जिसका विज्ञापन करना पडे, वह अन्न है ही नहीं । क्या रोटी, चावल, दाल, देसी घी, भाजी-तरकारी आदि का विज्ञापन करना पडता है ? प्रकृति से प्राप्त व सहस्रों वर्षाें से मनुष्य जो ग्रहण करते हैं, वही है खरा अन्न ! वे वेष्टन में चले गए तथा ‘रेडी टू ईट’ (खाने के लिए तैयार) हैं, तो समझ लें उस पर प्रक्रिया हुई है ।
१. खाद्य संस्कृति भूल जाने से शहरी लोगों के समान वनवासी लोग भी कर रहे हैं रोगों का सामना !
‘कुछ समय पूर्व ठाणे के समीप एक वनवासी बस्ती में जाने का अवसर मिला । वहां की महिलाओं को स्वास्थ्य संबंधी मार्गदर्शन करना था । मुझे लग रहा था कि हम उन्हें क्या बताएं ? परिश्रम एवं मिताहार ? कष्ट व भूखमरी से तो उन महिलाओं को कभी छुटकारा ही नहीं; परंतु वहां जाने पर ध्यान में आया कि शहर के लोगों की काली परछाईं इन पर भी पड चुकी है । शहर से आई ‘बंगला संस्कृति’ ने उन्हें भी जकड लिया है । जंगल के अतिरिक्त जिनका विश्व ही नहीं, ऐसे प्रकृति-प्रेमी भी अब शहर के तथाकथित सुशिक्षित व सभ्य लोगों की मूर्खता का अनुकरण करने के लिए उतावले हैं ।
मैंने उनसे आग्रहपूर्वक कहा, ‘आपके कुछ प्रश्न हों, तो पूछिए’, परंतु संकोचवश कोई बोल नहीं रहा था । मैंने ही पूछा ‘क्या किसी की कमर में वेदना हो रही है ?’ परिश्रम करनेवाली अधिकांश महिलाओं की यह समस्या होती है । लगता है समाज में लगभग सभी महिलाएं वेदना सहन करने की अभ्यस्त हो गई हैं; इसलिए मेरे पूछने तक किसी ने कोई शिकायत नहीं की ।
मेरा अगला प्रश्न था, ‘पेट साफ हो रहा है क्या ?’
‘नहीं, कष्ट होता है ।’
‘चना-मटर-मूंग-मसूर (दलहन) कितना खाते हैं ?’
‘अब हरी तरकारी हमें प्रतिदिन कहां मिलती है ? प्रतिदिन ही दलहन कहो न ।’
‘उसमें तेल कितना डालते हैं ?’
‘दो चम्मच !’
‘अर्थात आपको तेल कम पड रहा है । दलहन बहुत सूखी होती है । उसमें तेल कम डालने से तो पेट साफ नहीं होगा और पेट साफ नहीं होगा, तो कमर में वेदना होगी ।’ मैंने अपने पुस्तकीय ज्ञान की घुट्टी पिलाई ।
‘इतना तेल कहां से लाएंगे ? हमारे लिए संभव नहीं ।’ महिलाएं आपस में फुसफुसाने लगीं ।
‘दो बच्चों के लिए बंद पैकेट के खाद्य पदार्थ का व्यय (खर्च) १० रुपए होता है, अर्थात प्रत्येक माह ५०० रुपए ।’ किसी ने मुझे ऐसा धक्कादायक समाचार दिया ।
‘बंद पैकेट के खाद्य पदार्थ क्या है ?’ ‘यही बिस्किट, वेफर्स, कुरकुरे, केक, चॉकलेट तथा अब गर्मियों में पेप्सी । एक पैकेट कम से कम ५ रुपए का मिलता है । २ – ३ लोग होंगे, तो प्रतिदिन १५ रुपए होते हैं न ?’ मैं चौंक गई । विद्यालय के लिए एवं पानी लाने के लिए पहाडी चढकर कुछ कि.मी. चलनेवाले इन बच्चों के लिए ऐसे खाद्य पदार्थ ? जहां विद्यालय नहीं, अस्पताल नहीं, वहां ऐसे पैकेटबंद खाद्य पदार्थ पहुंचे कैसे ? जामुन, करौंदा, इमली एवं देसी आम जैसे जंगल के मेवा छोडकर क्या खाने लगे ये बच्चे ? कहां से सीखा उन्होंने ऐसे पदार्थ खाना ? इन्होंने हमें देखकर ही सीखा है न ? हमने ही इन पदार्थाें को अनावश्यक महत्त्व व प्रतिष्ठा दी है न ?
२. यह सोचना आधुनिक अंधविश्वास है कि प्रतिष्ठित प्रतिष्ठान के ‘पैकिंग’ में पदार्थ, कीटाणु रहित एवं उत्तम हैं !
