न्यायपालिका एवं विधिपालिका के बीच की अहंकार की लडाईयां ?

२९ जनवरी २०२३ को प्रकाशित लेख में हमने ‘अधिकारों का वितरण तथा संसद के द्वारा न्यायालय के अधिकारों पर लगाई गई मर्यादाएं, संविधान में कितने परिवर्तन संभव हैं ? तथा सर्वाेच्च न्यायालय एवं संसद के बीच की छुपी लडाई का आरंभ, संविधान में परिवर्तन : जिनका समाधान नहीं करना है, ऐसे प्रश्नों की शृंखला ?’ आदि सूत्र पढे । आज हम यहां इस लेख का शेष भाग दे रहे हैं ।

५. ‘कॉलेजियम’ एवं सर्वाेच्च न्यायालय की परिवर्तनशील भूमिकाएं

जनता के मन में ये प्रश्न उठते हैं तथा वह उन्हें भूल भी जाती है, इसका अब आपको भी (न्यायदेवता को) अध्ययन हुआ होगा; परंतु अब जो कॉलेजियम अर्थात न्यायाधीश गणों का प्रश्न सामने आया है, तो न्यायदेवता, वह भी संविधान में नहीं है । डॉ. आंबेडकर ने कॉलेजियम नहीं बनाया तथा नेहरू ने भी नहीं बनाया । उस विषय में गांधी ने कभी नहीं बोला, तो यह सब अभी ही कैसे चलता है ?, यह तो एक प्रश्न है ही ! अब तक सर्वाेच्च न्यायालय ने इस विषय पर ३ बार चर्चा की । पहले प्रकरण में अर्थात स्वराज प्रकाश गुप्ता विरुद्ध केंद्र सरकार (वर्ष १९८१) के प्रकरण में न्यायालय ने कहा, ‘‘न्यायाधीश की नियुक्ति का अधिकार सरकार का ही है । यह संविधान के अनुरूप था ।’’ तो न्यायदेवता, अगले दो प्रकरणों में (सर्वाेच्च न्यायालय के पंजीकृत अधिवक्ता विरुद्ध केंद्रशासन (सुप्रीम कोर्ट एडवोकैट्स ऑन रेकॉर्ड विरुद्ध यूनियन इंडिया) में सर्वाेच्च न्यायालय ने संविधान के शब्दों के अर्थ भिन्न लगाए । हे न्यायदेवता, क्या आप यह जानते हैं कि संविधान में वाक्य है कि ‘न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश से ‘कंसल्टेशन (चर्चा) करें ।’ ‘कंसल्टेशन’ शब्द जैसा है, वैसा ही मैं आपको बताता हूं । मराठी में उसका अर्थ कदाचित ‘चर्चा’ अथवा ‘सुझाव’ हो सकता है । अंग्रेजी भाषा का शोध भारत ने नहीं किया है; इसलिए अंग्रेज अंग्रेजी भाषा के जो अर्थ लगाएंगे, वह हम भी लगाते हैं । कंसल्टेशन का अर्थ चर्चा कहा जाए, तो उसके उपरांत के निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय ने उसका अर्थ ‘अंतिम मत’, ऐसा लगाया तथा वह भी केवल मुख्य न्यायाधीश ही नहीं, अपितु उनके निचले क्रम में वरिष्ठ तीन न्यायाधीशों का भी यह मत है ।

उसके आगे केंद्र सरकार ने संदर्भ (रेफरंस इन इयर १९९८) मंगाया था । उसमें मुख्य न्यायाधीश तथा उनके निचले क्रम के वरिष्ठ ५ न्यायाधीश अंतर्भूत होते हैं । इस प्रकार से बना यह कॉलेजियम अर्थात ही न्यायाधीशों का समूह ! इसका अर्थ अगले दो निर्णय वर्ष १९८१ के सर्वाेच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध आए तथा ‘किसे नियुक्त करना है ?’, यह न्यायाधीश गण ही सुनिश्चित करेंगे तथा वे ही उनका चयन करेंगे, ऐसी रूढि बनी । हे न्यायदेवता, संविधान में हमें यह प्रथा दिखाई नहीं देती । ‘यह संविधान का अनादर है’, ऐसा भी कोई नहीं बोलता । तो यह निश्चित रूप से क्या है ?’, यह जनता के मन में प्रश्न है ।

