भारत के वैचारिक विनाश का एक वस्तुनिष्ठ इतिहास !

‘वर्ष १९७० के दशक में सोवियत संघ के व्यावसायिक प्रचार (प्रोपेगेंडा) करनेवाले युरी बेजमेनोव अमेरिका की शरण में गया । सोवियत युनियन की गुप्तचर संस्था ‘केजीबी’ ने पूर्ण विश्व में साम्यवादी (कम्यूनिस्ट) विचारधारा फैलाने के लिए अत्यंत भयंकर पद्धतियां अपनाई थीं । बेजमेनोव ने उन सभी रहस्यों को विश्व के सामने रखे । उस प्रक्रिया का नाम था, ‘आइडियोलॉजिकल सबवर्जन !’ (एक-दो सरकारी अथवा सामाजिक व्यवस्था परोक्ष अथवा अपरोक्ष पद्धति से नष्ट करने के लिए रचनात्मक वैचारिक स्तर पर षड्यंत्र) ‘सबवर्जन’ की बात भले ही विश्व के सामने वर्ष १९७० में आई हो, विश्व के अनेक साम्राज्य सहस्रोें वर्षाें से उस तंत्र का उपयोग कर रहे हैं । ब्रिटिश साम्राज्य भी उनमें से एक था ।

इस्लामी लुटेरों से अनेक गुना अधिक चतुर ब्रिटिश थे । उन्होंने २०० वर्ष भारतीयों को ही अपना बिचौलिया (एजेंट) बनाकर भारत पर शासन किया । लुटेरों का उद्देश्य तो ध्यान में आ सकता है; परंतु ये भारतीय कौन थे, जिन्होंने अंग्रेजों की सहायता की ? तथा उन्होंने ऐसा क्यों किया ? ‘सोने की चिडिया’ की उपमावाले भारत में इतना ज्ञान एवं वैभव होते हुए भी हम अचानक इतने दुर्बल क्यों हो गए ? हम दूसरों से नहीं; अपितु अपनों द्वारा ही पराजित हो गए । जो इतिहास हम सभी को बताया गया है, ऐसी बात नहीं है । यह बात है, भारत के वास्तविक इतिहास की, भारत के वैचारिक विध्वंस की (‘आइडियोलॉजिकल सबवर्जन’ की) ! इस विषय को उजागर करनेवाला एक वीडियो राष्ट्रीय यूट्यूब चैनल ‘प्राच्यम्’ पर प्रसारित किया गया है । इस वीडियो के माध्यम से हम अपने पाठकों के लिए अंतर्दृष्टिपूर्ण एवं ज्ञानवर्धक जानकारी प्रकाशित कर रहे हैं, जिसे अब तक १५ लाख लोग देख चुके हैं ।

(पूर्वार्ध)

१. स्वतंत्रता मिलने के उपरांत अंग्रेजों ने भारत नहीं छोडा तथा ‘ब्राउन साहब’ के रूप में यहीं रहने लगे

वर्ष १९४७ में भारत स्वतंत्र हुआ । क्या वास्तव में २०० वर्षाें की वह काली रात समाप्त हो गई थी ? अंग्रेज बडे-बडे जहाज लेकर इंग्लैंड की ओर जा रहे थे । हमारे चेहरे तो देखने योग्य थे । भारतीयों को लग रहा था, ‘कल वह सवेरा आएगा, जिसके लिए लाखों लोगों ने संघर्ष किया । अब सभी क्रांतिकारियों एवं राष्ट्रवादी भारतीयों को देहली से निमंत्रण मिलेगा । सभी मिलकर भारत की एक बडी कथा लिखेंगे । अपना देश अब स्वतंत्र है; अब चिंता किस बात की ?’; परंतु वह निमंत्रण कभी आया ही नहीं । बंद द्वारों के अंदर पता नहीं, किन-किन समझौतों पर हस्ताक्षर हुए । तभी एक दिन अचानक हो-हल्ला हुआ, ‘१० सप्ताहों में यह देश हिन्दू एवं मुसलमानों में विभाजित किया जाएगा’, ऐसी घोषणा हुई । हमें लग रहा था कि वर्ष १९४७ में गोरेसाहब निकल जाएंगे; परंतु यह हमारी भूल थी । कुछ ‘साहब’ ऐसे भी थे, जो कभी गए ही नहीं ।