भारत में पढे-लिखे लोगों को ‘पैक्ड फूड’ पर (वेष्टन के अन्न पर) जितना विश्वास है, उतना अपने माता-पिता व भगवान पर भी नहीं है । अनेक समृद्ध घरों की माताएं अपने बच्चों को डिब्बे के में कोई पैकेटबंद पदार्थ डालकर दे देती हैं । वे यह विज्ञापन से सीखती हैं । ‘कैलरीज’ का उत्तम स्रोत, प्रतिष्ठित ब्रैंड, अर्थात उत्तम गुणवत्ता’ इस ‘पैकिंग’ में उपलब्ध होने से कीटाणु रहित होने की निश्चिति’, ऐसी धारणा होने से मैंने एक डॉक्टर को अपने ३ वर्षीय बच्चे को भूख के समय अत्यंत प्रेम से कैडबरी चॉकलेट खिलाते देखा है । बच्चा भोजन के समय न्यूनतम आधी कैडबरी या आधा पैकेट बिस्किट का सेवन कर ले, तो जैसे उसके पेट में अमृत गया हो, ऐसा समझकर कृतकृत्य होनेवाली साक्षर माता को देख मुझे बहुत चिंता हुई ।
अनेक लोगों को लगता है कि यह ‘सो कॉल्ड फूड’ (कथित अन्न) कारखाने में तैयार होता है, अर्थात उत्तम स्तर का होता है । यह यंत्र पर तैयार होता है तथा चमचमाते हुए वेष्टन में आता है, अर्थात स्वच्छ एवं कीटाणु रहित होता है । विज्ञापन में कहते हैं, इसलिए ‘हेल्दी’ (पोषक) होता है । उनके पैकेट पर लिखे हुए सभी जीवनसत्त्व (विटामिन्स) एवं खनिज वास्तव में इनमें होते हैं । पूरा विश्व इसे खाता है, इसलिए इसे खाने में कोई हानि नहीं । कुछ लोग ऐसा भी सोचते हैं कि बचपन में हमें तो नहीं मिला; परंतु हमारे बच्चों को मिलना ही चाहिए आदि । कैसी अंधश्रद्धा ?
३. अन्न के संदर्भ में कुछ नियम
अ. अन्न वेष्टन में गया और ‘रेडी टू ईट’ (खाने के लिए तैयार) होने पर, समझ लें कि उस पर प्रक्रिया की गई है । उस प्रक्रिया में मूल पोषक तत्त्वों का सत्यानाश हो ही चुका है । यह बात भली-भांति समझ लें । इस पाप के प्रायश्चित के रूप में पुन: ऊपर से कुछ ‘विटामिन्स’ एवं खनिज उसमें मिलाते हैं । इससे हमें आनंद होता है । इस पर प्रसन्न होना वैसे ही है, जैसे चोर हमसे १० सहस्र रुपए चुराकर हमें रिक्शा के लिए १० रुपए देता है एवं हम प्रसन्न हो जाते हैं ।
आ. जिसमें हम अवयव पदार्थों के नाम पढ भी नहीं सकते तथा यदि गलती से पढ भी लें, तो वह कौन सा पदार्थ है ? यह ध्यान में नहीं आता, वह अन्न है ही नहीं । वह अवयव पदार्थ जिसके विषय में किसी डॉक्टर को पूछना पडे, या ‘इंटरनेट’ पर ढूंढना पडे, तो वह प्राकृतिक है ही नहीं ! ऐसे पदार्थाें को हमें अपनी अन्ननलिका में प्रवेश करने ही नहीं देना है । इसलिए प्रकृति ने अपने शरीर में कुछ ऐसी व्यवस्था बिठाई है । ये पदार्थ अपने शरीर के लिए अपरिचित होते हैं । शरीर उसे जहां आवश्यक नहीं, वहां जमा करके रखता है तथा उसी से कर्क रोग जैसी बीमारियां होती हैं ।
इ. जो पदार्थ ‘पैकिंग’ सहित इतना सस्ता मिलता हो, वह अन्न नहीं हो सकता । हमें समझना होगा कि उसे बनाने के लिए जो भी थोडे-बहुत अनाज का उपयोग करते हैं, वह अवश्य निम्न स्तर का होगा या उसकी जगह दूसरा सस्ते पदार्थ का उपयोग किया जाता है । इसमें पोषक अंश तो होते ही नहीं; उलटे इतनी सारी प्रक्रिया करते-करते वह शरीर के लिए निरुपयोगी हो जाता है । बढती आयु के बच्चों को ऐसे पदार्थ देने से हम उनके स्वास्थ्य को हानि पहुंचा रहे हैं । उससे उन्हें न पोषण मिलता है न ही ऊर्जा ।
मूलत: ‘जंक’ शब्द का अर्थ ही है ‘कचरा’ ! अब कचरा शब्द के आगे ‘फूड’, अर्थात अन्न शब्द कैसे लागू हो सकता है ? ये दो विपरीत शब्द हैं । अन्न पूर्णब्रह्म है । वह हमारे देहरूपी पूर्णब्रह्म का पोषण करने में सक्षम होता है । इसके विपरीत कचरा फेंकने योग्य होता है । इसलिए ‘जंकफूड’ शब्द ही एक छल है । इसमें बेकरी में बनाए पदार्थ, आईसक्रीम, विभिन्न चटपटे वेफर्स जैसे पदार्थ, शीतपेय, कुछ प्रकार के पिज्जा एवं बर्गर्स जैसे अनेक पदार्थाें का समावेश है ।
४. मनुष्य से भी अधिक समझदार हैं जानवर !