अधिवक्ता वीरेंद्र इचलकरंजीकर

इस लेख में ‘न्यायदेवता’ के रूप में जो उल्लेख है, वह हिन्दू धर्म के न्याय से संबंधित देवताओं का उदा. यमदेव का नहीं है, अपितु विदेश से आयात की गई न्यायसंकल्पनाओं के अनुसार अंधी, हाथ में तराजू एवं तलवार लेकर खडी काल्पनिक देवी ‘जस्टिसिया (लेडी जस्टीस)’ का है । किसी का अनादर करना, इस लेख का उद्देश्य नहीं है ।

– अधिवक्ता वीरेंद्र इचलकरंजीकर

६. कॉलेजियम के विषय में मन में उभरनेवाले कुछ अन्य प्रश्न

हे न्यायदेवता, अब इन न्यायाधीश समूह के विषय में अर्थात कॉलेजियम के विषय में पुनः कुछ प्रश्न हैं –

अ. यह संविधान में नहीं है; परंतु यह कैसे चलता है ?

आ. जो संविधान में नहीं है, वह मूलभूत ढांचे में (बेसिक स्ट्रक्चर में) कैसे आता है ?

इ. ठीक है, वह आता है, तो आंबेडकरवादी नेता उसका विरोध क्यों नहीं करते ?

ई. संविधान में नहीं है; इसलिए हिन्दू राष्ट्र का विरोध होता है; परंतु संविधान में यदि नहीं है, तो कॉलेजियम का विरोध क्यों नहीं होता ?

उ. तो ऐसा भी नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी ने उनके कार्यकाल में ही कॉलेजियम बनाया ! अथवा हिन्दुत्व विरोधियों अथवा धर्मनिरपेक्षतावादियों की दृष्टि से देखा जाए, तो इसे मोदीभक्तों ने बनाया, ऐसा भी नहीं है । यह प्रक्रिया जब सर्वत्र कांग्रेस थी, उस समय भी चल रही थी, तो यह कैसे चल सकता है ?

ऊ. यदि ऐसा है, तो कॉलेजियम (न्यायाधीशों का समूह) तो लोकतांत्रिक पद्धति से चुना नहीं जाता । कुछ लोग कुछ लोगों का चयन करते हैं तथा उस प्रकार से चयनित ‘कुछ’ अगले कुछ लोगों की नियुक्ति करते हैं । यह प्रक्रिया लोकतंत्र में कहां तक स्वीकार करने योग्य है ? ऐसे कुछ लोगों द्वारा चयनित लोगों द्वारा बनाए संविधान का कैसे अर्थ लगाते हैं ?; क्योंकि पुनः मूलभूत ढांचे (बेसिक स्ट्रक्चर) का प्रश्न शेष रह जाता है ।

ए. इन कुछ लोगों ने संविधान का अर्थ लगाना भी चाहा, तो वही अर्थ वर्ष १९५० में संविधान लिखने बैठे सभी के मन में अर्थात नेहरू, पटेल, आंबेडकर, राजेंद्रप्रसाद आदि के मन में था ?, इसकी आश्वस्तता कौन करेगा ?

ऐ. ‘जो वर्ष १९५० में लिखा गया, वह तत्त्व तथा उसकी दिशा नेहरू, पटेल, आंबेडकर एवं डॉ. राजेंद्र प्रसाद आदि ने स्वीकार की, उसी दिशा में आगे बढना चाहिए’, ऐसा माननेवाला एक बडा वर्ग इस देश में है; क्योंकि वह यह कहता है कि यह संविधान का राज्य है तथा उसे संविधान के अनुसार ही चलाया जाना चाहिए । हे न्यायदेवता, यह मुझे भी स्वीकार है; परंतु न्यूनतम एक प्रश्न भी तो क्यों नहीं पूछा नहीं जाना
चाहिए ? कि इतने वर्षाें में यह विश्व बदल गया, तो हमें संविधान तथा उसकी दिशा बदलने पर विचार क्यों नहीं करना चाहिए ? (क्योंकि संविधान में न होते हुए भी इतने सारे परिवर्तन आए । संविधान में अभी तक १०० से भी अधिक संशोधन किए गए ।)

कॉलेजियम की अनुशंसा (सिफारिश), उसपर केंद्रशासन का मत एवं उपरांत कॉलेजियम का उत्तर !

