हमारा प्रतिनिधित्व करते हैं’, यह जनता के ध्यान में आता हैे; किंतु अभीतक जनता के पूरी तरह जागृत न होने से उनकी ही तूती बोलती है । इसमें कोई शंका नहीं कि एक दिन जनता इस विषय पर भी जागृत होगी तथा जन प्रतिनिधियों को इसका उत्तर देने को बाध्य करेगी । मीडिया (माध्यम) भी इस विषय में जन प्रतिनिधियों के साथ कडाई नहीं करते । देश की जनसंख्या करोडों में है तथा सदन में कुछ सौ जन प्रतिनिधि हैं; किंतु यह भी उतना ही सच है कि वोट मांगने आने वाले जन प्रतिनिधियों अथवा पक्ष के नेताओं से जनता इस विषय पर प्रश्न नहीं पूछती’ । ‘जनता के चुने जन प्रतिनिधि जनता तथा देश के प्रश्नों का निवारण करने की अपेक्षा कितनी सहजता से समय व्यर्थ गंवा रहे हैं’, जनता में जब इसके प्रति गंभीरता आएगी, तब ये जन प्रतिनिधि इस सभागृह में आने योग्य नहीं रह जाएंगे । वास्तव में साम, दाम, दंड, भेद के अनुसार सभागृह का अनुशासन भंग करनेवाले प्रतिनिधियों को कठोर दण्ड देना ही उन्हें अंतर्मुख करने का एक उत्तम पर्याय है । आज पूरा विश्व सभी क्षेत्राें में आशावादी होकर भारत को एक ‘आदर्श’ के रूप में देख रहा है । इसलिए आशा है कि देश की संसद से ही उसका आरंभ होगा तथा सरकार उसके लिए कार्रवाई करेगी !