प्राचीन भारत में गुरुकुलों द्वारा चलाई जानेवाली शिक्षा व्यवस्था किस प्रकार होती थी ?

प्राचीन भारत में शिक्षा की व्यवस्था के लिए गुरुकुल प्रणाली का विकास किया गया था । विभिन्न धर्मसूत्रों में इस बात का उल्लेख है कि माता ही बच्चे की श्रेष्ठ गुरु हैं । कुछ विद्वानों ने पिता को बच्चे के शिक्षक के रूप में स्वीकार किया है । जैसे-जैसे सामाजिक विकास हुआ वैसे-वैसे शैक्षिक संस्थाएं स्थापित होने लगी । वैदिक काल में परिषद, शाखा और चरण जैसे संघों की स्थापना हो गई थी । एक-एक ऋषि, महर्षि सैकडों, हजारों विद्यार्थियों को अपने यहां रखकर जीवन की आवश्यक शिक्षा प्रदान करते थे । उस समय कागज का आविष्कार नहीं हुआ था, इसलिए पुस्तकों द्वारा शिक्षा देने का प्रश्न ही नहीं उठता था । उस समय सब प्रकार की शिक्षा मौखिक या व्यवहारिक रूप में ही दी जाती थी । इसलिए उस समय के विद्यार्थी जो कुछ पढते थे, उसे जन्मभर के लिए स्मरण शक्ति द्वारा सुरक्षित बना लेते थे । आजकल के समान परीक्षाएं समाप्त होते ही पुस्तकों से नाता तोड लेने और पढे हुए विषयों में से तीन चौथाई को कुछ ही महीनों में भुला देनेवाली शिक्षा प्रणाली उस समय न थी ।

इस प्रकार के विद्यार्थियों को ‘अन्तेवासी’ अथवा ‘आचार्य कुलवासी’ कहा गया है । प्राचीन व्यवस्थाकारों ने गुरु के साथ विद्यार्थी के सान्निध्य के महत्त्व को समझा था और इसी कारण गुरुकुल पद्धति पर बल दिया । गुरु के चरित्र तथा आचरण का शिष्य के मस्तिष्क पर सीधा प्रभाव पडता था तथा वह उसका अनुकरण करता था ।

गुरुकुलों की व्यवस्था स्वतंत्र तथा निःशुल्क होती थी । समाज के शिक्षा का दायित्व ऋषि-मुनियों ने स्वयं ले लिया था । कोई भी राजा गुरुकुल की व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करता था । राज्य की ओर सें गुरुकुलों की व्यवस्था के लिए कोई प्रबंधन नही किया जाता था । राजा तथा बडे सरदार और दानी गृहस्थ इन गुरुकुलों को गौ, वस्त्र, अन्न आदि दान कर उनकी व्यवस्था में सहायता करते थे ।

प्राचीन भारत के गुरुकुलों के अंतर्गत तीन प्रकार की शिक्षा संस्थाएं थीं

१. गुरुकुल : जहां विद्यार्थी आश्रम में गुरु के साथ रहकर विद्याध्ययन करते थे ।

२. परिषद : जहां विशेषज्ञों द्वारा शिक्षा दी जाती थी ।

३. तपस्थली : जहां बडे-बडे सम्मेलन होते थे और सभाओं तथा प्रवचनों से ज्ञान अर्जन होता था । नैमिषारण्य ऐसा ही एक स्थान था ।

गुरुकुलों में विद्यार्थी से धन मांगना निंदनीय होता था

अध्यापन कार्य में विद्यार्थी से धन मांगना अध्यापक के लिए अत्यंत निंदनीय माना जाता था । गुरु निर्धन से निर्धन विद्यार्थी को भी पढाने से मना नहीं कर सकता था । जो गुरु विद्या के लिए मोल-भाव करता था उस विद्या का व्यवसायी कहकर घृणित और तुच्छ समझा जाता था । ऐसे अध्यापकों को धार्मिक अवसरों पर ऋत्विक के कार्य के अयोग्य कहा गया है । किंतु गुरु के पढाए हुए एक ही अक्षर द्वारा शिष्य उसका ऋणी समझा जाता था । अतएव समावर्तन के अवसर पर शिष्य गुरु-दक्षिणा के रूप में सामर्थ्यानुसार गुरु को धन देते थे । जो छात्र अत्यंत निर्धन होते थे, वे गुरु की गृहस्थी में सेवा-कार्य करके तथा समावर्तन के समय भिक्षा मांगकर गुरुदक्षिणा देते थे । वस्तुत: राजा और प्रजा दोनों का कर्तव्य था कि वे विद्वान आचार्यों एवं शिक्षा संस्थाओं को मुक्त हस्त दान दें ।

गुरुकुलों में गुरु-शिष्य संबंध

विद्यार्थी गुरुकुलों में १२ से १६ वर्ष रहते थे, इस कारण उनमें परिवार जैसा ही संबंध बन जाता था । शिक्षक स्वयं त्यागी, सदाचारी, विद्वान और निरहंकारी होते थे । शिष्य आचार्य को पितासमान मानते थे । शिष्य का कर्तव्य होता था कि वह गुरु के प्रति द्रोह न करे ।