२. इस्लामी आक्रांताओं की दासता में भारतीयों ने सैकडों वर्ष अत्याचार सहन किए

बात है १ सहस्र वर्षाें पूर्व की ! तब भारत इस्लामी लुटेरों से लड रहा था । जनता के पैसे पैसे लूटे जा रहे थे; परंतु इसके लिए बहुत संघर्ष करना पडता था । लुटेरे तो गिने-चुने ही थे; परंतु करोडों अज्ञानी लोगों को कौन संभाले ? अंत में कितने सर तन से जुदा किए जा सकते थे ? शेरशाह जैसे अफगानों ने यहां के लोगों को समाहित कर ही सरदारों की सेना बनाई । प्रत्येक सरदार के अधीन सैकडों सैनिक थे । अकबर के समय में ऐसे सैनिक लगभग ४४ लाख थे । सदा निर्धनों के मन में सरकार के प्रति भय निर्माण करना उनका कार्य था । इसी सेना में ‘दारोगा साहब’ (फौजदार) होते थे । उनकी आहट सुनते ही निरीह जनता कांप उठती थी । इस संदर्भ में विख्यात इतिहास विशेषज्ञ श्री. नीरज अत्री कहते हैं, ‘अब यह ‘साहब’ शब्द कहां से आया ? मुहम्मद पैगंबर के साथ जो लोग थे, अर्थात जिन्होंने पैगंबर को जीवित देखा था, उन्हें ‘साहब’ पुकारा जाता था । इसलिए उन्हें अत्यंत महान समझा जाता था । यह शब्दावली आज भी प्रचलित है !’

जनता के सामने अब ३ विकल्प थे : एक ‘धर्म-परिवर्तन कर समझौता करो !’, ‘जिम्मी (टिप्पणी) बनो !’ अथवा ‘सर कलम कर दो !’ अधिकांश लोग जिम्मी बनकर रहने लगे ।

(टिप्पणी : ‘जिम्मी’ अर्थात ‘सुरक्षित व्यक्ति जिसे इस्लामी शासन में स्वयं के धर्म का त्याग किए बिना रहने के लिए जिजिया कर (राजस्व) भरने के साथ शासन से एकनिष्ठ होना ।’)

यदि ‘जिम्मी’ बनकर रहा, तो अपमान सहन करते हुए भी जीवित रह सकूंगा । थोडा झुकेंगे, ‘जिजिया’ कर देंगे; परंतु जीवन तो बच जाएगा । सैकडों वर्ष भार सहन कर साहब का भय हमारे मन में सदैव रहा । जब विश्व अन्य गति से आगे बढ रहा था, तब हमारी सभ्यता का आत्मविश्वास टूट रहा था । रामराज्य का विशाल साम्राज्य अब जनमानस में केवल एक स्मरण के रूप में बसा था । अब कौन लुटेरा जा रहा है ? एवं कौन आ रहा है ? मात्र यह देखना शेष रह गया था ।

३. मुसलमान शासकों के शासन से अंग्रेजों ने पीडित जनता का अनुचित लाभ उठाया

१७५७ में ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल सहज जीत लिया । भारत में अरबों रुपए संपत्ति के अनगिनत राज्य थे । स्वयं से सैकडों गुना बडी जनसंख्या को नियंत्रित रखना अंग्रेजों के सामने वास्तविक चुनौती थी । उस समय भारतीय जनता भयभीत थी एवं वह इस्लामी काल में दासता की नौकरी ढूंढ रही थी ।

