भाग्यनगर में (हैद्राबाद) एक शास्त्रज्ञ ने खोज की, केले के पेड के तने अथवा केले के पेड मे लगे केलोंके गुच्छे के सिरे पर कमल के आकार का सिरा, पत्तों में जो चिपचिपा द्रव्य पदार्थ होता है, उसे खाने के उपरांत कर्करोग (कैंसर) बढानेवाली ग्रंथी धीरे-धीरे निष्क्रीय होती जाती है । इसलिए पुराने काल के लोग केले के पत्ते पर भोजन लेते थे; कारण गरम भात अथवा अन्य पदार्थ उसपर रखने पर, वह चिपचिपा द्रव्य उस अन्न के माध्यम से पेट में जाता था; परंतु आज उलटा हो गया है । प्लास्टिक एवं थर्माकोल के कारण महाभयानक परिस्थिति निर्माण हो रही है । नदी-नाले भर गए हैं । शहर और देहाती इलाकों में विवाह समारोह में प्लास्टिक कोटिंग की पत्तलों (पत्रावळी) और द्रोण का धडल्ले से उपयोग हो रहा है । उसमें गरम पदार्थ डालने से वह अन्न के माध्यम से पेट में जाता है और उससे कर्करोग बढा रहा है । अब यह कहने का समय आ गया है, ‘पुराना ही सोना है’, चूंकि यह प्रत्येक आधुनिक तंत्रज्ञान का उपयोग कर सिद्ध हो गया है । केले के पत्ते पर भोजन की पद्धति केवल भारत में ही नहीं; अपितु इंडोनेशिया, सिंगापुर, मलेशिया, फिलिपीन्स, मेक्सिको, मध्य अमेरिका देशों में भी पाई जाती है ।
१. केले के पत्तों पर भोजन ग्रहण करने से होनेवाले लाभ
केले के पत्ते पर भोजन करने से शरीर को होनेवाले लाभ आधुनिक विज्ञान द्वारा प्रमाणित हो गए हैं ।
अ. केले के पत्तों पर गरम भोजन परोसने से उन पत्तों में विद्यमान पोषक तत्त्व अन्न में मिल जाते हैं, जो शरीर के लिए अच्छे होते हैं ।
आ. केले के पत्तों पर भोजन करने से दाद-खाज, फोडे-फुंसियां आने की समस्या दूर हो जाती है ।
इ. केले के पत्तों में अधिक मात्रा में ‘एपिगालोकेटचीन गलेट’ एवं ‘इजीसीजी’ समान ‘पॉलीफिनोल्स एंटीऑक्सिडेंट’ पाए जाते हैं । ये एंटीऑक्सिडेंट अपने शरीर में मिल जाते हैं, जो त्वचा को दीर्घकाल तक युवा रखने में सहायता करते हैं ।
ई. त्वचा पर फोडे-फुंसियां, दाद, मुंहासे इत्यादि होंगे, तो केले के पत्ते पर तेल लगाकर, उसे त्वचा पर बांधने से त्वचा के रोग शीघ्र ठीक हो जाते हैं ।
२. भारतीय परंपराओं के मूलतत्त्व और उसके पीछे विज्ञानवादी दृष्टिकोण
ऐसा नहीं है कि सभी भारतीय परंपराएं ‘आउटडेटिड’ हैं । अधिकांशत: भारतीय परंपराओं के पीछे निसर्ग का और मानवी आरोग्य का सूक्ष्म विचार देखकर शास्त्रज्ञ भी एक अलग ही दृष्टिकोण से उसकी ओर देखने लगे हैं । भारतीय संस्कृति मूलत: प्रकृतिपूजक है । निसर्गपूजा के पीछे उसकी रक्षा का विचार है । अपनी संस्कृति में धूप, पवन, वर्षा जैसी प्राकृतिक शक्तियों को ही भगवान मानकर उनकी पूजा की जाती है । भारतीय संस्कृति में निसर्ग का ‘दोहन’ करना सिखाते हैं, ‘शोषण’ नहीं । उदाहरणार्थ हम गाय का दूध निकालते हैं; परंतु उसे मारते नहीं । गाय को मारना, यह हुआ ‘शोषण’ और गाय को जीवित रखकर दूध, गोमूत्र एवं गोबर अपने उपयोग के लिए लेना अर्थात ‘दोहन’ ! इस प्रकार निसर्ग के संसाधनों का उपभोग लेते हुए उनकी पुनर्भरण क्षमता अबाधित रखना, यह भारतीय परंपराओं का मूलतत्त्व है ।
यहां ध्यान देनेवाली बात यह है कि ये परंपराएं लोग केवल परंपरा के रूप में ही नहीं अथवा धार्मिक भावना से इनका पालन करते थे । उसके पीछे का शास्त्र ध्यान में नहीं आया था । आज आधुनिक विज्ञान की प्रगति के कारण इन परंपराओं की उपयुक्तता शास्त्रीय कसौटियों पर खरी उतरती हैं या नहीं यह देखना और वैज्ञानिक परिभाषा में उनका महत्त्व समझाना असंभव हो गया है । इसके साथ ही उपयुक्त एवं निरूपयोगी परंपरा कौन सी हैं यह पहचानना असंभव हो गया है । ‘केवल परंपरा के रूप में नहीं, अपितु अमुक एक बात वैज्ञानिकदृष्टि से उपयुक्त है, इसलिए वह करें’, यह एक नया विज्ञानवादी दृष्टिकोण मिला है ।
३. केले के पत्तों का उपयोग करने की भारतीय परंपरा !