हम कहते हैं कि ‘मनुष्य जानवर से बुद्धिमान होते हैं’; परंतु कोई जानवर अपना निर्धारित अन्न छोडकर अन्यत्र मुंह भी नहीं लगाता । हाथी का अन्न घास है । जंगल में शेर को मांसभक्षण करते हुए वह अनेक वर्षाें से देख रहा है; इसलिए किसी हाथी ने क्या कभी अपना आहार परिवर्तित किया है ? प्राकृतिक प्रेरणा से जो खाने की इच्छा होती है, जानवर वही पदार्थ खाता है । केवल हम ही ऐसे हैं जो कभी भी कुछ भी खाते रहते हैं । अन्यों ने सेवन किया; इसलिए हम भी खाते हैं । स्वाद अच्छा लगा; इसलिए अमुक खाद्य पदार्थ में क्या है, यह जाने बिना ही हम खाते हैं ।
५. ‘जंक फूड’ के दुष्परिणाम !
अ. इन पदार्थाें में रेशेवाले अर्थात फाइबर पदार्थ अल्प होने से उसका सेवन करनेवाले को कोष्ठबद्धता का विकार होता है । कोष्ठबद्धता अनेक रोगों की जननी है ।
आ. इसमें भारी मात्रा में सफेद चीनी का उपयोग होता है । इसलिए ‘टाइप-२’ का मधुमेह (इसमें शरीर में इन्सुलिन प्रतिरोधक क्षमता निर्माण होती है तथा इन्सुलिन का उत्पाद होते हुए भी अपना शरीर उचित ढंग से उसका उपयोग नहीं कर
सकता ।) होने की संभावना बढती है ।
इ. इन पदार्थाें में नमक की मात्रा अधिक होने से रक्तचाप बढ सकता है, केश झडने लगते हैं तथा केश समय से पूर्व ही सफेद हो सकते हैं । इनमें अतिरिक्त सोडियम किडनी के लिए संकटकारी हो सकता है ।
ई. इसके नमकीन एवं खट्टे पदार्थाें की अधिकता के कारण विविध त्वचाविकार हो सकते हैं ।
उ. इसके ‘ट्रांस फैट्स’ (चरबी) शरीर में एकत्र होने से चर्बी बढती है, जिससे मोटापा आता है । इतनी छोटी आयु में ही मोटापा बढने से आगे निराशा, जोडों में वेदना, निरुत्साह एवं आत्मविश्वास अल्प होने जैसी अनेक समस्याएं निर्माण होती हैं । यह बढा हुआ ‘ट्रांस फैट्स’ हृदयरोग को भी आमंत्रित करता है ।
ऊ. ‘जंक फूड’ पचने में भारी होने से पचन संबंधी समस्याएं उत्पन्न होती हैं ।
ए. शरीर का उचित पोषण न होने से निरुत्साह, उबाउपन (बोरियत), दुर्बलता एवं रोगप्रतिकार शक्ति का नाश आदि समस्याओं का सामना करना पडता है ।
ऐ. बचपन से ही ‘जंक फूड’ खाने की आदत होगी, तो छोटी आयु में ही स्त्री एवं पुरुष दोनों की ही प्रजनन क्षमता अल्प हो सकती है । फलस्वरूप संतान प्राप्ति के लिए महंगी दवाएं एवं वेदनादायक उपचार लेने होते हैं ।
ओ. ‘पीसीओडी’ (पॉलिसिस्टिक ओवेरियन डिसीज – मासिक धर्म से संबंधित एक रोग) जो पिछले कुछ दिनों से किशोरियों एवं महिलाओं में भारी मात्रा में पाई जाती है, वह जंक फूड की ही देन है ।
औ. हमने जो सेवन किया है ‘उसका क्या करना है ?’, यह शरीर के ध्यान में नहीं आता । इसलिए वह पदार्थ अपने यकृत (लीवर) में जाकर एकत्र होता है । ‘जंक फूड’ में ऐसे ही पदार्थ अधिक होते हैं । यह कचरा जितना बढता जाता है, यकृत उतना ही बिगडता जाता है । पेट में गया यही कचरा कर्क रोग का कारण बनता है ।
अं. इन पदार्थों को खाने का व्यसन लग सकता है । इससे बच्चों की एकाग्रता पर विपरीत परिणाम होता है । यह सब उन वनवासी माताओं को समझाने के लिए मुझे बहुत परिश्रम करना पडा; परंतु आप शहरी लोग हैं, इसलिए आप तो इसे समझ ही सकते हैं न ? हम यदि ये पदार्थ टालें, तो हमारे स्वास्थ्य में अवश्य सुधार होगा !
– वैद्या सुचित्रा कुलकर्णी
(साभार : दैनिक ‘तरुण भारत’, ४.८.२०१९)