बेजमेनोव ‘आइडियोलॉजिकल सबवर्जन’ के संदर्भ में कहता है, ‘युद्ध बिल्कुल नहीं करना’, यही सर्वश्रेष्ठ युद्ध होता है ! इसमें शत्रु राष्ट्र के मूल्यवान ऐसी बातों का विस्मरण कराना होता है ।

भारत की सामाजिक व्यवस्था, शिक्षा, धर्म, ये सब हमारी सभ्यता की विशेषताएं थीं; पर हर समाज की भांति सैकडों वर्ष की निर्धनता व भूखमरी से कुछ समस्याएं भी उत्पन्न हुई थीं । ये समस्याएं पहचानकर ब्रिटिशों की आंखों में चमक आ गई ।

बेजमेनोव कहता है, ‘सोवियत लोग ‘आइडियोलॉजिकल सबवर्जन’ संज्ञा का प्रयोग करते हैं । अर्थात, वास्तविकता की ओर देखने के दृष्टिकोण में परिवर्तन करना, जिससे बहुत ज्ञान होते हुए भी कोई भी तार्किक निष्कर्षाें तक न पहुंचे । यह बडी ‘ब्रेन वाशिंग’ प्रक्रिया है, जो मूल में ४ स्तरों में बांटी गई है :

प्रथम स्तर – नैतिकता के विरुद्ध कार्य अर्थात ‘डिमोरलाइजेशन’ !

इसके अंतर्गत (सनातन हिन्दू) धर्म के संदर्भ में उसको नष्ट करना, उपहास उडाना, ऐसा न करते हुए भिन्न-भिन्न पंथ, (अधिकांश अनुचित अर्थात मूल धर्म के विरुद्ध) प्रथाओं को रूढ करना, जिस कारण धर्म के सर्वाेच्च उद्देश्य से (अर्थात ईश्वरप्राप्ति के ध्येय से) समाज को हटाया जा सके, ये सब सम्मिलित हैं ।’

४. अंग्रेजों द्वारा आधुनिक छपाई तंत्रज्ञान के माध्यम से गूढ हिन्दू ग्रंथ का अनुचित भाषांतरण कर प्रकाशित करना

भारत का सबसे अधिक अंकित संस्कार था, हिन्दू धर्म का ! कंपनी के अधिकारियों ने इसे पहचानकर भारत के कोने-कोने से ‘अपराध’ एवं ‘स्थानीय कुप्रथा’ ढूंढकर ‘पूरे भारत में स्वीकृत हिन्दू कुप्रथा’ के रूप में उनका एकत्रित प्रदर्शन किया । नीरज अत्री इस संदर्भ में अध्ययनपूर्ण उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘सबसे पुराने ऐतिहासिक कागदपत्र (दस्तावेज) हमें मिलते हैं, वह २ सहस्र ३०० वर्ष पूर्व मेगस्थनीज द्वारा लिखा गया ‘इंडिका’ नामक ग्रंथ का ! उसमें कहा गया है, ‘यहां समाजघटक को श्रेणी के रूप में विभाजित किया है । इसमें सर्वाधिक आदर्श यहां के ब्राह्मण हैं । उन्हें वे ‘सोफिस्ट’ लिखते हैं; परंतु उसमें वे सुस्पष्टता से लिखते हैं – इस समाज में कोई भी ब्राह्मण बन सकता है; क्योंकि ब्राह्मण का जीवन सबसे कठिन है !’

