अपना उद्धार स्वयंको ही करना है !

।। श्रीकृष्णाय नम: ।।

पू. अनंत आठवलेजी

सिद्ध संत-महात्मा, गुरु, ईश्वरके अवतार, स्वयं ईश्वर अपने दैवी बलसे मनुष्यके मनके विचार परिवर्तित करनेका, बुद्धिके निर्णय परिवर्तित करनेका काम नहीं करते । उदाहरणके लिए, संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर, आद्यशंकराचार्य आदि श्रेष्ठ संत-विभूतियोंने उन्हें सतानेवालोंकी कुबुद्धिको परिवर्तित कर उसकी सुबुद्धि नहीं की । महर्षि व्यासने दुर्याेधनका लोभ नष्ट नहीं किया । ये तो हुवे महात्माओंके उदाहरण । ईश्वरके उदाहरण देखें तो कुरुक्षेत्रकी युद्धभूमिपर युद्धका आरंभ होनेसे पहले अर्जुनके मनमें संभ्रम निर्मित होकर ‘युद्ध न करे’, ऐसा उसे लगा । सोलह कलाओंके पूर्णावतार भगवान् श्रीकृष्णने अपने दैवी बलसे अर्जुनकी बुद्धि परिवर्तित कर एक क्षणमें उसे युद्धके अनुकूल नहीं किया । उन्होंने ५७४ श्लोकाेंसे अर्जुनको उपदेश दिया, क्या उचित है और क्या अनुचित यह समझाया, वास्तविक शाश्वत कल्याण किसमें है और वह कैसे होगा, यह बताया । इतना सारा बताने के पश्चात् आगे क्या करना है, इसका निर्णय अर्जुनपर ही सोंपा । प्रभु श्रीरामने रावणकी बुद्धिमें सुधार नहीं किया, भगवान् नृसिंहने हिरण्यकशिपुकी चित्तवृत्ति परिवर्तित नहीं की । महात्मा हो अथवा ईश्वर हो, वे मनुष्यके स्वभावके दोष नहीं हटाते, उसकी चित्तशुद्धि नहीं करते । वे केवल क्या योग्य है यह बताते हैं, मार्गदर्शन देते हैं ।

हमारी स्थिति भी ऐसी ही है । कोई गुरु अथवा ईश्वर आकर हमसे हुई चूकोंका, पापोंका परिणाम नष्ट नहीं करेंगे, हमारा स्वभाव नहीं सुधारेंगे । हम भाग्यशाली हैं कि हमें ग्रंथोंसे, गुरुओंसे मार्गदर्शन मिला है । अब आगे हमें अपनी चित्तशुद्धि करनी है, हमें ही करनी है ! भगवद्गीतामें भगवान् श्रीकृष्ण बताते हैं –

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।।

अर्थ : अपना उद्धार हम स्वयं ही करें, अपनी अवनति न करें । हम ही अपने बंधु होते हैं, हम ही अपने शत्रु होते हैं ।

जो हमारा हित चाहता है, वह हमारा बंधु होता है । प्राप्त मार्गदर्शनके अनुसार हम आचरण करें तो हमारा हित होगा, अर्थात् हमने ही अपना हित किया, हम ही अपने बंधु बने । जो हमारे अनिष्टकी इच्छा करता है, हमारा अहित होनेकी इच्छा करता है, वह हमारा शत्रु होता है । सन्मार्गके प्राप्त मार्गदर्शनके अनुसार हम नहीं चले तो हम अपनी ही अधोगति कर लेंगे, हम अपने शत्रु बनेंगे । ऐसेमें, हमें अपना हित करना है, उद्धार करना है; अधोगति तो करनी ही नहीं है । किंतु, जैसा कि पहले बताया था, मुख्य बात यह है कि गुरु अथवा ईश्वर आकर यह हमारे लिए नहीं करेंगे । यह अपने लिए स्वयंको ही करना है, इसे पर्याय नहीं है ।

– अनंत आठवले. ०१.०५.२०२३

।। श्रीकृष्णापर्णमस्तु ।।

पू. अनंत आठवलेजी के लेखन का चैतन्य न्यून न हो इसलिए ली गई सावधानी

लेखक पू. अनंत आठवलेजी के लेखन की पद्धति, भाषा एवं व्याकरण का चैतन्य न्यून (कम) न हो; इसलिए उनका लेख बिना किसी परिवर्तन के प्रकाशित किया गया है । – संकलनकर्ता