केले के पत्तों पर भोजन, यह ऐसी ही एक प्राकृतिक और स्वास्थ्य का सूक्ष्म विचार करनेवाली भारतीय परंपरा है । स्वास्थ्य और पर्यावरण की दृष्टि से केले के पत्तों की उपयुक्तता आज आधुनिक विज्ञान से सिद्ध हो गई है । केले के पत्तों का बडा आकार, लौचिकता (लचीलापन) एवं सहज उपलब्धता, इन विशेषताओं के कारण भोजन के लिए थाली के स्थान पर केले के पत्तों का उपयोग करने की परंपरा लगभग संपूर्ण देश में विशेषरूप से दक्षिण भारत में अनेक वर्षाें से पाई जाती है । कुछ अन्नपदार्थ पकाते समय बर्तन के नीचे केले के पत्ते डालने की पद्धति भी थी, जिससे अन्नपदार्थ को एक मंद सुगंध आती है । इसके साथ ही तल में केले के पत्ते डालने से पदार्थ नीचे लगकर, जलने का धोखा भी टल जाता है । अरबी के पकौडे इत्यादि पदार्थ केले के पत्तों में लपेटकर पकाए जाते हैं । अनेक स्थानों पर वेष्टन के रूप में केले के पत्तों का उपयोग करते हैं । केले के पत्ते पर भोजन करने की प्रथा केवल भारत में ही नहीं, अपितु इंडोनेशिया, सिंगापुर, मलेशिया, फिलिपीन्स, मेक्सिको, मध्य अमेरिका जैसे देशों में भी पाई जाती है ।
४. केले के पत्तों पर भोजन करने से होनेवाले लाभ
केले के पत्ते पर भोजन करने से शरीर को होनेवाले लाभ आधुनिक विज्ञान द्वारा सिद्ध हो गए हैं । केल के पत्ते में ‘पॉलीफेनॉल’ नामक घटक होता है, जो प्राकृतिक एंटीऑक्सिडेंट के रूप में काम करता है । यह रोगप्रतिकारक्षमता बढाता है । भोजन ग्रहण करने के उपरांत पत्ते मवेशियों को डाल दिए जाते हैं । जिन्हें मवेशी अत्यंत रुचि से खाते हैं । इसका अर्थ यह है कि प्रकृति से कोई वस्तु लेकर, उसका उपयोग करने पर वह उसे ही पुन: दें । इससे बर्तन धोने का श्रम भी बचता है, पानी की भी बचत होती है । इसके साथ ही बर्तन -कपडे इत्यादि धोने के लिए यदि साबुन का उपयोग न किया जाए, तो घरों से गंदे पानी का उत्सर्जन भी अल्प होता है ।
५. प्लास्टिक की प्लेटों की तुलना में केले के पत्ते पर्यावरणपूरक !
वर्तमान में कोई भी सार्वजनिक कार्यक्रम होने पर प्लास्टिक की प्लेटों को अथवा थर्माकोल की प्लेटें भोजन के लिए उपयोग में लाई जाती हैं । भोजन के पश्चात ये प्लेटें कचरे में फेंक दी जाती हैं । इससे कितना कचरा बढ जाता है ? केले का पत्ता इसका अच्छा पर्याय है । यह सहज विघटनशील होने से पर्यावरणपूरक है । देहातों में केले के पत्ते घर ही में उपलब्ध होते हैं । शहरों में उन्हें खरीदना पडता है; पर वे उपलब्ध होते हैं । शहर के आसपास केले बेचने का व्यवसाय करनेवाले किसानों को केलों के साथ ही केले के पत्ते बेचना, उदरनिर्वाह का एक अच्छा साधन हो सकता है । मुंबई में दादर एवं अन्य कुछ रेलवे स्थानकों के बाहर १० रुपए में ४ इत्यादि, इस मूल्य में केले के पत्ते बिकते हैं । इसलिए वे महंगे कदापि नहीं । घरेलु कार्यक्रम के लिए प्लास्टिक की प्लेटों का उपयोग करने के स्थान पर केले के पत्तों का उपयोग किया जा सकता है ।
– संजीवन फंगल इन्फेक्शन, मूलव्याध, दमा, आम्लपित्त, मायग्रेन वनौषधि उपचार केंद्र, नगर. (संदर्भ : वॉट्सएप)