इस्लामी शासन के शत्रु हिन्दू ईसाई अंग्रेजों की बलि चढ गए । सैकडों पुस्तकें लिखी गईं । उन्हें ‘इंडोलॉजी एक्स्पर्ट’ (पश्चिमी विश्व में भारत के कथित अध्ययनकर्ताओं के लिए प्रायोगिक संज्ञा) ‘हिन्दुओं द्वारा किए अत्याचारों का साहित्य’ के रूप में संबोधन करते हैं । ‘सती’, ‘देवदासी’, ‘भोंदू गुरु’ एवं ‘ब्राह्मणों पर पितृसत्ता’ जैसे सूत्र इस परियोजना के उत्पाद थे ।

पाकिस्तानी हिन्दुओं के लिए लडनेवाले एवं लेखक श्री. ओमेंद्र रत्नू इस विषय में कहते हैं, ‘इस्लाम एवं ईसाई पंथों की महिलाओं की अवस्था मुझे बताने की आवश्यकता नहीं है । हमारा तो स्त्रीप्रधान समाज था । ब्राह्मणों का योगदान इस देश की अस्मिता है । इस देश की प्रज्ञा एवं वैदिक संस्कृति के स्पंदनों के बिना यह हिन्दू समाज पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता । ब्राह्मण समाज हिन्दुत्व के मस्तिष्क जैसा था । उस मस्तिष्क को ही वामपंथियों ने दूषित किया एवं हमने वैसा होने दिया । उपनिषद एवं गीता के ज्ञान को देखिए । ब्राह्मणों ने श्रुतियों के माध्यम से अपने पुराण, रामायण, महाभारत, ये सभी ज्ञान भंडार बचा लिए । औरंगजेब प्रतिदिन एकेक करके जनेऊ उतार रहा था । इस देश में यदि ब्राह्मणों ने धर्म-परिवर्तन किया होता, तो हिन्दू धर्म शेष रहा होता क्या ? राजपूत भी किसके लिए लड सकते थे ? किसके लिए लडे होते ?

लैटिन एवं अंग्रेजी बोलनेवालों ने गूढ हिन्दू ग्रंथों का अनुचित अनुवाद किया । कंपनी के साहबों ने भारतीय सभ्यता के साथ अक्षरश: एक खिलौने की भांति छेडछाड की, उसे छिन्न-भिन्न किया । भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता समझने का ढोंग किया । तदनंतर आधुनिक छपाई यंत्रों के माध्यम से बडी संख्या में ग्रंथ की छपाई की एवं उस माध्यम द्वारा हिन्दू धर्म के विषय में भ्रम फैलाने का अत्यंत अनुचित प्रचार आरंभ किया ।

बेजमेनोव आगे कहता है, ‘समाज का ध्यान वास्तविक धार्मिक संगठनों से हटाकर झूठे संगठनों की ओर ले जाएं !

५. अंग्रेजो द्वारा राजा राममोहन राय का उपयोग करना

अमेरिका के हिन्दू अध्ययनकर्ता एवं प्रसिद्ध लेखक राजीव मल्होत्रा कहते हैं, ‘इसका आरंभ राममोहन राय से हुआ, जिनको नए हिन्दुत्व का जनक माना जाता है । राजा राममोहन राय कोलकाता में ईस्ट इंडिया कंपनी में नौकरी कर रहे थे । भारत का विध्वंस करने के प्रकल्प (कार्य) के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी को राजा राममोहन राय जैसे अनेक उत्साहित ‘गोरे साहब’ मिले । अंग्रेजों ने उन्हें सम्मान एवं प्रतिष्ठा का लालच दिखाकर उनका उपयोग किया । वर्ष १८३३ में राजा राममोहन राय के निधन के उपरांत उन्हें इंग्लैंड में ईसाई पद्धति के अनुसार दफनाया गया । उन्होंने भारत की मूल संस्कृति को पूर्णतया अनुचित पद्धति से प्रसारित किया । ब्रिटिशरों को राय के रूप में एक ‘प्रामाणिक गोरा साहब’ ही मिल गया था ।

बेजमेनोव आगे कहता है, ‘प्रत्येक समाज में कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो समाज के विरुद्ध रहते हैं । जब ऐसी सर्व शक्तियों का एकत्रीकरण होता है, तो क्या उस क्षण का उपयोग कर आंदोलन को तब तक जारी रहने का प्रयास करते हैं, जब तक कि संपूर्ण समाज का विनाश न हो जाए ?’