इस कॉलेजियम ने कुछ न्यायमूर्तियों के चयन की अनुशंसा की । केंद्रशासन ने उसका विरोध किया । उसका नामों के साथ प्रसिद्ध हुआ समाचार इस प्रकार है ।

इससे बडी खलबली मच गई । सर्वाेच्च न्यायालय ने यह अत्यंत साहसिक तथा अच्छी भूमिका अपनाई है, ऐसी प्रशंसा आज की जा रही है । न्यूनतम वर्तमान सरकार का विरोध करनेवाले, तो वैसा बोल रहे हैं । वह सत्य होगा भी; परंतु उससे मेरी समझ में जो बातें आई हैं, वो यहां दी गई हैं । –

७. …तो क्या देशद्रोही बोला जाएगा ?

देश की विधिपालिका अर्थात संसद भटकती जा रही है; तो क्या इसलिए सर्वाेच्च न्यायालय ने यह भूमिका अपनाई, ऐसा कहा जाए ? तो न्यायालय भी उनके निर्णय बदलते हैं तथा घूमाते हैं; तो उन्हें क्या कहा जाए ? न्यायदेवता, मुझे यह भय लगता है कि मैंने यह प्रश्न पूछा, तो कोई मुझे ‘देशद्रोही’ कहेंगे; इसलिए मैं इन विचारों को अपने मन में ही रखूंगा; क्योंकि मैं सज्जन हूं तथा मेरे मन में संविधान के विषय में प्रश्न उठे, तो नहीं चलेगा । ‘मेरे मन में यदि धर्म के विषय में प्रश्न उठे, तो कदाचित मैं आधुनिकतावादी हो जाऊंगा; परंतु मैंने संविधान के विषय में प्रश्न उठाया, तो मैं पुरानी विचारधारावाला बन जाता हूं’, तो क्या इस देश में ऐसी प्रथा है ?

८. न्यूनतम श्रीराम जन्मभूमि का निर्णय तो सच्चा था, यह प्रमाणित हुआ !

अ. मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड यदि सचमुच निःस्पृह एवं न्यायबुद्धि के अनुसार चलते हों, तो यह स्वीकार करना पडेगा कि वर्ष २०१९ में श्रीराम जन्मभूमि के विषय में सर्वाेच्च न्यायालय का जो निर्णय आया, उसमें ‘मंदिर बने’, यह भूमिका तत्कालीन न्यायाधीश चंद्रचूड की भी रही है । इसलिए वह निर्णय विवादित नहीं था, यह स्पष्ट हुआ । इसलिए अब न्यायाधीश चंद्रचूड का स्वागत करनेवालों को श्रीराम मंदिर का भी स्वागत करना चाहिए; क्योंकि उस खंडपीठ में न्यायाधीश चंद्रचूड भी थे ही !

आ. कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित व्यक्तियों के विषय में केंद्र की भूमिका अनुचित क्यों है ?, यह सर्वाेच्च न्यायालय जनता के समक्ष रखता है; परंतु उनकी नियुक्ति होने में उनका कार्यकर्तृत्व क्या है ? सर्वाेच्च न्यायालय कुछ बताता नहीं, यह समझ में आता ही है ।

इ. सर्वाेच्च न्यायालय जनता के समक्ष ऐसे विषय लाकर केंद्र की अपकीर्ति कर रहा हो, तो न्यायाधीशों के विषय में कौनसा निवेदन मिला है ? इसे केंद्रशासन जनता के समक्ष क्यों नहीं लाता ?

९. इंदिरा गांधी चूक गईं, इसे स्वीकार न करनेवाले कांग्रेसी !

इस उपलक्ष्य में कांग्रेसवाले जिस केशवानंद भारती प्रकरण को उनकी मानहानि एवं पराजय मान रहे थे, वे अब अपरोक्ष रूप से पुनः उस निर्णय का पक्ष ले रहे हैं; परंतु ‘उस समय हम चूक गए थे’, यह वे स्वीकार क्यों नहीं करते ? ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में कुछ ही दिन पूर्व कांग्रेस के नेता पी. चिदंबरम् का प्रकाशित लेख यही स्पष्ट करता है, साथ ही दैनिक ‘लोकसत्ता’ में कुछ ही दिन पूर्व संपादकीय लेख ‘सर्वाेच्च न्यायालय की पारदर्शिता’ का पक्ष उठाता है; क्योंकि उन्होंने केंद्र के कारणों को उजागर किया । परंतु इसमें सर्वाेच्च न्यायालय के चयन के कारण कहां हैं ? इसका अर्थ ‘हमने जो किया वह ठीक, अब तुम्हें वह नहीं करना है’, ऐसा क्यों ?’