६. अंग्रेजों ने आदर्श वर्णव्यवस्था समाप्त कर भारत पर जातिव्यवस्था थोप दी

आगामी लक्ष्य बनी भारत की सहस्रों वर्षाें से चल रही जाति एवं वर्णव्यवस्था ! जब अंग्रेज भारत में आए, तब यहां ५०० में से ४०० संस्थान शुद्र राजाओं के थे । ‘सबवर्जन’ करने के लिए इन भेदों को अधिक विस्तीर्ण करना आवश्यक था । गोरे लोगों ने वर्ण एवं जाति व्यवस्था को विविध जातियों में परावर्तित किया; परंतु ‘जाति’ मूलत: एक पुर्तगाली अथवा स्पैनिश संकल्पना थी । उसका इस देश के साथ कुछ लेन-देन नहीं था ।

इस संदर्भ में अत्री कहते हैं, ‘‘वर्ष १८७१ की जनगणना का अध्ययन करने से समझ में आता है कि जनगणना आयुक्तों को आदेश था कि उन्हें सभी लोगों को ‘जाति’ की एक ही श्रेणी में लिखना है ! प्रत्यक्ष जनगणना करनेवाला अपने वरिष्ठों को विपरीत विवरण भेज रहा था, ‘यहां लोग इन जातियों को अस्वीकार कर रहे हैं’; परंतु ऊपर के आदेश के अनुसार वर्ण, जाति, कुलपरंपरा, इन सभी को ‘जाति’ के एक ही शब्द में गूंथा गया ।

आज हम उसी के गुलाम हो गए हैं । हमें ऐसा कहा जाता है कि भारत मूल में ही जातिव्यवस्था का समाज है एवं हममें वह ‘हीनभावना’ निर्माण हुई !

रोमन लोगों के ‘डिविडे एट इम्पेरा’ (तोडो और शासन करो !) इस नीति का ब्रिटिशरों ने भारत में अच्छे से प्रयोग किया । अंग्रेजों ने ब्राह्मण एवं क्षत्रियों को अत्याचारी ‘आर्य आक्रमणकारी’ बताकर उस समय की समस्याओं का दोष उन पर लगा दिया । वास्तव में इन समस्याओं का मूल कारण ‘ईस्ट इंडिया कंपनी की लूट’ एवं ‘इस्लामी काल की कुप्रथा’ थी । अंग्रेजों ने समाज के भेद अधिक विस्तीर्ण करते समय मुसलमानों को पुनः अधिक उत्साह से गोहत्या करने के लिए बाध्य किया । वर्ष १८७१ के ‘अपराधी दल कायदा’ द्वारा अनेक जातियों को ‘जन्मजात अपराधी’ के रूप में घोषित किया । इस प्रकार की नीति एवं गति से अल्प होते जा रहे संसाधन के कारण भारत की प्राचीन सामाजिक धरोहर धराशायी होने लगी ।

बेजमेनोव कहता है, ‘शिक्षा, समाज को रचनात्मक, प्रायोगिक एवं कार्यक्षम बातें सीखने से परावृत्त करें ! व्यक्ति, समूह एवं समाज के प्राकृतिक संबंध तोडकर कृत्रिम एवं सरकारी स्तर की संस्थाओं को उनके स्थान पर बिठाएं !’

यह वीडियो देखने हेतु लिंक : bit.ly/42XIcdr (टिप्पणी: इसमें कुछ अक्षर कैपिटल हैं ।)

(साभार : ‘प्राच्यम्’ यूट्यूब वाहिनी)

(उत्तरार्ध पढें अगले अंक में)

भारत का असत्य इतिहास सिखानेवाले अंग्रेजों द्वारा रचित षड्यंत्र को ध्वस्त करने के लिए शैक्षिक क्रांति होना अति आवश्यक !