१०. …तो यह देश कौन चलाता है ?

रहने दीजिए । जनता सामान्य की भांति भोली है । उसे ऐसा लगता है कि यह देश लिखित कानून के अनुसार चलता है अर्थात ‘रूल ऑफ लॉ’; क्योंकि वैसे लिखा गया है तथा उसे सिखाया भी गया है । इस जनता के अनुभव से ही एक कहावत प्रचलित हुई है, ‘कानून गधा है’ । हे न्यायदेवता, अब आप मुझे संकट में न डालें । ‘कानून से देश चलता है’ तथा ‘कानून गधा है’, इन वाक्यों को यदि एकत्रित पढा जाए, तो ‘गधे इस देश को चलाते हैं’, यह अर्थ निकल आता है । मुझे बिल्कुल ऐसा नहीं कहना है । मैं केवल लोग क्या बोल रहे हैं, यह बताने का प्रयास कर रहा हूं । यह तो केवल आप तक तथा मुझ तक ही सीमित है । इसमें आपका, संविधान का, जनता का अथवा जनता के प्रतिनिधियों का अथवा आपके प्रतिनिधियों का अर्थात न्यायाधीशों का अनादर करने का मेरा कोई उद्देश्य नहीं है । इस माध्यम से मुझे किसी प्रकार की प्रसिद्धि भी नहीं चाहिए तथा कारावास भी नहीं चाहिए । मैं केवल आपको मेरा कहना बताना चाहता हूं ।

११. लोगों के मन में हिन्दू राष्ट्र की आशा उत्पन्न होने में अनुचित क्या है ?

हे न्यायदेवता ! मेरे अथवा मुझसे पूछे गए प्रश्न सुनने पर कदाचित आंखों की पट्टी हटाई जाए तथा दोनों हाथ हिलाकर कुछ कृत्य किया जाए, ऐसा आपको लगेगा अथवा कदाचित लगेगा भी नहीं; क्योंकि आपकी उत्पत्ति रोमन संस्कृति में हुई है, आपके देश में ऐसा ही चलता रहे; परंतु भारत की संस्कृति भिन्न थी तथा है । उसके कारण ये प्रश्न उठ रहे हैं । प्रश्न तो दोनों ओर से उठ रहे हैैं; परंतु उनके उत्तर नहीं मिल रहे । कौन सच्चा ? कौन झूठा ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है । कुल मिलाकर क्या परिवर्तन की आवश्यकता है ?, ऐसा लग रहा है ।

न्यायपालिका एवं विधिपालिका में बात नहीं बन रही है, ऐसा दिखाई देता है । इसमें ‘अंतिम शब्द किसका रहेगा ?’, इस पर विवाद है । देश की दृष्टि से यह अच्छा नहीं है, यह सत्य है । यह भी सत्य है कि यह ‘हमारी समझ में ही आ रहा है तथा क्या ये ‘हमारा ही शब्द अंतिम रहेगा’, इस प्रकार की अहंकार की लडाईयां हैं ? क्या यहां कुछ व्यवस्थाओं के तथा कुछ व्यक्तियों के अहंकार संलिप्त हैं ?; परंतु जहां अहंकार आता है, वहां विनाश होता है; यह तो सत्य है ! हे न्यायदेवता, क्या हमारे पास अहंरहित समाजव्यवस्था बनाने के कोई विकल्प हैं ? जहां करोडों अभियोग लंबित हैं, तो दूसरी अेार न्यायप्राप्ति के लिए पंक्तियां लगी हैं । इसमें कुछ लोगों को शीघ्र न्याय मिलने की आशा एक ओर, तो दूसरी ओर भ्रष्टाचार का उत्पात होने की अपरिपक्व नेताओं की स्थिति ! तो इसमें सामान्य लोग जाएं तो किसके पास जाएं ? हे न्यायदेवता, लोगों के मन में हिन्दू राष्ट्र की आशा एवं इच्छा अंकुरित हो रही है, तो उसमें अनुचित क्या है ? (समाप्त)

– अधिवक्ता वीरेंद्र इचलकरंजीकर, राष्ट्रीय अध्यक्ष, हिन्दू विधिज्ञ परिषद (२६.१.२०२३)